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बंद आंखें: उमा की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 1, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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बंद आंखें: उमा की कहानी
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पति का दूसरी औरत से अफ़ेयर हो जाना सामान्य माना जाता है, आज भी! और तो और उस महिला के परिजन भी यही मानते हैं. लेकिन यदि बात इसकी उलट हो तो? पर उमा की लिखी यह कहानी कोई सवाल खड़ा नहीं करती और न जाने कितने ऐसे जवाब देती है, जो दिमाग़ के तारों को झनझना दें. यह कहानी जीवन से मिलवाती चलती है. और बता जाती है कि आंखें बंद हों तो कान भी बंद हो जाते हैं और ज़ुबान कुछ ज़्यादा ही बोलती है. लेकिन सपने भी तो यही बंद आंखें देखा करती हैं…

मौसम इतना भी गर्म नहीं कि मैं पसीने से तर-बतर हो जाऊं, लेकिन ऐसा हो रहा है. कभी-कभी कुछ होने के पीछे कुछ और होना ज़रूरी नहीं होता, बस यूं ही जीवन में घट जाते हैं कुछ हादसे, जैसे कि आज मेरे साथ हो गया. वो कब से मेरे नज़दीक आने की कोशिश कर रहा था, मैं अच्छी तरह से जानती थी कि वो क्या चाहता था, मैं यह भी जानती थी कि जो उसे चाहिए था, उसकी हसरत मुझे तो कतई नहीं थी. मैंने अपने इर्द-गिर्द एक मज़बूत दीवार बना रखी थी, पर शायद इस बात का इल्म नहीं था कि मज़बूत चीज़ें जब ढहती हैं तो बहुत कुछ बिखर जाता है. वो जिस तरह तूफ़ान की तरह आया, उसी तरह चला भी गया और मैं बिखर गई, पर अपने इस तरह बिखर जाने पर मैं जरा भी दुखी नहीं हूं, क्यों!
ज़िंदगी न हुई, जैसे इम्तेहान का पर्चा हो गई, उस पर भी ये कि परीक्षा आपको ख़ुद ही करवानी है, पर्चा भी ख़ुद बनाना है और ख़ुद ही जवाब भी देने हैं और उसे जांचना भी है. मैं जांच रही हूं ख़ुद को, मैंने ख़ुद को कम नंबर दिए हैं, क्योंकि मुझे तो यह पता भी नहीं कि यूं ख़ुद को क्यों बिखर जाने दिया और अगर बिखर भी गई तो परेशान क्यों नहीं हूं! और जब परेशान नहीं हूं तो फिर इस गिरते पारे में भी पसीना यूं मुझ पर मेहरबां क्यों है!

मैंने खुद को ग्रेस मार्क्स दे डाले, क्योंकि मैं इस मोड़ पर और ठहर नहीं सकती, मुझे आगे बढ़ना है और इस आगे बढ़ने के लिए धक्का देना बहुत ज़रूरी-सा हो गया है. मैं ख़ुद को धक्का दे रही हूं…उस हादसे से ख़ुद को बाहर निकालने की कोशिश कर रही हूं, जो कुछ घंटों पहले ही घटित हुआ. मैंने देखा है ऐसा बहुत-सी फ़िल्मों में कि स्पर्श पानी से धुल जाते हैं, कि ऐसा कुछ होने पर देर तक नहाती रहती हैं औरतें, स्पर्श मिटाती हैं या ग्लानि या कुछ गंध…अजीब गंध होती है पुरुषों की, मुझे पसंद नहीं, ज़रा भी नहीं….

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तो फिर किसने कहा इस गंध में डूब जाने को? ख़ुद से सवाल करने वाली मैं ख़ुद ही तो हूं. बुद्धि कम है या इसका इस्तेमाल मुझे ज़रा कम आता है, यही वजह है कि सारे सवालों के जवाब नहीं हैं मेरे पास. मुझे सच में समझ नहीं आ रहा कि मैंने ऐसा क्यों किया? क्या सेक्स मेरे लिए टैबू है? हां, हो सकता है. मुझे तो अब तक यही लगा है, मुझे रटाया गया है ये सब, एक किताब में से, एक ऐसी किताब में से, जो बस है, लेकिन जिसका कोई ठोस स्वरूप दिखता ही नहीं है. जैसी किताब है, वैसा ही उसे लिखने वाला, जो कि है तो सही, लेकिन उसका चेहरा-मोहरा कुछ मालूम ही नहीं. ऐसे में अगर कभी ये किताब चोरी हो जाए या इसका लेखक गुम हो जाए तो!

