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ओए अफ़लातून
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दीप जल उठे: शर्मिला चौहान की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
November 4, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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दीप जल उठे: शर्मिला चौहान की कहानी
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यदि आपके भीतर कुछ कर गुज़रने का आत्मविश्वास है तो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी, अंधेरी से अंधेरी राहों में भी रौशनी के दीप जल उठते हैं. इस बात की ओर इंगित करती हुई कहानी.

जैसे-जैसे दीपावली पास आ रही है लीला मौसी के शरीर में फुर्ती का और तेज़ी से संचार होता जा रहा है. पैंसठ साल की इस महिला को देखकर जवान औरतों के सिर भी चकरा जाएं. चकरघिन्नी पैरों में लगाए, सारे दिन काम में लगी रहती. ना ख़ुद के खाने-पीने का होश, ना सोने की सुध.

“मौसी, इतना काम कैसे कर लेती हो आप? त्यौहारों पर तो आपसे रौनक बनी हुई है,” रीता, जो हर त्यौहार पर मौसी को पकवानों का आर्डर देती थी, ने पूछा.

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“तुम्हारी जैसी कई बेटियां हैं मेरी, जो दिनभर ऑफ़िस में काम करतीं हैं. अब त्यौहारों पर वो भी तो सज-संवर कर परिवार के साथ ख़ुशियां मनाएंगी ना! बस, उन सबको देखकर मुझमें उत्साह आ जाता है,” चकली का मिक्स अनाज भूंजते हुए लीला मौसी ने कहा.

“मौसी इस बार मैं पंद्रह दिनों पहले ऑर्डर कर रहीं हूं, क्योंकि मेरे जेठ-जेठानी भी आ रहें हैं. आपके हाथों के अनरसे उन्हें बहुत पसंद आए थे, अब जब वो वापस जाएंगे, आप दीपावली बाद एक किलो के अनरसे फिर बना देना, साथ देना है,” रीता ने अपना आर्डर मौसी के साथ रहनेवाली लड़की पायल की कॉपी में लिखवा दिया.

“अरे, बैठ तो सही! आज शक्करपारे बनाए हैं खाकर स्वाद तो बताती जा,” कहते हुए मौसी ने प्लेट में कुछ शक्करपारे डालकर रीता को दि

रीता ने दो टुकड़े मुंह में डाले और कुछ पर्स में भर लिए,”मौसी, बेहतरीन बने हैं. अब बाकी घर जाकर चाय के साथ खाऊंगी.” कहते हुए अपनी स्कूटी स्टार्ट कर के निकल गई.

उसे जाते हुए देखती लीला मुस्कुरा दी.

“आप भी ना मौसी, सबको बांटती रहती हो! अभी प्लेटभर शक्करपारे ही दे दिए, इसके पहले जो आई थी उसे चिवड़ा खिलाया. ऐसे बिज़नेस करोगी आप?” इक्कीस-बाइस साल की पायल ने ग़ुस्से से कहा.

“अरी छोकरी! कितना हिसाब-किताब करती है! खिलाने से तो अन्नपूर्णा का भंडार भरा रहता है,” पायल की पीठ पर स्नेह से धौल जमाती हुई लीला मौसी ने फिर गैस की आंच तेज़ कर दी.
“हां-हां मुझे क्या सबको खिलाओ. मैं तो ठहरी आपकी मुंहबोली बेटी ही ना,” पायल ने मुंह टेढ़ा करके बोल तो दिया परंतु मौसी के चेहरे की ओर देखने की हिम्मत ना जुटा पाई.

चकली का अनाज भूनने के बाद मौसी ऑर्डर के रवे के लड्डू बनानेवाली थी इसलिए पायल‌ ने थैली में से रवा निकाला और छलनी से छानने लगी. रवे के महीन दाने छलनी से झाग भरे निर्झर की तरह झर रहे थे. अपनी एक हथेली उसके नीचे रखकर, उसकी नर्म मुलायम छुअन का एहसास कर रही थी पायल. ऐसा ही स्पर्श, यही अहसास इस महिला के स्पर्श में है जो सामने खड़ी अनाज भून रही है. स्नेह और अपनेपन का सतत् प्रवाह करते, जो कभी नहीं थकती. मन और वाणी दोनों से, पायल को हर समय आधार देती लीला मौसी ने जीवन के मायने ही बदल दिए हैं.

