राम का सम्पूर्ण जीवन अधर्म का नाश करने में सक्षम व्यक्तित्व के उत्तरोत्तर विकास की कथा है. इस कथा का हर मोड़ व्यक्तित्व के विकास का ज़रिया है. एक इनसान को युग प्रवर्तक बनने के लिए जिन संघर्षों से गुज़रना पड़ता है, उन सारे संघर्षों से राम गुज़रे, तपे, पके, तब इतने समर्थ हो सके कि रावण का वध कर सकें. आइए भावना प्रकाश के नज़रिए से देखें कि कैसे हम अपनी परवरिश और शिक्षा व्यवस्था में सुधार करके राम के उन आदर्शों पर चल सकते हैं.
शोर! हिंसा! विध्वंस! घृणा! क्रोध!
मन को, वातावरण को, समाज को, राष्ट्र को विषाक्त करने वाली इन दुर्भावनाओं के शमन के लिए समय-समय पर महात्माओं ने ईश्वर के जीवन-चरित्र को वर्णित करते साहित्य रचे. लेकिन अफ़सोस! हमने उन कथाओं में समाहित संदेशों को नहीं समझा. नहीं समझा कि चाहे हम रामचरितमानस को कालजयी साहित्य मानें या राम के जीवन को भगवान विष्णु की लिखी पटकथा; इनका उद्देश्य समाज को उसके चरम विकास तक ले जाना है. इसीलिए समय-समय पर बच्चों को इन कथाओं के उद्देश्य एवं प्रतीकार्थों समेत बच्चों को सुनाना और समझाना ज़रूरी हो जाता है.
यही वजह है कि मैं अपने विद्यार्थियों को रामायण की कथा सुना रही थी और बच्चे प्रश्न करते जा रहे थे. मैं उनके तर्कों से प्रभावित थी इसलिए मुस्कुराकर वैज्ञानिक ढंग से उनका शमन कर रही थी. मैं लेखक नरेंद्र कोहली की रामकाथा से बहुत प्रभावित हूं, तो उनका सहारा लेकर मैं कह देती थी कि हुआ ऐसा होगा, उसे लिखा इस तरह गया होगा. पर एक प्रश्न पर मुझसे चूक हो गई. मैं बनी-बनाई धारणाओं के अनुसार उत्तर दे गई.
सीताहरण के प्रसंग पर बच्चे पूछ बैठे थे,”सीता जी ने तो झाड़ू लगाते समय वो धनुष उठा लिया था जो रावण स्वयंवर में नहीं उठा पाया था. वो तो रावण से ज़्यादा ताक़तवर थीं फिर वो रावण से ख़ुद को छुड़ा क्यों नहीं पाईं?”
उनका प्रश्न सटीक था, लेकिन मेरा उत्तर उलझाने वाला- “बेटा! ये सारा घटनाक्रम विष्णु जी और लक्ष्मी जी ने पहले ही निर्धारित कर लिया था.”
तो इस कन्फ़्यूजिंग उत्तर पर जनरेशन नेक्स्ट का दूसरा प्रश्न तो बनता ही था-“वो सर्वशक्तिमान हैं तो इतनी स्क्रिप्ट क्यों लिखी? ऐसे ही क्यों नहीं मार दिया रावण को?” तब मैंने उन्हें उत्तर देने के लिए पाठ्यक्रम समाप्त हो जाने के बाद का समय निर्धारित किया.
बच्चे तो सुनकर ख़ुश और प्रभावित हुए, पर मैं सोच में पड़ गई कि इस प्रश्न के उत्तर को जानते, समझते हुए भी यदि हमने हृदयंगम किया होता तो क्या इतनी गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत वाले देश में आज स्थितियां इतनी चिंताजनक होती?