मुझे लगता है कि अगर लेखक गुम हो गया तो कोई भी उसे ढूंढ़ने की कोशिश नहीं करेगा. अगर किसी ने उसे तलाशने की ज़हमत उठाई, तो क्या बताएंगे! कैसा दिखता है लेखक का चेहरा! क्या पड़ोस वाले शर्मा जी जैसा, जो सुबह दो घंटे बॉलकनी में बैठकर अख़बार चाटते हैं और सरकारी दफ़्तर में अंगूठा टेक कर आ जाते हैं…. वैसे ये भी एक शोध का विषय हो सकता है कि जिस तरह कुछ सालों बाद पति-पत्नी की शक्लें मिलने लगती हैं, उसी तरह सरकारी दफ़्तर में काम करने वाले लोग उस सरकारी इमारत की तरह लुटे-पिटे क्यों नजर आने लगते हैं? शोध जब होगा, तब होगा, पर ये तो सच ही है कि ऐसे लुटे-पिटे शर्मा जी ऐसी दिलचस्प मसालेदार किताब नहीं लिख सकते. वक्त से परे देखने की कूव्वत होनी चाहिए लेखक बनने के लिए. तो शायद उस लेखक की शक्ल मिश्राइन की तरह हो, उन्होंने देखा था एक रोज मुझे किसी के साथ और उन्हें लग गया था कि मेरा उससे चक्कर हो सकता है, उन्होंने उसकी जन्मकुंडली भी तैयार करवा ली थी, आख़िर तो मेरी जिंदगी का सवाल था. मुझे लगता है कि अगर उस लेखक की शक्ल मिश्राइन जैसी न हो, तब भी सीरत तो करीब-करीब ऐसी ही होगी. ऐसी सीरत वाले ही तो सबकी कुंडलियां तैयार करवाते हैं, कुंडली दोष भी वही निकालते हैं और उपाय बताना भी उन्हीं की ज़िम्मेदारी है. मुझे भी तो उपाय बता दिए गए थे. समझा दिया गया था कि मुझे क्या करना चाहिए और सुना दिया गया था उस किताब से एक हिस्सा, जो कुछ इस तरह है-पति का घर छोड़कर निकली औरत उस ईंट की तरह होती है, जो घर की दीवार से निकलकर सड़क पर गिर गई हो, जहां उसकी क़िस्मत में सिर्फ ठोकरें ही होती हैं. उस ईंट का वजूद भी तभी कायम रह सकता है, जब वह फिर से उस खांचे में फिट कर दी जाए. घर की आबरू भी इसी में है.

मुझे भी फिट किया जा रहा है. दरअसल मां ने भी यह किताब बड़े मन से पढ़ी है, वो यूं ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं, पर इस किताब को समझने के लिए किसी ख़ास योग्यता की ज़रूरत है भी नहीं. दरअस्ल, योग्यता ही इस किताब को समझने में अड़चनें पैदा करती हैं, ये एक रोज़ मिश्राइन ने मां को बताया था. किसी सूनी-सी दोहपरी में जब दोनों बतिया रही थीं, उस वक़्त मेरे हाथ में चाय थी. मैं चाय गटके जा रही थी, ऐसे में कुछ बोल तो नहीं पाई, मुंह जब बोलता नहीं, तो कान ज़्यादा सुनने लगते हैं, और कई बार तो सूंघने भी लगते हैं. मैंने जो कुछ सुना और सूंघा, वो यह कि मैंने कॉलेज में बेकार की पढ़ाई कर ली है. मां को भी यही लगने लगा है. मां बहुत दूर की सोच लेती हैं. कॉलेज की पढ़ाई उन्होंने की नहीं, इसलिए उनके दिमाग में ज़रा भी कचरा नहीं है. उन्हें सब साफ़-साफ़ दिखाई देता है, दूर तलक दिखाई देता है, उन्हें पता है कि मैं पीहर में ही मर गई तो सिर्फ़ यही लोक नहीं बिगड़ेगा, परलोक भी बिगड़ जाएगा…उन्होंने देखा है ऐसी औरतों का परलोक बिगड़ते हुए.