रवे की नर्मी से पायल के हृदय की स्पंदन को सुकून मिलने लगा. लीला मौसी को बचपन से देख रही है पायल, महिला आश्रम में रहतीं थीं वो. महिला आश्रम के बाजू में ही अनाथ बालिकाओं का आश्रम था. दोनों के ही बीच बड़ा प्रांगण था जो इन त्याज्य और परित्यक्ताओं को अनाथ बच्चियों से जोड़ता था.

चार-पांच साल की रही होगी पायल, जब लीला मौसी को पहली बार देखा था उसने. आपस में झगड़ती हुई लड़कियों के बीच पायल गिर पड़ी और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी थी.

“क्यों मार-पीट कर रही हो तुम सब? छोटी बच्ची गिर पड़ी और तुम्हारा झगड़ना ख़त्म नहीं हो रहा है,” सब लड़कियों को डांटकर लीला मौसी ने पायल को चुप कराया. अपने पास से संतरे की खट्टी-मीठी गोली भी दी. आज भी पायल को याद है कि उसने उस दिन सुबकते हुए लीला मौसी को “मां” कहा था.

“मां” की ध्वनि ने मौसी के सूखे जीवन में जैसे मातृत्व और वात्सल्य का सिंचन कर दिया. पायल को छाती से लगाए वह कितनी देर सहलाती रही थी. अब तो पायल की कंघी-चोटी, रखरखाव और उसके स्कूल का गृहकार्य, सब लीला मौसी ही देखतीं.
महिलाओं के साथ मिलकर रसोई में मौसी खाना बनातीं और वही खाना बालिका आश्रम में भी परोसा जाता. ज्यों-ज्यों पायल बड़ी होती गई, मौसी के बारे में सबकुछ जानने लगी.

जानकी मैडम, जो इंचार्ज थीं इन आश्रमों की, ने सबके बहुत पूछने पर लीला मौसी के बारे में जानकारी दी थी. उनकी बातें सुनकर सब सन्न रह गए थे और पायल तो सचमुच रो पड़ी थी.
जानकी मैडम के अनुसार, लीला ने मात्र सोलह साल की उम्र में अपने पिता का घर छोड़ दिया था. गांव की पैदाइश, खेत खलिहानों में घूमकर पली-बढ़ी सुंदर लड़की को जब शहर से आए सुखी बाबू ने देखा और लीला की सौतेली मां से बात की. कुछ सौ रुपयों के बदले सोलह साल की कक्षा पांच तक पढ़ी लीला चालीस पार के सुखी बाबू के साथ भेज दी गई. लीला की सौतेली मां के तेज़ स्वभाव से पूरा गांव परिचित था. पिताजी लीला की सगी मां के मरने के बाद, इस सौतेली मां को बड़ी धूमधाम से घर ले आए. मां के जाने के बाद से दुखी लीला, नई मां के सीने से चिपक जाना चाहती थी, लेकिन ऐसा कभी हो ना सका. उसे तो गालियों और मार के सिवा कभी कुछ नहीं मिला. बेटी की दशा देखकर बाप का मन छटपटाने लगा और अपराध भावना से ग्रस्त लीला के बापू ने पेड़ पर लटककर जान दे दी थी. लीला, इतनी कम उम्र में दुनिया के सारे दुख भोगने के लिए मजबूर थी

सुखी बाबू ने लीला की सौतेली मां से बात तय कर ली और रात ही रात वह उनके साथ एक बड़े शहर में आ गई.

