राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में आपने कई जाने-माने विद्वानों के लेख पढ़ होंगे. कोई उनकी तारीफ़ में पन्ने भर रहा होता है तो उतने ही लोग बुराई करते हुए काग़ज़ काले करते मिलते हैं. गांधी जयंती पर इस बार हम एक युवा पाठक के मन की बात प्रस्तुत कर रहे हैं. सीरोर, बरखेड़ा-हसन के चित्रांश सक्सेना उन सवालों, भावनाओं से हमें अवगत करा रहे हैं, जो युवाओं के मन में गांधी जी की तस्वीर खींचते हैं.
महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर उन्हें कोटिशः नमन करते हुए मन में चल रहे विचारों को आपसे साझा कर रहा हूं. यूं तो पूरा विश्व गांधी जी को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष तौर पर नमन करता है, लेकिन फिर भी युवाओं को गांधी जी के विषय में जितनी जानकारी होना चाहिए, जिस तरह से होना चहिए उसमें ख़ासी कमी नज़र आती है. वस्तुतः देखा जाए तो राजनैतिक एजेंडों ने जिस तरह से महात्मा की उपमा प्राप्त किए व्यक्ति को छोटा कर दिया है, वह दुखद है.
आज युवाओं के मन में अक्सर विचार बनते देखा है कि सरदार भगत सिंह, आज़ाद या बोस, सावरकर आदि महात्मा गांधी जी से बड़े थे. वस्तुतः यह तुलना ही ग़लत है, ये सभी राष्ट्र के नव निर्माण में अपनी अपनी रुचि और विवेक से कार्य कर रहे थे. यहां तक कि यदि आप थोड़ा भी मनन करेंगे तो आप पाएंगे कि इनके आपस में मतभेद रहे हों, लेकिन मनभेद या एक-दूसरे के प्रति अपमान की भावना नहीं रही. फिर हम इन्हें आपस में लड़ा के किसी तीसरे का उल्लू क्यों सीधा करें.
शिकायतें तो रहेंगी ही…
महापुरुषों या उन लोगों की ज़िम्मेदारी अधिकता में होती है, जिन्हें देख आम जन मानस अपनी मनः स्थिति निर्मित करता है. चूंकि आप इतने बड़े जनमानस के उत्तरदायी है तो आपसे प्रश्न होना लाज़मी है. लेकिन आप की करनी पर क्रोधित हो सिरे से आपको नकार देना ये तो बेवकूफी की संज्ञा ही है.
महात्मा गांधी जी के संदर्भ में भी कुछ ऐसा ही है, आधे-अधूरे सच के साथ प्रस्तुतिकरण वास्तव में किसी भी अच्छे भले आदमी की नियति बिगाड़ दें. ये बात ज्यों की त्यों स्वतंत्र्य वीर सावरकर के साथ भी लागू होती है.
खैर… रघुपति राघव राजा राम जैसे भजनों के द्वारा उस समय घर से महिलाओं को निकाल कर यह समझा देना की देवी जी आप ग़ुलाम हैं, आपको आज़ादी की आवश्यकता है. उसके लिए संघर्ष करो, स्वच्छता को अपनाओ, आत्मनिर्भर बनो. उस दौर में महात्मा गांधी द्वारा किए गए आवाहनों ने न जाने कितने लोगों को जगाया होगा.
अहिंसा इतना बड़ा हथियार कैसे?
यह सोचने वाली बात है कि हमारी संस्कृति में तो हथियार रखने की परंपरा रही है. फिर शक्ति से क्यों नहीं भगा दिया इन आतताइयों को? सवाल यही बनता है, शक्ति पर निरंकुशता या शक्ति का असीमित प्रत्यक्षीकरण होना शक्ति को कमज़ोर और विध्वंसक बना देता है, जो कि हज़ारों वर्षों तक लोगों ने झेला है. यह निरंकुशता आपको तानाशाह बना सकती है, आपको जातियों में बांट सकती है. आपको अनचाहे युद्ध में झोंक सकती है. फिर बिन शक्ति कैसे किसी का सामना कैसे करें? यहीं सीख तो अहिंसा सिखाती है कि कितनी शक्ति किस दिशा में हमें लगानी है. यदि क्योंकि आपकी स्वयं पर विजय होगी, तब ही आप दूसरों पर सच्ची विजय पा सकते है. यदि आप स्वयं जागे होंगे तब ही तो आप दूसरों को जगा पाएंगे. जो व्यक्ति स्वयं सेना में जाने की तमन्ना लिए साउथ अफ्रीका में भरसक प्रयास कर चुका हो. वो व्यक्ति अहिंसा के मार्ग का इतना बड़ा अनुयायी बन जाए. और उससे प्रेरित हो लाखों लोग महिला-पुरुष, बच्चे बुजुर्ग दौड़े चले आएं, उसे कोई कैसे कमतर आंक सकता है.