इन दिनों मां हरिद्वार गई हुई हैं, सारे घर के पाप वहीं धोकर आएंगी और एक मैं हूं कि नहाई भी नहीं…पाप करके नल के पानी से भी नहीं नहाई…कहीं इसलिए तो पसीना नहीं आ रहा! उस दूसरे लोक में बैठा कोई यूं मेरे पाप धो रहा है. मेरी मां को आप अनपढ़ समझ उनकी खिल्ली मत उड़ाना, उनके तर्क का तोड़ आपके पास भी नहीं हो सकता. वो कहती हैं कि बहुपत्नी विवाह तो सनातन परंपरा है. ये कानून बना दिया गया और जबरन हिंदुओं को एक विवाह अधिनियम से बांध दिया गया. अब बेचारे पुरुष दूसरी शादी नहीं कर सकते तो क्या दूसरा अफ़ेयर भी न चलाएं. सही कहती हैं न मां! आख़िर हम तो रहते ही ऐसे घर में हैं, जहां मुख्यद्वार पर ही गणेशजी दो पत्नियों के साथ विराजमान रहते हैं.
मैं बताना चाहती हूं मां को कि आपके गणेशजी भारत के ही दूसरे कोने में कुंवारे माने जाते हैं, पर मुझे पता है कि वो सुनने के लिए इन दिनों मेरे पास आती ही नहीं, उन्हें बस बोलना होता है और जब सिर्फ़ बोला जाता है तो कान ठीक से काम करना बंद कर देते हैं. मां अक्सर कहती हैं, ‘पहले के आदमियों को दूसरे अफ़ेयर की जरूरत ही कहां थी? पहले तो शादी ही कर लेते थे. तेरे दादाजी को ही ले, दो शादियां की थी उन्होंने, तू क्या उन्हें भी गलत बोलेगी!’

नहीं, मैं दादाजी को कैसे गलत बोलूंगी! बड़े तो गलती करते ही नहीं हैं और ख़ासतौर पर वो बड़े अगर पुरुष हैं, तो हरगिज़ नहीं, वो तो मुखिया हैं. उनके पीछे तो हम सब हैं. मां को लगता है कि मेरे दिमाग़ में सच में बहुत कचरा है इसलिए उन्होंने एक रोज़ सिर सहलाते हुए धीरे-धीरे प्यार से कहा, उसी तरह जैसे हलाल करते हैं बकरे को, मैंने देखा है हलाल होते हुए बकरे को, टपकते हुए लहू को, मां ने नहीं देखा मेरे बहते आंसुओं को, वो बोलती रही,‘अरे माफ़ कर दे बेचारे को और वैसे भी वो कौन-सी दूसरी ले ही आया, चक्कर ही तो चला था. ऐसे न जाने कितने चक्कर चलते हैं आदमी के. तुझे पता चल गया, किसी को पता नहीं चलता. भोला आदमी है, छिपाना भी नहीं जानता. माफ़ी मांग तो रहा है तुझसे और तू है कि….और छोरी तुझे क्या लगता है कि कोई दूसरा मिल जाएगा तो रखेगा तुझे पलकों पर बैठाकर, अरे तेरे मज़े लेकर चलता बनेगा. छोरों को ब्याह के लिए कुंवारी ही चाहिए आज भी, भले ही कितना मॉडर्न जमाना हो गया हो….पैसा टका होता अपने पास तो कोई पैसे के लिए ही ब्याह कर लेता तुझसे, तू तो जानती ही है, पूरे दस लाख खर्च करवाए थे तेरे सासरे वालों ने…. अब मेरे पास कुछ नहीं बचा तेरे लिए….’
‘हमदर्दी भी नहीं’, मैंने बोलना चाहा था, पर बोली नहीं. मां का कहा एक-एक लफ़्ज़ सच लग रहा था. सच में ऐसा ही है!

