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जानवर का भरोसा: रस्किन बॉन्ड की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
January 27, 2021
in क्लासिक कहानियां, ज़रूर पढ़ें, बुक क्लब
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जानवर का भरोसा: रस्किन बॉन्ड की कहानी
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एक लड़के और चीते के बीच के भरोसे के रिश्ते को कैसे इंसानों ने ही तार-तार कर दिया. पढ़ें, जंगल, पशु-पक्षियों की कहानियां लिखनेवाले मशहूर कहानीकार रस्किन बॉन्ड की कहानी ‘जानवर का भरोसा’.

पहली बार चीता मैंने तब देखा जब में पहाड़ की तलहटी में बहने वाली धारा को पार कर रहा था.
घाटी इतनी गहरी थी कि दिन में भी ज़्यादातर समय वहां छाया रहती थी. इसी वजह से बहुत से जानवरों और परिदों की दिन में भी अपने छुपने की जगह से बाहर निकलने की हिम्मत पड़ जाती थी. उस तरफ़ बहुत कम लोग जाया करते थे-सिर्फ़ आसपास के गांवों के दूधिये और सूखे पेड़ों को जलाकर कोयला बनाने वाले.
इसीलिए वह घाटी जंगली जानवरों के लिए स्वर्ग जैसी थी. उत्तर भारत की मशहूर पहाड़ी सैरगाह मसूरी के आसपास ऐसे क़ुदरती इलाक़े गिने-चुने ही बचे थे.
मेरे कॉटेज से शुरू होने वाली ढलान पर बांज, चिनार और बुरांस का जंगल था. पेड़ों के बीच से होकर एक संकरी पगडंडी आगे वाली पहाड़ी की पीठ तक जाती थी जहां दूर तक लाल अंबाड़ा क़ुदरती तौर पर उगता था. और उसके आगे फिर खड़ी ढलान थी, जिस पर जंगली रसभरी और कई क़िस्म की बेलें और पतले-पतले बांस एक-दूसरे में उलझे रहते थे.
पहाड़ी के नीचे पहुंचने के बाद यह रास्ता जिधर से होकर जाता था, वहां किनारे-किनारे घास और उसे घेरे जंगली गुलाब के झाड़ थे. ताज्जुब की बात है कि 5,000 फ़ीट से लेकर 8,000 फ़ीट की ऊंचाई पर उगने वाले पेड़-पौधे इंग्लैंड के देहाती इलाक़ों में उगने वाले पेड़-पौधों से बहुत मेल खाते हैं.
समय के साथ पीले पड़ गए गोल पत्थरों और कंकड़ों की तलछट पर फुदकती हुई आगे बढ़ती धारा सोंग नदी में मिलने से पहले पगडंडी से बिल्कुल सटकर बहती थी, और आगे जाकर सोंग नदी गंगा में मिल जाती थी.
जब मुझे पहली बार इस धारा के बारे में पता चला, अप्रैल का महीना चल रहा था, और जंगली गुलाब के खिलने का मौसम था. छोटे-छोटे सफ़ेद गुलाब-गुच्छे के गुच्छे.
मैं तक़रीबन रोज़ाना दो या तीन घंटे लिखने के बाद धारा तक टहलने जाता था. मैं बहुत लम्बे समय तक शहरों में रह चुका था, और अब ख़ुद को… अपने तन-मन को तरोताज़ा करने वापस पहाड़ों में लौट आया था. एक बार बस आप पहाड़ों में रह लें, कितने भी समय के लिए, तो पहाड़ आपको अपना बना लेते हैं, और फिर आपको अपनी ओर ऐसे खींचते हैं कि आपको बार-बार आना पड़ता है.
क़रीब हर सुबह, और कभी-कभी तो दिन में भी मुझे कांकड़ की पुकार सुनायी दे जाती थी. और शाम के समय जब मैं जंगल से होकर गुज़रता तो अक्सर झुंड बनाकर घूमते-चुगते फ़ीज़ेंट यानी फुकरांस पक्षी घबराकर नीचे घाटी की ओर उड़ जाते-पंख फैलाकर, लेकिन बिना फड़फड़ाए. मैंने बिज्जू देखे, एक बार लाल लोमड़ी भी देखी, और भालू के पैरों के निशान भी पगडंडी पर पहचान लिए.
क्योंकि मैं किसी चीज़ की तलाश में, वहां से कुछ लेने तो जंगल में आता नहीं था, इसलिए जानवर और परिंदे मेरे आने-जाने को लेकर बेपरवाह हो गए. हो सकता है मेरे क़दमों की आहट पहचानने लगे हों, क्योंकि कुछ समय बाद जब मैं उधर से गुज़रता तो जैसे किसी को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता था.
