सवाल सीधा है कि क्या ईद पर आपको भी हामिद की याद आ जाती है? यदि आपका जवाब ‘हां’ है तो यह तय रहा कि आप संवदेनशील हैं. लेकिन अनूप मणि त्रिपाठी का हामिद के प्रति यह नज़रिया आपको यह बताएगा कि आख़िर क्यों आपको ईद पर हामिद की याद आती है? क्यों आनी चाहिए? और ऐसा क्या होना चाहिए कि हामिद की याद आए तो उसके साथ ही साथ आपके चेहरे पर एक भली मुस्कान भी आए कि हां, अब सब ठीक है!
जब भी ईद आती है तो जाने क्यों हामिद की याद आ जाती है!
हामिद, वह मासूम बालक. दादी का चहेता. अभावों से घिरा. पर साहस और संवेदना से पगा. त्यागी. विवेकी. ईद की सेवइयों में मिठास बहुत है, पर यह मिठास हामिद जैसों के जीवन में रस घोलती है क्या? हामिद की दादी की उंगलियां क्या आज भी जलती नहीं हैं? रोज़े बड़े-बूढ़ों के लिए हैं, मगर बच्चों के लिए ईद होती है. सिर्फ़ ईद.
जब भी ईद आती है तो जाने क्यों हामिद की याद आ जाती है!
हामिद क्या केवल किसी कहानी का पात्र है या हमारे जीवन में वह अकसर दिखता है? हम ज़रा अपने आसपास देखने की ज़हमत उठाएं और देखें कहीं ‘छोटू’ नाम से अपना ईदगाह वाला वो हामिद तो नहीं!
अमीनाबाद की किसी मिठाई की दुकान में अपनी बूढ़ी अमीना ‘दादी जिसकी उंगलियां रोटी सेंकते वक्त जल जाती हैं, के लिए बूढ़े हामिद का पार्ट खेल रहा हो! यह कहते हुए, ‘खाएं मिठाइयां, आप मुंह सड़ेगा, फोड़े-फुंसियां निकलेंगी, आप ही ज़बान चटोरी हो जाएगी. तब घर से पैसे चुराएंगे और मार खाएंगे. किताब में झूठी बाते थोड़े ही लिखी हैं.’
हो सकता है कि हामिद छोटू बन कर किसी खिलौने की दुकान में बूढ़े का पार्ट अदा कर रहा हो! ‘ ‘ मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएं.’ हामिद के पास बस तीन पैसे हैं. वह उससे शौक़-आराम की चीज़ नहीं ले सकता. वह इन पैसों से केवल और केवल काम की ही चीज़ ले सकता है. क्योंकि ‘घर में एक काम चीज हो जाएगी.’
लेकिन आशंका ये है कि ये खेला उसका प्रारब्ध न हो!
काश! लेखक कोई ऐसी कहानी लिखता जो पूर्ण काल्पनिक होती या उसकी कहानी फ़क़त कहानी ही होती, जो हमारे जीवन का हिस्सा न होती! मुंशी जी कहते भी हैं कि कहानी को जीवन का यथार्थ चित्र समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. कहानी कहानी है, यथार्थ नहीं हो सकती. अब इसमें लेखक का क्या दोष! उसने अपने समय को पकड़ क़िस्से में उतार दिया और क्या हो यदि वह समय अब भी धड़क रहा हो! इसके लिए लेखक की तारीफ़ करनी चाहिए या अपने वर्तमान समय को कोसा जाना चाहिए?
जब भी ईद आती है तो जाने क्यों हामिद की याद आ जाती है!
रौनकें हैं. मेले आज भी लगते हैं. आज भी आमजन ‘अपनी विपन्नता से बेख़बर, संतोष और धैर्य में मगन’ ख़ुशी ढूंढ़ने जाते हैं तो संपन्न तबका ख़रीदारी करने. आज़ादी से पहले ‘चौधरी साहब ‘ ने जिन्नात को क़ाबू में कर रखा था, अब ‘तंत्र’ को. ये बिला वजह नहीं है कि जब ईद आती है तो अमीना का दिल कचोटता है. चांद तो दिख जाता है, पर घर में अन्न का दाना नहीं. ऐसे में ‘किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को?’ यह बिला वजह नहीं है कि दुकान पर सजी मनों मिठाइयां हामिद जैसों के हिस्से नहीं आतीं, उन्हें जिन्नात आ कर ख़रीद लेते हैं.
जब भी ईद आती है तो जाने क्यों हामिद की याद आ जाती है!