हमने सुना, पढ़ा कि ये सारा घटनाक्रम स्वयं विष्णु जी ने अपने जन्म से पहले ही लिख दिया था. पर हमने कभी ये सोचा कि क्या आवश्यकता थी प्रभु को स्वयं अपनी नियति को केवल पांवों के छालों और अश्रुधारा से सजाने की? विश्लेषण करें तो पाएंगे कि इसकी हर घटना इंसान को कुछ संकेत और संदेश देने का माध्यम थी.
राम का सम्पूर्ण जीवन अधर्म का नाश करने में सक्षम व्यक्तित्व के उत्तरोत्तर विकास की कथा है. इस कथा का हर मोड़ व्यक्तित्व के विकास का ज़रिया है. एक इनसान को युग प्रवर्तक बनने के लिए जिन संघर्षों से गुज़रना पड़ता है, उन सारे संघर्षों से राम गुज़रे, तपे, पके, तब इतने समर्थ हो सके कि रावण का वध कर सकें. आइए, देखें कि कैसे हम अपनी परवरिश और शिक्षा व्यवस्था में सुधार करके राम के उन आदर्शों पर चल सकते हैं, जिनकी स्थापना के लिए उन्होंने ख़ुद अपनी नियति में जीवन भर के लिए पैरों में कांटे और छाले लिखे थे.
बचपन और कैशोर्य कैसा हो?
बचपन में राम को गुरुकुल भेजा गया, ताकि विद्यार्थी जीवन में सख्त अनुशासन तथा विलासिताहीन परिवेश का महत्त्व समझाया जा सके. जबकि आज हम विद्यार्थी जीवन में अपने बच्चों को अधिक से अधिक सुविधाएं देकर और अपना ध्यान केवल उनके किताबी विकास पर केन्द्रित करके, न केवल उनके नैतिक विकास का मार्ग अवरुद्ध करते हैं, बल्कि उनका आत्मबल भी ठीक से विकसित नहीं होने देते.
गुरुकुल से लौट कर विश्वामित्र के साथ पुनः वन जाने की घटना संदेश देती है कि प्राप्त विद्या के प्रायोगिक रूप तथा व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए युवाओं का शिक्षण के पश्चात कुछ समय के लिए समाज सेवा में समर्पित होना अवश्यक है. गांधी जी ने यंग इंडिया में छपने वाले अपने लेखों में इस आवश्यकता का अनेक बार जिक्र किया था. बहुत से यूरोपीय देशों में उच्च शिक्षा से पहले वर्ष-दो वर्ष की समाज सेवा आज भी अनिवार्य है. पर क्या आज हम अपने या अपने बच्चों के जीवन में समाज-सेवा का महत्त्व समझते हैं? उन्हें इसके लिए प्रेरित करते हैं?
गृहस्थ जीवन में भी संभव है तपश्चर्या
विवाहित जीवन के वैभव विलास का समय आया तो उन्होंने नियति को ऐसा मोड़ दिया, ताकि समाज को समझाया जा सके कि गृहस्थ जीवन जीते हुए भी त्याग और तपश्चर्या से व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है. मानस में कितने ही प्रसंग हैं, जब सीता-राम प्रकृति के सानिध्य और विद्वत जनों के साहचर्य से पुलकित होते हुए समाजसेवी के रूप में आनंद पूर्वक जीवन जी रहे हैं. कहीं भी कुढ़े हुए भगवान देखे हैं किसी ने? पर क्या आज हम परिवार के लिए क्षुब्ध या कुंठित हुए बिना त्याग कर पाते हैं? अपने अभावों को सकारात्मक सोच के साथ, व्यक्तित्व के विकास का अवसर मान पाते हैं?