“इस आदमी ने तो मुझसे ब्याह भी नहीं किया, नई मां ने क्यों मुझे इसके साथ भेज दिया?” बड़े शहर के, बड़ी सी इमारत के एक फ़्लैट में उसे सुखी बाबू ने रख दिया. बस्सस… इस फ़्लैट के अंदर मानो नज़रबंद थी वो.‌ खिड़कियों में भी मोटे-मोटे परदे लगे थे, जिनको कभी-कभार ही सरका कर बाहर देखती थी लीला. सप्ताह में दो-तीन बार अपना ज़ायका बदलने के लिए सुखी बाबू आ जाते और हर बार इत्र-परफ्यूम की नई शीशी उसे थमा देते और सुबह जब ख़ुशबू उतरने लगती तब गुर्रा कर कहते,”कपड़े धो डालना, कहीं बाहर जाना नहीं, किसी को बताना नहीं.” खाने-पीने का राशन सामान, ज़रूरत की अन्य चीज़ें बाज़ार से कार में लाते और रखवा जाते.

धीरे-धीरे दो साल बीत गए और अठारह साल की लीला ने कुछ-कुछ दुनियादारी, इन चारदीवारों से सीख ली. सुखी बाबू के पर्स में रखी फ़ोटो से उसे पता चला था कि उनकी लीला के हमउम्र दो बेटियां थीं. कार के ड्राइवर से भी थोड़ी बहुत जान पहचान हो गई थी, पर वो अपने मालिक का वफ़ादार था, जो सिर्फ़ सामान रखकर निकल जाता या इसके लिए उसे मुंहमांगी रकम दी जाती थी. अठारह साल की जवान लड़की लीला, अब कुछ-कुछ समझ गई थी और कभी-कभार फ़्लैट की बालकनी में खड़ी होकर, इमारत से बाहर आते-जाते हुए लोगों को देखती.

लीला ने पांच साल, दबी सिसकियों के साए में गुज़ार दिए. इस बीच वह दो-चार बार अपनी इमारत से बाहर भी गई. दुनिया की भीड़-भाड़ में सिर-मुंह ढंकी लड़की को कौन पहचानता?
कहते हैं ना कि घूरे के दिन भी फिरते हैं! बस, ईश्वर ने लीला की प्रार्थना सुन ली और उसे इस जाल से आज़ाद होने का अवसर मिला.

इधर कुछ दिनों से सुखी बाबू ख़ुद भी नहीं आए, ना ही ड्राइवर से सामान, समाचार भेजा. सामने के फ़्लैट के बाहर समाचार पत्र पड़ा रहता था. वो लोग सुबह नौ-दस के पहले दरवाज़ा नहीं खोलते थे. एक दिन हिम्मत करके लीला ने सामने का हिंदी समाचार पत्र उठा लिया और घर लाकर पढ़ने की कोशिश करने लगी.

सामान जिन कागजों में पुड़िया बांधकर उसे दिया जाता था, लीला ख़ाली समय में सब जमा करके, धीरे-धीरे एक-एक पंक्तियां पढ़ा करती थी. इन पांच सालों में, उसने अख़बार पढ़ना सीख लिया था.

समाचार पत्र के एक पन्ने पर सुखी बाबू के ड्राइवर की फ़ोटो छपी थी. पढ़कर लीला ने अंदाज़ा लगा लिया कि जिस आदमी ने उसका जीवन बर्बाद करके, पंछी की तरह इस फ़्लैट में सालों से बंद कर रखा, आज उसके अपने घर में सेंध लग चुकी थी.

अब लीला ने हिम्मत दिखाई, अपने आसपास की टोह ली. सुबह का आलस इमारत में पसरा था. लीला ने अपना सामान बांध लिया, उसने कुछ पैसे ऐसे ही समय के लिए सुखी की जेब से निकाल रखे थे. कभी-कभी वह ख़ुद भी नोट थमा जाता था, क्या करती नोटों का? सिर्फ़ एक डिब्बे में वैसे ही बंद थे, जैसे वह ख़ुद सुखी बाबू की क़ैद में.

दरवाज़ा टिकाकर, बड़े आत्मविश्वास से निकल पड़ी थी लीला. हिम्मत वालों का साथ ईश्वर हमेशा दिया करतें हैं, इसी आशा से एक अनिश्चित, अनजानी सड़क से निकल पड़ी.

रिक्शा पर बैठ रेलवे स्टेशन आ गई और सामने खड़ी ट्रेन में चढ़ गई. बिना टिकट, बिना लक्ष्य की यात्रा. क़रीब तीन घंटे के बाद, जहां कई लोग उतर रहे थे, वह भी उतर गई.