दिमाग़ में कचरा बहुत है मेरे, वो भी तो ऐसा ही कहता है. कहता है कि एक रोज़ मुझे ख़ुद पर तरस आएगा कि मैंने अपने साथ न्याय नहीं किया, मैंने अपनी ही देह को संतुष्ट नही किया. मैं इसीलिए बीमार रहने लगी हूं, मुरझाई हुई-सी. वो मुझे खिलते हुए देखना चाहता है, उसने कहा है कि वो मुझसे बहुत प्यार करता है. सच में पुरुष प्यार करते हैं! वो सच में लौटेगा, क्या पूरी तरह से मेरी ज़िंदगी में, पर कब तक लौट-लौट कर आएगा? सच तो यह है कि मुझे ये जानने में दिलचस्पी नहीं कि वो लौटता है या नहीं. मुझे सच में उससे प्रेम नहीं, हां उसके साथ बिताए कुछ पल मुझे ख़ुशी दे गए. ख़ुशी इसलिए भी कि उसे मालूम भी नहीं था कि मैं घर में अकेली हूं. वो यूं ही मिलने आया था, कुछ किताबें देने, जो उसे लगा कि मुझे पढ़नी चाहिए, ताकि मेरा दिमाग़ खुल सके. वो फ़ेमिनिस्ट है. उसने कहा कि मेरे दिमाग़ में कचरा भरा है. अजीब बात है न, मेरी मां और मेरा ये हमबिस्तर, जो एकदम विपरीत विचारधारा वाले लोग हैं, दोनों को ही लगता है कि कचरा तो मेरे ही दिमाग़ में है. गोल दुनिया है, दोनों की सोच एक-दूसरे से दूर जाती हुई लगती है, पर फिर से एक बिंदु पर मिलती है और साबित करती है कि दोनों की राय मुझे लेकर एकदम सही है, तो क्या दोनों ही एक तरह के लोग हैं!
मेरा होना, ऐसा, वैसा, जैसा भी, मेरे होने को जो तय करते हैं, वो प्रोग्रेसिव कैसे हो सकते हैं! आग लगती है, तो पानी आग बुझाता है, लेकिन बरसते बादलों के बीच जो बिजली बनती है, गिरती है कहर बनकर उसका क्या!

एक तूफ़ान लिए फिरती हूं इन दिनों में भी, कब बिजली बनकर टूट जाऊं और सारी उम्मीदें तहस-नहस कर दूं, ऐसे ख़याल मां के हैं और इसी वजह से वो शांति पूजा के लिए हरिद्वार गई हैं. उन्हें यक़ीन है कि पूजा करवाने के बाद मेरा मन शांत होगा और तब शायद पति के उन अपराधों के लिए उन्हें क्षमा कर दूंगी, जो देखा जाए तो अपराध है ही नहीं, ये तो पुरुष की प्रवृत्ति है और फिर कुछ गट्स तो ख़ुद में भी होने ही चाहिए पति को बांधकर रखने के लिए, ये भी एक प्रोग्रेसिव स्त्री ने कहा था. बांधना पति को होता है, तो पट्टा भी…! मेरा हाथ अचानक मंगलसूत्र की तरफ बढ़ गया और वो टूटकर बिखर गया. शांति जाप चल रहा होगा शायद, मुझे उसके टूटते ही हंसी आ गई और मेरे चेहरे के सामने पति का चेहरा घूम गया, सच में बुरा नहीं है उनका चेहरा. उनका बिहेवियर भी. मुझे उनका छुआ याद आ गया और एक फुरफुरी-सी दौड़ गई. सच में वो मुझसे कई बार माफ़ी मांग चुके हैं. शायद नई प्रेमिका से उनकी बनी नहीं, शायद वो बनाना ही नहीं चाहते थे. शायद उनसे भी ऐसे ही कुछ हो गया हो, जैसे मुझसे हुआ था. शायद यह मां की पूजा का असर होगा कि मेरे भीतर मचलता तूफ़ान जरा थमता जा रहा है, पर सच में… !