वनवास की घटना इस बात का भी संकेत है कि विलासिता के त्याग के बिना आत्मबल के निर्माण का कार्य आरंभ ही नहीं हो सकता. पूरे वनवास के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता अभावग्रस्त लोगों के दुख-दर्द सुनते, समझते और उन्हें दूर करने का प्रयास करते रहे. बुद्धिजीवियों (ऋषि-मुनियों) की संगत खोज-खोजकर अपने हर प्रकार के ज्ञान (बौद्धिक, व्यावहारिक तथा तत्कालीन आवश्यकतानुसार शस्त्र संबंधी) का संवर्धन करते रहे और पीड़ित जनता की सहायता के लिए उसका उपयोग करके उसके प्रायोगिक पक्ष की परख और संबधित अपराधियों से लोहा लेकर उसका लागूकरण सीखते रहे. अपना आत्मविश्वास और आत्मबल बढ़ाते रहे. वनवासियों के साथ रहने, शबरी के जूठे बेर खाने और गिद्ध, भालुक और वानर जाति (जो उस समय की पिछड़ी जातियां थीं) के साथ मिलकर युद्ध करने के पीछे समानता का संदेश है. आज न जाने मानव का वर्गीकरण नीची और ऊंची जाति में करने वाले कैसे ख़ुद को राम भक्त कह पाते हैं?
नारी सम्माननीय है!
‘पुरुष’ राम ने अपने पूरे जीवन में नारी को बराबर का स्थान तथा सम्मान दिया. उन्होंने स्त्री तथा पुरुष के लिए सात्विकता के सामान मानदंड बनाने का प्रयास किया. इसके लिए एक ओर उस समय चल रही पुरुषों के बहुविवाह की प्रथा को समाप्त करने की प्रेरणा देने के लिए स्वयं एकपत्नी व्रत का वचन लिया. उसका पूर्ण निष्ठा के साथ पालन भी किया. दूसरी ओर विमाता द्वारा वनवास की घटना से समाज को बहुविवाह के काले पक्षों से अवगत करा कर इसे समाप्त करने का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया. उन्होंने सुंदर रूप धारण कर के आई सूर्पणखा की ओर दृष्टि तक नहीं उठाई. पर क्या आज हम अभिभावक अपने बेटों को ऐसा सख्त अनुशासन देने का प्रयास कर रहे हैं जिससे वो राम के इन आदर्शों पर चलने को प्रेरित हों?
अहिल्या प्रकरण प्रतीकार्थ रूप में अपने जीवन में हो चुकी दुर्घटनाओं से मानसिक रूप से बाहर निकलने की प्रेरणा देता है. प्रतीकों को समझें तो हम कह सकते हैं कि राम ने आत्मग्लानि से जड़ हो चुकी अहिल्या की चेतना वापस लाने में मदद की. उसे उसकी खोई हुई गरिमा वापस दिलाई. वनवासी राम उन दिनों एक समाजसेवी थे. उन्होंने साधारण पुरुष का प्रतिनिधित्व करते हुए अहिल्या को सम्मान दिया, संवेदना दी, ताकि वो अपने जीवन में हुई दुर्घटना के दंश से बाहर निकल सके. यदि सीधे से देखें तो भी अहिल्या प्रकरण प्रमाण है कि हमारे धर्म या ईश्वर ने कभी स्त्री को उसके साथ हुए शीलहरण के कारण अपवित्र नहीं माना.
आज धर्म के नाम पर नारी की स्वतंत्रता पर उंगली उठाने वाले भूल जाते हैं कि लक्ष्मण ने जो रेखा खींची थी, उससे सीता बाहर जा सकती थीं पर कोई और उसके अंदर नहीं आ सकता था. ये एक बहुत बड़ा संकेत है कि लक्ष्मण-रेखा बंदिशों का नहीं, चेतावनी का नाम है. ये सिखाती है कि प्रायः हम सतर्कता तथा जागरूकता के अभाव में मुश्क़िलें मोल लेते हैं. सीता-जी के छले जाने का कारण उनका भोलापन था. ध्यातव्य है कि लक्ष्मण को संस्कार राम ने ही दिए थे. अर्थात राम ने नारी की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किए बिना परिवार को उसकी सुरक्षा का दायित्व लेना सिखाया था. तो सतर्क रहने का सबक दुनिया को सिखाना भी आवश्यक था.
फिर अग्नि परीक्षा क्यों?