स्टेशन से बाहर देखा कि शहर थोड़ा छोटा और शांत है. सामने की दुकान पर से कुछ खाने का लेकर वहीं सोचने लगी कि अब कहां जाए.

सड़क पर बहुत-सी औरतें सफ़ाई कर रहीं थीं. सबने एक जैसी साड़ी पहन रखी थी. उनकी मुखिया महिला उन्हें काम बता रही थी.

“आप लोग कौन हैं?” लीला ने उनसे पूछा.
“हम महिलाओं के आश्रम में रहते हैं. आज रेलवे स्टेशन और सड़कों की सफ़ाई का काम सेवा के उद्देश्य से कर रहे हैं. तुम कौन हो?” एक औरत ने पूछा.
“मैं लीला हूं, मेरा इस दुनिया में कोई नहीं. क्या मुझे आपके आश्रम में जगह मिलेगी?” इक्कीस -बाइस साल की जवान लड़की लीला ने सलीके से पूछा था.
कुछ औपचारिक पूछताछ और लीला की तलाशी के बाद मुखिया महिला ने लीला से आश्रम साथ चलने कहा. बस, उस दिन से आश्रम को अपना घर और आश्रम की महिलाओं को परिवार समझकर रहने लगी लीला.

सौतेली मां के प्रकोप से खाना अच्छा बनाती थी, जो उस फ़्लैट में भी उसने ख़ूब सीखा. अब आश्रम में अनुभवी औरतों की सीख और मार्गदर्शन से दो-चार साल में लीला बहुत सुघड़ रसोइया बन गई.

“अरी पायल! आधे घंटे से रवा लेकर खेल कर रही है. आज लड्डू भी बनाना है बेटा! और हां, आज लड्डू की चाशनी पक्का सीखना है तुझे, आगे इस रसोई को तू ही चलाएगी ना. मेरा साथ कब तक है क्या पता?” लीला मौसी की आवाज़ से पायल अचकचा कर उठ खड़ी हुई.
“आपके साथ ही करूंगी काम, सारी ज़िंदगी. आप कहां जाओगी मुझे छोड़कर?” पायल ने अपनी आवाज़ में दुनियाभर का प्रेम भर दिया.
“मैं ना भी गई तो तू तो जाएगी ना शादी के बाद.” लीला मौसी ने कहा.
“हज़ार बार कहा कि शादी का नाम मत लो, नहीं करनी है शादी-वादी मुझे!” पैर पटकती पायल ने ज़ोर-से कहा, “बी.ए. पास कर लिया है न इस साल. नौकरी करूंगी, तुम्हारे साथ रहूंगी बस.”
“अरे उखड़ती क्यों है? अच्छा चल, शाम तक लड्डू के ऑर्डर पूरे करने हैं न,” कहकर लीला ने बात ख़त्म की.
लीला जानती थी कि इस बच्ची ने उसमें में अपनी मां ढूंढ़ है. आज से दस-बारह साल पहले जब आश्रम की हालत ख़राब हो गई, जानकी मैडम की मृत्यु के बाद जैसे आश्रम में उदासी पलने लगी. पचास पार की सभी महिलाएं ज़िंदगी की जद्दोजहद से थक चुकीं थीं और अब दान और काम दोनों कम हो गए थे.
“आप सभी अपने परिजनों, अपने किसी रिश्तेदार या पुराने गांव में जाने को स्वतंत्र हैं. आश्रम की हालत ठीक नहीं है और अब आगे इसे बंद करने का निर्णय लिया है.”
एक दिन इस सूचना के साथ इस पड़ाव पर सभी औरतों को अपने अपने जीवन का फ़ैसला लेना था.

प्रौढ़ लीला ने समझ लिया कि अब दाना-पानी उठ गया है और जीवन उससे कुछ और चाहता है. वहां से निकलती लीला के साथ ग्यारह साल की पायल भी आ गई. उसने मां की हैसियत से सारी सरकारी कार्रवाई पूरी की और अपने बचत किए पैसों के साथ एक अनजाने से इस शहर में आ गई. लीला को ख़ुद पर भरोसा था और अब वो अकेली भी नहीं थी.