फ़ोन बज उठा, उन्हीं का है, मेरे पति का. इन दिनों रोज़ ही उनके फ़ोन आते हैं. मुझे बहुत ग़ुस्सा आता है, जब भी उनका फ़ोन आता है, पर आज ऐसा नहीं है. आज हम दोनों ही एक धरातल पर खड़े हैं, एक जैसे पतित…. मैंने फिर भी न जाने क्यों फ़ोन नहीं उठाया. क्या मैं उनसे बात नहीं करना चाहती! नहीं, आज चीज़ें कुछ बदली हुई सी लग रही हैं. मैं वैसे ही तसल्ली में हूं, जैसे बचपन में एक बार बहन ने मेरी कॉपी फाड़ दी थी और मैंने भी इस पर उसकी कॉपी फाड़ दी थी. कॉपी जमा करवानी थी स्कूल में, ऐसे में दोनों को सज़ा मिली, लेकिन उस सजा में दर्द ज़रा कम था. आज भी मैं कुछ वैसा ही महसूस कर रही हूं. इसी बीच मां का फ़ोन भी आया, मैंने उठा लिया, उन्होंने बताया कि वो आज ही शाम को रवाना हो जाएंगी, पंडित ने कहा है कि कल बहुत अच्छा दिन है, एक बार पति के घर में पैर रख ही लिया जाए.
‘नहीं इतनी भी जल्दी नहीं.’, मैंने कहा और इस बार उन्होंने बिना कोई प्रवचन सुनाए मेरी बात मान ली. शायद इसलिए कि उन्हें लगने लगा था कि मेरे भीतर का कठोरपन जरा कम हो रहा है. मैं धीरे-धीरे पिघल रही हूं. इस बीच उसके यानी मेरे हमबिस्तर के भी फ़ोन भी आते रहे, पर न जाने क्यों मेरे मन में कोई बेचैनी नहीं थी फिर से उससे मिलने के लिए. आख़िर क्यों मैंने उसे इतने क़रीब आने दिया था. न मैं किसी के क़रीब आ पा रही हूं, न दूर जा पा रही हूं, ऐसा क्यों!

अजीब कशमकश बनी हुई है, जिंदगी एक तय सिलेबस तो नहीं है, कि सब पढ़ लिया, समझ लिया और पार उतर गए. टैक्सी से उतरते हुए मैं यही सोच रही हूं. पति ने कहा था कि वो ख़ुद आएंगे लेने, न जाने क्यों मैंने मना कर दिया था, आऊंगी तो अकेली ही. एक बच्चा इस दुनिया में अकेला ही तो आता है, अनजान मां-बाप के पास. एक जोड़ी क़दमों में साहस ज्यादा होता है चलते चले जाने का. मैंने भी बहुत साहस के साथ डोरबेल बजाई, सच बताऊं तो मुझे अभी भी नहीं पता कि मैं क्या करने वाली हूं, मैं यहां हूं, क्यों, किसलिए?
मैं उलझन में हूं और इस बार पति की दहलीज़ पर क़दम रखते हुए मेरे साथ सपने नहीं, उलझनें ही हैं. जैसे-जैसे इन उलझनों से घिरे हुए मैं क़दम-दर-कदम आगे बढ़ती रही, मुझे बहुत हल्कापन महसूस हुआ. कहीं मैं ऐसा तो नहीं सोच रही कि किसी और से रिश्ता बनाकर मैंने उनसे बदला ले लिया? नहीं, पता नहीं. मैं मां के, समाज के दबाव के चलते आई हूं? ऐसा भी नहीं, ऐसा होता तो शायद मैं यहां से जाती ही क्यों? एक भूल-भुलैया का खेल है ज़िंदगी. अपनी सही राह पकड़ने के लिए हम बहुत सारी राहों पर चलकर देखते हैं कि कोई तो दरवाज़ा नज़र आएगा कहीं, जो यहां से बाहर निकाल लेगा, इस कशमकश से बाहर. मैं सोच ही रही थी कि दरवाज़ा खुल गया. मेरे हाथ से पति ने मेरा सामान लिया और कमरे में ले जाने लगे, न जाने क्यों मैंने अपने बैग को और कसकर पकड़ लिया. और न जाने क्यों उन्हें कहा कि चाय पीनी है.