अग्नि परीक्षा प्रतीक है उस ‘ट्रायल’ का जिससे वादी तथा आरोपी दोनों को गुज़रना पड़ता है. जो तकलीफ़देह तो है पर निष्पक्ष न्याय-व्यवस्था के लिए आवश्यक भी है. राम तथा सीता ने इसे सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति के सर्वप्रिय व्यक्ति के लिए भी अनिवार्य बनाने का आदर्श रखा. आज इसका पुनर्स्मरण इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि विशिष्टता की संस्कृति हमारे देश को घुन की तरह खाने लगी है.
यों नरेंद्र कोहली और कुछ नए विचारक और शोधकर्ता अग्नि परीक्षा को प्रतीकात्मक मानते हैं. नरेंद्र कोहली की रामकथा में राम का संवाद है – “अब अपने राम से दूर न रहो. तुमने पूरे एक वर्ष की अग्नि परीक्षा दी है.”
सीता का निष्कासन और विशिष्टता की अवधारणा
बहुत से विचारक और शोधकर्ता ये भी मानते हैं कि राम द्वारा सीता को निष्कासन कभी दिया ही नहीं गया था. ये बाद में लिखवाया गया प्रक्षेपण है. रामचरितमानस में भी इसका जिक्र नहीं है. लेकिन अगर ऐसा हुआ भी था तो इसका कारण प्रशासन कैसा हो-इस अवधारणा को समझाना था.
कुछ लोग सीता की अग्नि परीक्षा तथा सीता निष्कासन को पुरुष द्वारा स्त्री के चरित्र पर लगाया गया प्रश्नचिन्ह मानते हैं. ध्यातव्य है कि ऐसा ‘पुरुष’ राम ने नहीं ‘राजा’ राम ने किया था. दरअसल ये सीता-राम द्वारा उस लोकतन्त्र की स्थापना के लिए चुकाई गई क़ीमत थी, जिसका सपना उन्होंने मिलकर देखा था. राजा के सामने अपना विद्रोह खुलकर जता सकें, ऐसा अधिकार स्वयं राम ने प्रजा को दिया था. उस समय प्रजा की अवज्ञा का मतलब अपनी कथनी और करनी में अंतर का उदाहरण जनता के सामने रखना हो गया था. राम जानते थे कि ये एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि हम अपनों के अपराध पर कभी विश्वास नहीं कर पाते.
यदि सर्वोच्च पद आसीन व्यक्ति न्याय व्यवस्था का सम्मान केवल इसलिए नहीं करेगा, क्योंकि वह उससे सहमत नहीं है या उसे आरोपी के निर्दोष होने का पूर्ण विश्वास है तो अन्य उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति भी पक्षपात के लिए प्रोत्साहित होंगे. इससे विशिष्ट कहे जाने वाले व्यक्ति तथा उनके सम्बन्धी अहंकारी तथा निरंकुश हो जाएंगे और जनसाधारण आक्रोश से युक्त. जैसा कि आज हो रहा है.
अनुसरण करने के लिए है राम कथा
सच तो ये था कि सीता-राम ने अपनी आधी ज़िंदगी पारिवारिक स्तर पर नैतिक मूल्यों की स्थापना के लिए एक दूसरे के पैरों के छाले गिनने में काट दी. बाक़ी राष्ट्रीय स्तर पर नैतिक मूल्यों की स्थापना तथा आदर्श प्रशासन का उदाहरण रखने के लिए विरह में.
रामायण केवल बुराई पर भलाई की जीत की ही कथा नहीं है. ये मानव के अपने चरित्र को उच्चतम सोपान तक विकसित करने की भी कथा है. जहां पहुंच कर आत्मबल इतना दृढ़ हो जाता है कि भलाई कितनी भी ताक़तवर बुराई पर विजय पा सकती है. इसलिए उनकी पूजा-अर्चना की सही विधि ‘पाठ’ कराना या रावण का दहन करना नहीं, बल्कि उनके द्वारा स्थापित आदर्शों का जितना हो सके पालन कराना है.
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