मेरी सलाह मानिए तो मिट्टी में खेलिए और गोबर से कंडे उपले भी बनाकर देखिए. ऐसा करके आप अनजाने में ही शरीर को कुछ ख़ास गिफ़्ट कर रहे होंगे. सेहत बनाने के चक्कर में हम इतने प्रोटेक्टिव बन गए हैं, इतने ज़्यादा सचेत हो गए हैं कि मिट्टी से होनेवाले फ़ायदों से दूर होते जा रहे हैं. यहां इस बात के साइंटिफ़क कारण भी जानिए कि मैं आपको मिट्टी में खेलने की सलाह क्यों दे रहा हूं.
शहरों की भीड़-भाड़ भरी ज़िंदगी और बाज़ार के मायाजाल ने हमें ख़ुद की सेहत के लिए इतना ज़्यादा प्रोटेक्टिव बना दिया है कि हम कुछ ज़्यादा ही सचेत हो चले हैं. एक फुकटिया दहशत में जीने लगे हैं. प्रकृति, मिट्टी-धूल, हवा और पानी से दूर होते जा रहे हैं. बाज़ार ने इनको हमारी सेहत का घोर दुश्मन जो बना दिया है! टीवी पर विज्ञापनों को देखकर मैं तो डर ही जाता हूं. एक विज्ञापन तो कहता है कि बच्चे बाहर मैदान में खेलते हैं और जर्म्स घर लेकर आते हैं? सही में? और फिर ये विज्ञापन उस केमिकल वाले हैंडवाश से हाथ धोकर 99.9% जर्म्स को मार गिराने की बात करते हैं. वाह रे ढक्कन! कितना ख़ौफ़ पैदा कर दिया है बाज़ार ने. उफ़्फ़! पर इसकी वजह आप ख़ुद हैं, क्योंकि आप डरपोक बन चुके हैं.
मिट्टी से क्यूं बढ़ीं ये दूरियां
पहले घरों के आंगन में लोग बागवानी करते थे लेकिन अब शहरों की ऊंची-ऊंची इमारतों के दफ़्तरों और घरों में लोग आर्टिफ़िशल पेड़-पौधे लगाकर मन को बहला लेते हैं, प्लास्टिक वाली दीवारों पर बेल बूटों के स्टीकर्स, प्लास्टिक तितलियां… लेकिन खुले मैदान से ख़ौफ़. जे तो गज्जब कर दओ! बच्चे धूल से सन जाएं तो मां-बाप ये समझ बैठते हैं कि बच्चा बीमारियों को उठाकर घर तक ले आया है, आख़िर इतना ख़ौफ़ किस बात का? बात-बात में बच्चों के हाथ में टिशु पेपर थमाने वाले मां-बाप क्या वाक़ई बच्चों को बीमारी से बचा पा रहे हैं? या उनका बच्चा दिन प्रतिदिन पहले की तुलना में ज़्यादा कमज़ोर हो रहा है? क्या हम बच्चों, जवानों और बुज़ुर्गों में जीवन-स्पर्धा के चलते दिन-ब-दिन पनप रहे तनाव को दूर कर पाने में सफल हैं या प्रोजेक जैसी दवाओं के भरोसे तनाव से निपटारे की ओर अग्रसर हैं? समस्याओं की जड़ों तक जाएं तो पता चलेगा कि आर्टिफ़िशल लाइफ़ के चलते हम पहले से ज़्यादा विकृत और कमज़ोर हो चले हैं. ज़रा-सी सर्दी-खांसी हमें फ़ार्मेसी या डॉक्टर के तरफ़ दौड़ने पर मजबूर करने लगी है, क्यों? ये वो दौर है जब डिप्रेशन, मानसिक दबाव, तनाव और थकान घर घर में किसी ना किसी सदस्य को घेरे हुए हैं. तो अब क्या करें? करें तो करें क्या, बोलें तो बोलें क्या?
मिट्टी इन बातों का जवाब है!
कुछ ना करें, रोज़ सुबह-शाम खुले आसमान के नीचे घूमे फिरें, धूल-मिट्टी के क़रीब जाएं और हो सके तो बागवानी करें, गमलों से मिट्टी की अदला-बदली करें… प्लास्टिक की दस्ताने पहनकर नहीं, खुले हाथों से! जो लोग गांव-क़स्बों के क़रीब रहते हैं वो लोग खेत-खलिहान जाएं, मिट्टी में ख़ूब खेलें, घूमे फिरें, क्योंकि मिट्टी में होता है एक खास बैक्टिरिया-मायकोबैक्टेरियम वैकी (Mycobacterium vaccae). ये एक ऐसा सूक्ष्मजीव है, जो हमारे ब्रेन के न्यूरॉन्स की क्रियाविधि को तेज़ करता है और सेरोटोनिन के उत्पादन को भी बढ़ाता है, जिसकी वजह से मानसिक तनाव काफ़ी कम होता है. बेहतर सेहत के लिए मिट्टी कनेक्शन की बात आपसे आपके बुज़ुर्गों ने कई बार करी होगी. फिर भी हम सभी मिट्टी और धूल से बिकट ख़ौफ़ खाए रहते हैं, क्यों?