‘हां, हां, क्यों नहीं. तुम बैठो, मैं अभी चाय बनाकर लाता हूं.’
वो चाय बनाने किचन में चल दिए. इस घर में हम दो शख़्स ही रहा करते थे. क़रीब दो साल पहले साढ़े चार फेरे लेकर एक-दूसरे से बंध गए थे हम, हालांकि पट्टा मतलब कि मंगलसूत्र मेरे ही गले में बांधा गया था. मैं इसलिए बंधी रही, उसे बांधा ही नहीं गया था, उसकी गलती नहीं थी, उसे सच में किसी भी रंग और डोरी से बांधा नहीं गया था, ऐसे में एक रोज वो घर से बाहर टहलते-टहलते दूर निकल गया, अब जबकि उसके पास ऐसी कोई निशानी ही नहीं थी, जो यह साबित करती कि वो किसी और का है, कोई उसका हो गया…. बस इत्ती सी बात का मैंने बतंगड़ बना दिया और घर छोड़ दिया. अब पति को लगने लगा है कि वो भटकाव था, उन्हें मौक़ा मिलना चाहिए, सच है मिलना ही चाहिए. और मुझे क्या मिलना चाहिए…! मेरे सवाल मुझसे जारी हैं और पति सवालों के बीच दो कप के साथ आकर बैठ गए.
‘बस दो कप’, मैंने कहा,
‘हम दो ही लोग हैं, क्यों कोई आ रहा है क्या? मम्मी आ रही हैं क्या?’
‘हम दो के बीच अब और लोग भी हैं न, इसलिए पूछा.’
मैंने उनके जवाब का इंतज़ार नहीं किया और इधर-उधर नजरें दौड़ाते हुए कप हाथ में ले लिया. उनके पास सच में कोई जवाब था भी नहीं. वो मुझसे नज़रें चुराने की कोशिशें करते रहे.