हामिद जिसके पांव में जूते नहीं, मगर ज़रूरत पर पर लग जाते हैं. हामिद ‘जिसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा.’
तीस रोज़ों के बाद ईद आ जाती है, मगर फाके सालभर डेरा जमाए रहते हैं. ऐसे में भी हामिद उस जिजीविषा का नाम है, जिससे बड़े से बड़े फन्ने खां लोहा नहीं ले सकते. क्योंकि हामिद जैसे तो रोज़ अपने जीवन से लोहा लेते हैं. मोहसिन का मामा जो पुलिस में है, उन जैसों का जीवन ‘हम तो इतना लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए.’ इसी में गुज़र जाता है. वे क्या लोहा लेंगे? तब हराम के माल के लिए अल्लाह सज़ा देता तो घर मे आग लग जाती थी, जैसे मोहसिन के मामा के साथ हुआ . अब ऐसे लोगों की सज़ा का तो पता नहीं, हां मगर सरकारी फ़ाइलों में आग ज़रूर लग जाती है!
जब भी ईद आती है तो जाने क्यों हामिद की याद आ जाती है!
आज भी हामिद मोटर के नीचे आते-आते बचा. नगर की सभी चीज़ें आज भी अनोखी हैं उसके लिए. जिस चीज़ को ताकता है, ताकता ही रह जाता है. स्मार्ट सिटी के स्मार्ट शहरी ऐसे लोगों को गंवार कहते हैं. क्योंकि हामिद जैसे ताकते रहते हैं, उनमें ख़रीदने की ताक़त नहीं. और यह ख़रीदने की ताक़त कहां से लाएं! इन्हें तो चौधरी साहब, मोहसिन के मामू की तरह बिकना आता नहीं! मगर हामिद आज भी इतना भोला है, ‘कोई मुझे यह मंतर बता दे एक जिन्न को ख़ुश कर लूं.’ उसे कल जितना विश्वास था उतना आज भी है कि बड़ों की दुआएं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुंचती हैं और तुरंत सुनी जाती हैं.
जब भी ईद आती है तो जाने क्यों हामिद की याद आ जाती है!
इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं. सरकार की नज़रों में भी सब बराबर हैं. मगर ‘हामिद बिरादरी से पृथक है. अभागे के पास तीन पैसे हैं.’ जबकि मोहसिन के पास पन्द्रह पैसे और महमूद के पास बारह. हामिद अगर अपनी दादी के बटुए में सहेजे पांच पैसे भी जोड़ ले तो भी कोई बराबरी नहीं. मगर इसके बावजूद सबसे ज़्यादा हामिद ही प्रसन्न है. क्योंकि वह बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है. वह अपने लिए ऐशोआराम की चीज़ें भले न ख़रीद पाए, मगर वह ‘तीन पैसे में रंग जमाना जानता है. हामिद की बात बेतुकी-सी होने पर भी कुछ नयापन रखती है. हामिद को अपने से हारने वालों के आंसू पोछना आता है. हामिद जीना जानता है. उसके (मरहूम) अब्बाजान-अम्मां जब कभी आएंगे और वो साधन संपन्न हो जाएगा तब ‘एक-एक को टोकरियां भर खिलौने दूं और दिखा दूं कि दोस्तों के साथ इस तरह सलूक किया जाता है.’ हामिद अपनी हसरतों को तो मारना जानता है, मगर दूसरों के हक़ को नहीं.
जब भी ईद आती है तो जाने क्यों हामिद की याद आ जाती है!
योजनाओं की रौनकों के बीच, सभ्यताओं के शीर्ष पर, आधुनिकता के हिंडोले पर, आज भी हामिद का चिमटा नहीं हामिद का मुंह रोज़ आग में जलता है. जबकि उसके पास न्याय का बल और नीति की शक्ति है, मगर इसके लिए हामिद को किसी से सहानुभूति या कोई खैरात नहीं चाहिए. वह तो रुस्तमे हिन्द है. वह कलेजा मज़बूत कर सकता है. वह आंधियों से लड़ सकता है. आग में कूद सकता है. जहां नफ़रत की आग पर अपनी रोटियां सेंकने का चलन हो, वहां पर वह इतना ही चाहता है कि तवे पर रोटियां सेंकते वक़्त उसकी बूढ़ी दादी के हाथ न जले! और उसकी दादी की तरह किसी को भी ईद के लिए, ख़ुशियों के लिए ‘अठन्नी को ईमान की तरह’ बचाने की जुगत न करनी पड़े!’
बस्स!
फ़ोटो: http://blog.woodpie.com/, Doodle by shubha