मिट्टी घावों को भरने में सहायक है
मुझे अभी भी याद है, बचपन में हमें जब चोट लग जाया करती थी तो पिताजी कहते थे कि ख़ून बहते घाव पर अपनी पेशाब लगा दो और बाद में उस पर मिट्टी चिपका दो. अजीब लग रहा होगा आपको, है ना? पर यक़ीन मानिये, हमें कभी दोबारा किसी क्रीम, टेबलेट या डॉक्टर की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. बड़े हुए, पढ़े-लिखे और फिर माइक्रोबायोलॉजी की पढ़ाई की तो एक नई बात पता चली-एक्टिनोमायसिटीज़ के बारे में. एक्टिनोमायसिटीज़ भी मिट्टी में पाए जाने वाले कमाल के बैक्टिरिया हैं, प्राकृतिक तौर पर मिलनेवाले ख़ास एन्टीबायोटिक्स भी हैं.
तो अब ऊपर बताए इलाज का एक्स्प्लेनेशन ये है कि जिस मिट्टी को हम घाव पर लगाया करते थे वो एंटीबायोटिक का काम करती थी और हमारी पेशाब एक टिंक्चर की तरह. वो था हमारे देश का ज्ञान! मिट्टी में कितना कुछ छुपा हुआ है और हम हैं कि धूल-मिट्टी के नाम से नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं.
तो आपको पहली बारिश में मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू पसंद है?
कमबख़्तों, बारिश की पहली फुहार जो मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू लाती है, वो क्या है? वही है एक्टिनोमायसिटीज़. पानी की बूदें जब मिट्टी से टकरातीं हैं तो इस सूक्ष्मजीव के अंग मिट्टी से बिखरकर हवा में उड़ने लगते हैं. जब आप इन्हें सूंघते हैं, तो ये आपके शरीर में सीधे भीतर तक जाते हैं. ये सारी व्यवस्था आपकी सेहत बेहतरी के लिए प्रकृति ने कर रखी है. बारिश की पहली फुहार के बाद कई माइक्रोब्स पनपते हैं, जो आपकी सेहत बिगाड़ सकते हैं. प्रकृति यही फ़िक्र करती है आपकी और भेज देती है एक्टिनोमायसिटीज़, जो हैं कमाल के एंटीबॉयोटिक्स. अब कुछ गणित समझ आया?
साइंस भी तो यही कहता है…
तो चलिए, अब बात करते हैं मायकोबैक्टेरियम वैकी की. पता है इस बैक्टिरिया पर कई तरह की शोध पहले भी की जा चुकी है और कई तरह की शोध अभी भी जारी है. सुना है ये वो बैक्टेरिया है जो टीबी के बैक्टिरिया की भी ऐसी की तैसी कर देता है. टीबी को ठीक करने के लिए दवाओं की खोज करने वाले खोजी लोग मायकोबैक्टेरियम वैकी से भी इसके इलाज की संभावनाएं खोज रहे हैं. ख़ैर… दीपकआचार्य ये बात फिर दोहराना चाहेगा कि मिट्टी, गोबर और खेत-खलिहानों से जितना लगाव रहेगा, जितने इसके क़रीब जाएंगे तनाव, घबराहट और मानसिक रूप से होने वाली किसी भी कमज़ोरी में आपको बेहतर परिणाम ज़रूर दिखेंगे. आप ज़्यादा स्वस्थ हो जाएंगे. एक और हिंट देता चलूं? मायकोबैक्टेरियम वैकी की सबसे पहली खोज गोबर में की गई थी.
बाज़ार को समझिए, सेहत को सुधारिए
अब तक आप धूल-मिट्टी में सने नहीं हैं, गोबर के क़रीब नहीं गए हैं तो आपके लिए ही तो महंगे मल्टीविटामिन कैप्सूल बाज़ार में बिक रहे हैं. उन्हें ख़रीदिए और बनिए खोखले शरीर के मालिक. झूठ और बड़े बड़े क्लेम्स करने वाले महंगे प्रोडक्ट्स से बचना हो तो मिट्टी से मोहब्बत कर लो… डरो मत. प्रकृति के क़रीब जाएं, खेलें इसके साथ प्यार से. लुटा दें अपनी मोहब्बत इस पर. साधारण सर्दी-खांसी, छींक, मोच, दर्द और थकान से टेंशन नहीं लेने का. इन्फ़्लेमेशन है ये, 3-4 दिन में ख़ुद शांत हो जाएगा, आराम दीजिए बॉडी को. बात-बात में टिशू मत निकालो, ये OCD है. बाहर से आने के बाद और खाना खाने से पहले साफ़ पानी और साबुन से हाथ धो लें, वही काफ़ी है. यदि आप बहुत ज़्यादा फ़िक्र करते हैं जर्म्स को लेकर तो नीम की पत्तियों को हथेली में मसल लें, काम हो जाएगा!
एक बात समझ लें.. बाज़ार आपको डराएगा, आप डरना शुरू करेंगे तो बटुआ और सेहत, दोनों हलक में अटक जाएंगे. थोड़ा-थोड़ा बदलना तो शुरू कीजिए ना! डरिए मत मिट्टी से, गांव-देहात से, डरना है तो बाज़ार से डरिए. हमारी मानिए मिट्टी में खेलिए, कंडे उपले भी बनाकर देखिए… क्या पता आप अनजाने में शरीर को कुछ ख़ास गिफ़्ट कर रहे हों.
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फ़ोटो: गूगल