उसने हिम्मत की और झुकी नजरों से ही कहा, ‘एक मौक़ा दो, सब ठीक हो जाएगा. प्लीज़….’
मैं हंस दी, चाय पीती रही चुपचाप और वो चाय के ठंडे होने तक बोलते रहे,‘जानता हूं, तुम नाराज़ हो! होना भी चाहिए. तुम्हारी जगह मैं होता, तो मैं भी बहुत नाराज़ होता. बहुत पछताया हूं तुम्हारे जाने के बाद. पुरुष ऐसे ही होते हैं. सेक्स और प्रेम के बीच के फ़र्क़ को समझ नहीं पाते. मैं अब भी ऐसा कोई वादा नहीं करने जा रहा, लेकिन मुझे किसी और की आदत नहीं. मुझे तुम्हारी आदत पड़ चुकी है. यही सबसे बड़ा सच है.’
‘बुरी आदतें छोड़ देनी चाहिए.’
‘आदत सिर्फ़ आदत होती है, अच्छे या बुरे से परे…’ ये कहते हुए पति का चेहरा बहुत दयनीय होता जा रहा है. कमरे का हाल भी बहुत दयनीय ही है. सरकारी क्वार्टर है, नीरस-सा. पति का चेहरा भी इससे मिलने लगा है. मैंने चाय का अंतिम घूंट पीते हुए पूरे कमरे का मुआयना कर लिया. कमरे को देखो या पति को, एक ही बात है. मैं देखती रही. चाय ख़त्म हो गई, मैंने कप नीचे रखा और उन्होंने कप उठा लिया यानी अब उन्हें सिर्फ़ सुनना है और बोलना मुझे.
‘तुम्हारी मां का फ़ोन आया था मेरी मां के पास. दोनों मांओं के कहने पर चली आई, पर मैंने अभी कुछ फ़ैसला नहीं किया है. हो सकता है मैं यहां चंद दिनों ठहरूं या फिर… यह भी हो सकता है कि तुम्हें फिर लगे कि तुम्हें तो किसी और चीज़ की आदत है, ऐसा होता रहता है शायद तुम्हारे साथ, है ना?’
कप उनका भी ख्राली हो चुका है, अब उन्होंने हिम्मत करके मेरी आंखों में देखा. वैसे ये हिम्मत ताने सुनकर जाग उठती है. मुझे अच्छा नहीं लगा कि उनकी हिम्मत बढ़ने लगी है. उन्हें शायद लग रहा है कि ज़रा कोस लेने से औरतें हल्की हो जाती हैं. मैंने तय किया कि मुझे कोसना नहीं है. पर मैं ये गलती कर चुकी थी और वो भारतीय पुरुष में तब्दील हो गए और बोलते रहे,‘मेरी ज़िंदगी में तुम्हारी जगह कोई और नहीं ले सकता, कोई भी नहीं. मैं जानता हूं कि मुझसे गलती हुई. मां को जब पता चला, तो बहुत नाराज़ हुईं, बोलीं, ये घर सिर्फ़ मेरी बहू का है और किसी का नहीं.’
‘और तुम क्या सोचते थे? उसे कब बताया कि तुम शादीशुदा हो?’
‘उसने पूछा ही नहीं, जब पूछा तब बता तो दिया था.’
‘और तुम्हें शुरुआत में यह बताना ज़रूरी लगा ही नहीं!’
‘तुम्हें नहीं लगता कि हमें अब इस बात को ख़त्म कर देना चाहिए, इस चाय की तरह.’ उसने मेरी ओर देखते हुए जबरन मुस्कुराने की कोशिश की.
मैंने भी उनका साथ दिया, कुछ ज़्यादा मुस्कुराई, पर जबरन लाई गई मुस्कान चेहरे पर एक पल भी नहीं ठहरती.
फिर भी इस अधूरे से पल ने भी उनकी हिम्मत बढ़ा दी थी और उन्होंने बांहों में भरते हुए कहा,‘हम एक-दूसरे के हैं, मुझे बस एक बार माफ़ कर दो.’
‘क्या तुम करते? ’
‘’मुश्क़िल सवाल है, यक़ीनन मेरे लिए ये आसान नहीं, पर मैं कोशिश ज़रूर करता. ’
‘तुमको पूछना चाहिए.’
‘क्या? ’
‘मेरी रातों के हिसाब और देखा जाए तो दिन के भी… ’
आंखों के सामने वो दिन तैर गया… जाने क्या था उस बीते हुए दिन में कि मुझे पति के बारे में सोचते हुए पहले जितनी नफ़रत होती थी, उतनी अब देखकर भी नहीं हो रही. शायद यही कि हम दोनों अब एक ही धरातल पर खड़े थे पतित, पर पहले पतित तो वो हुए न, अगर वो ऐसे नहीं होते, तो क्या मैं करतीं ऐसा! हर बार मेरे सवाल दूसरों से कम ख़ुद से ही ज़्यादा रहे हैं. मैं अभी भी जैसे-तैसे इस लम्हे से आगे बढ़ जाना चाहती हूं, एक बवंडर-सा यह लम्हा, एक भंवर-सा है यह पल, जो इस पल के पार पहुंचे तो ज़िंदगी लंबी है, पर क्या ऐसा होगा?
‘क्या सोचने लगीं?’ उन्होंने टोक दिया, जैसे हाथ पकड़कर खींच लिया हो. मैं बताना चाह रही हूं अपने दिन के हिसाब, पर क्या मुझे बताना चाहिए. वो अब कातर नज़रों से मेरी ओर देख रहे हैं. मुझे बहुत मज़ा आ रहा है. उसकी नज़रों में मुझे मेरी नज़रें दिखाई दे रही हैं. कुछ ऐसी ही तो थी, जब मैंने जाना कि उनकी ज़िंदगी में कोई और भी शामिल हो चुका है और मैं इस उम्मीद में उससे पूछ रही थी कि वो इस सच को झुठला दे, उनकी नज़रें इसे झुठला न सकी थीं और मेरी नज़रें…हां ऐसी ही थीं, एकदम ऐसी ही. कितने मिलने लगे हैं हम एक-दूसरे से. मुझे उन पर प्यार आने लगा, सच में…! बहुत सारा प्यार, मैं उन्हें देखती रही देर तक, पर वो देख न सके देर तक. वो जान गए, अपनी नज़रों को कौन नहीं पहचानता? उन्होंने अपनी नज़रें मेरी नज़रों में देख ली थीं और मेरे भीतर सुकून पसर गया था. मैं याद करती रही मैं कितना चिल्लाई थी, कितना रोई थी, जब मैंने जाना कि हम दो के बीच कोई हल्का साया नहीं, एक पूरा का पूरा वजूद है, सांस लेता हुआ, उसकी सांसों की मौजूदगी में मेरी सांसें घुटने लगी थीं और इतना बिखरी कि वो शोर दूर-दूर तक गया. समझाइशों के दौर चलते रहे, लेकिन मुझे समझ ही नहीं आया था और शायद आता भी अगर वो कोशिश पति की ओर से होती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ था. मेरा रोना, चीखना सब चलता रहा. मैं कितनी बेचारी हूं, मुझे ऐसा लगता रहा, मेरा पति मुझे प्यार नहीं करता, मुझमें कमी है? एक झटके से मेरा वजूद अधूरा हो गया था. मैं उस अधूरेपन को भरने में लगी रही, पर वो बेचैनी यहां क्यों नहीं. वो नज़रें हैं, वो तैरते लाल डोरों में दर्द भी वैसा ही है, लेकिन कोई शोर नहीं, कोई सवाल नहीं, कुछ नहीं…