ज़िंदगी की नई शुरुआत हुई और एक ढाबे पर खाना बनानेवाले की सहयोगी बनकर लीला ने काम शुरू किया. वहीं पास एक खोली मिली, जिसमें रहते हुए पायल की पढ़ाई सरकारी स्कूल में नियमित रूप से चलने लगी.

हाथ का स्वाद और हुनर रंग लाया, लीला के खाने की तारीफ़ होने लगी और फिर वह अपनी खोली में रात को ढाबा बंद होने के बाद जागकर, लोगों की फ़रमाइश की चीज़ें बनाने लगी.

पिछले पांच सालों से तो अपना घर, बड़ी रसोई और ज़रूरी सभी सुविधाएं हो गई थीं. अब लीला ने “घर का खाना” नाम से अपना काम शुरू कर दिया था और पूरे सालभर और ख़ासतौर पर त्यौहारों पर इतने ऑर्डर होते कि साथ में दो-तीन सहयोगी रखती थी.

“अब कल से आगे पंद्रह दिनों के लिए दो औरतों को काम पर रखना पड़ेगा” यह सोचती लीला ने लड्डुओं की तैयारी शुरू कर दी.

दीपावली के पकवान बनाते हुए लीला यह भी भूल गई कि कल धनतेरस है. उसका अपना घर वैसा ही पड़ा है ना साफ़-सफ़ाई ना लिपाई-पुताई.

“ये सबके घरों की दिवाली का सवाल है, मेरे घर का काम बाद में होता रहेगा.”
थकी लीला को चारपाई पर लेटते ही नींद आ गई.

सुबह देर तक सोती रही फिर घड़ी में आठ बजे देख हड़बड़ा कर उठ बैठी.
“पायल, मुझे उठाया क्यों नहीं? इतनी देर से काम शुरू करूंगी तो आज के ऑर्डर का क्या होगा? हे भगवान! गुझियों का बड़ा काम है आज, साथ देना प्रभु!” सुबह भगवान को याद करती हुई लीला आंगन में आई.

आश्चर्य से अपने घर के आंगन और दरवाज़े को देखती रह गई.
सुंदर झालरदार मोतियों का तोरण, बड़ी सुंदर मोर वाली रंगीन रंगोली और प्रकाश कंदील, मिट्टी के दीपकों से सजा सुंदर आंगन.

“हे भगवान! ये मैं कहां आ गई?” कहती हुई लीला ने घूमकर चारों ओर नज़र डाली.
“लीला मौसी, आपको दीपावली की बहुत सारी शुभकामनाएं,” कहते हुए उसकी हमेशा की ग्राहक रीता, सुलभा, मीनू, दीप्ति, वंदना और पायल ने मुस्कुराते हुए उसको गले लगा लिया.
“ये सब तुम लोगों ने किया बेटियों! बहुत सुंदर, बहुत ही बढ़िया, लेकिन तुमने कब किया?” आश्चर्य से भरी लीला मौसी को देख, सब लड़कियों ने एक साथ कहा, “मौसी, जब हम सबके घरों की ज़रूरत के लिए आप दिन-रात काम कर सकती हो तो एक रात हम भी जाग गए.”

“मौसी, वंदना ने रांगोली बनाई, दीप्ति ने तो परसों से ही तोरण बनाना शुरू कर दिया था, मैंने ना हाथ से बना रंग-बिरंगा कंदील बनाया… और हम सबने आज आपके लिए दीपावली विशेष नाश्ता भी बनाया है-पाव भाजी. अब आप हाथ-मुंह धोकर फटाफट खाओ भी और हमारे नाश्ते को अच्छा कहकर इसकी ख़ूब-ख़ूब तारीफ़ भी करना मौसी…” रीता ना जाने और क्या-क्या कहती गई परंतु लीला के कान आगे कुछ सुन ही नहीं पा रहे थे. जिंदगीभर लीला मां के प्रेम के लिए तरसती रही और आज भगवान ने उसे इतनी बेटियों की मां बना दिया.
लीला के हृदय में अनंत दीपक एक साथ झिलमिलाने लगे थे.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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