वो चुप हैं, लेकिन बातें बहुत कर रहे हैं, यहां की, वहां की, ऑफ़िस की, मांओं की, बिखरे हुए घर की… कैसेट ज़िंदगी का मैं कभी रिवर्स करके देखती हूं, कभी फ़ॉरवर्ड करके. वो इस तरह क्यों रिऐक्ट कर रहे हैं, वो बहुत महान बन चुके हैं या वो भी फ़ेमिनिस्ट हैं, सेक्स उनके लिए टैबू नहीं. मुझे लगता है कि भारतीय पुरुषों की यह धारणा दूसरी स्त्रियों के संदर्भ में तो होती है, लेकिन अपनी पत्नी के लिए नहीं. फिर ऐसा क्या है! मेरी सांसें ज़्यादा तेज़ चलने लगी हैं, मैं उन्हें उसी तरह तड़पते देखने चाहती थी, लेकिन मैं अभी उनके साथ बैठी यहां-वहां की बातें कर रही हूं. टमाटर-प्याज़ के भाव की… बाई के अक्सर छुट्टी लेने की, अख़बार वाले के देर से आने की… हम इन्हीं बातों में मशगूल थे कि अचानक कुछ गिरने की आवाज़ आई. मैं भारतीय महिला बन चुकी थी. मैं आवाज़ के पीछे गई, बिल्ली ने दूध के बर्तन पर रखी जालीदार प्लेट को गिरा दिया था. मेरी आहट से वो एक कोने में दुबककर आंखें बंद करके बैठ गई. और जब आंखें बंद होती है और कान भी बंद कर लिए जाते है तो ज़ुबान कुछ ज़्यादा ही बोलती है. बाहर से लगातार उनकी आवाज़ें आती जा रही हैं, क्या हो गया, देखो बिल्ली ही आई होगी, रोज़ आकर दूध पी जाती है. अब तुम ही ध्यान रखो, मेरे बस का ही नहीं… मुझे हंसी आ गई और याद आ गई एक बात, पुरुष इतना अहंकारी होता है कि वो ये झेल भी नहीं सकता कि उसकी पत्नी किसी और के साथ और इसलिए वो तब सवाल करने बंद कर देता है, जब उसे जवाब मन मुताबिक़ मिलने की उम्मीद नहीं होती. मुझे अब वो ज़्यादा बेचारे नज़र आ रहे हैं, बिल्कुल इस बिल्ली की तरह. अपने-अपने डर से आंखें बंद कर लेना कमज़ोरी हो सकती है, लेकिन सपने भी तो यही बंद आंखें देखा करती हैं.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले: भवानी प्रसाद मिश्र की कविता
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बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले: भवानी प्रसाद मिश्र की कविता

August 12, 2024
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हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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