जहां पहले मेरे उधर से गुज़रने पर लंगूर बुरांस की डालियों पर इधर से उधर छलांगें लगाने लगते थे, वहीं अब बस डाल पर बैठे-बैठे बांज की नर्म मुलायम कोपलें खाते ग़ौर से मुझे ताकते रहते थे. जब बड़े लंगूर गुनगुनी धूप का मज़ा लेते हुए एक-दूसरे के बालों से तिनके
चुनकर सफ़ाई किया करते थे, तब उनके बच्चे शरारती लड़कों की तरह छीना-झपटी करते हुए आपस में जूझा करते थे. लेकिन एक शाम जब में उधर से गुज़र रहा था, पेड़ों में बैठे लंगूर कुछ आवाज़ें कर रहे थे. मुझे समझ में आ गया कि इनके बीच जो हलचल मची है वह मेरी वजह से नहीं है.
जैसे ही मैंने धारा को पार करके दूसरी तरफ़ की पहाड़ी पर चढ़ना शुरू किया, लंगूरों का घुरघुराना और चकचकाना बढ़ गया, जैसे कि वे मुझे आगे किसी नज़र न आने वाले ख़तरे के बारे में आगाह कर रहे हों. तभी खड़ी पहाड़ी की ढलान पर कंकड़ों की झड़ी लग गई. ऊपर से गिरने वाले ये कंकड़ कहां से आ रहे हैं, ये देखने के लिए ज्यों ही मैंने सिर उठाया, तो ऊपर, क़रीब बीस फ़ीट ऊपर एक चट्टान पर ठहरा नज़र आया गहरा सुनहरा-सा गठीला चीता. वह मेरी तरफ़ नहीं देख रहा था, लेकिन उसका सिर कुछ आगे को इस तरह तना हुआ था जैसे घाटी की ओर किसी को ताक रहा हो. लेकिन उसे किसी तरह मेरी मौजूदगी का अहसास हो गया था, तभी उसने गर्दन घुमाकर मेरी ओर देखा.
मुझे वहां देख कर वह कुछ हैरान था, और जब हिम्मत बांधने के लिए मैंने ज़ोर से ताली बजायी, तो वह ज़रा भी आहट किए बिना छलांग मारकर झुरमुट में जा घुसा, और पेड़ों के गहरे सायों मे गुम हो गया.
मेरी वजह से उसकी शिकार करने की कोशिश में अड़चन पड़ गई थी, लेकिन कुछ ही देर में मुझे कांकड़ की ऐसी पुकार सुनाई दी और फिर वह पेड़ों के बीच से कुलाचे मारकर भागा. शिकार अब भी जारी था.
बिल्ली परिवार के दूसरे जानवरों की तरह चीते भी भारत में ख़त्म होने की कगार पर हैं, इसलिए मसूरी के इतना क़रीब भी कोई चीता हो सकता है, यह जानकर मुझे हैरत हुई. शायद आसपास की पहाड़ियों पर जो जंगलों का सफ़ाया हुआ है उसकी वजह से हिरन मसूरी की हरी-भरी वादी में चले आए होंगे, और ज़ाहिर है, चीता भी उनके पीछे-पीछे चला आया होगा.
उस दिन के बाद कई हफ़्तों तक मुझे चीता नज़र नहीं आया. यह बात और है कि चीते के आसपास ही कहीं होने का अहसास कई बार हुआ. एक सूखी खांसी जैसी खंखार से पता चलता था. कई बार तो मुझे बिल्कुल पक्के तौर पर लगता था कि कोई मेरे पीछे चल रहा है.
एक बार जब मुझे घर पहुंचने में देर हो गई, तो रास्ते में जंगल के एक खुले से इलाक़े में दौड़-भाग मचाते साही के परिवार ने मुझे चौंका दिया. घबराहट में मैंने इधर-उधर नज़रें दौड़ाई तो देखा कि झुरमुट में से दो चमकीली आंखें मुझे घूर रही थीं. मैं वहीं थम गया, और मेरा ज़ोर से धड़कता दिल पसलियों से टकराता रहा. फिर वह आंखें चक्कर काटती हुई इधर-उधर चल पड़ीं, तब मेरी समझ में आया कि वह जुगनू थे.
मई और जून के महीनों में जब पहाड़ भूरे-भूरे हो जाते और तमाम हरियाली सूख जाती, तब भी धारा के आसपास हरियाली और ठंडक रहती, जहां फ़र्न, और कई क़िस्म के दूसरे पौधे और घास पनपते रहते थे.
धारा के बहने की दिशा में आगे चलकर एक छोटा-सा तालाब था जिसमें में नहा सकता था, और एक गुफ़ा भी जिसकी छत में से पानी टपकता रहता था. गुफ़ा की छत वाली चट्टान में पड़ी दरारों में से रोशनी की किरणें अन्दर आतीं तो टपकता हुआ पानी रुपहला और सुनहरा नज़र आता.
उसने मुझे हरियाले चारागाहों में ठहरने का मौक़ा दिया; उसने मुझे पानी के कुंड तक का रास्ता दिखाया. यीशु के शिष्य डेविड ने भी ज़रूर ऐसी ही कोई जन्नत जैसी जगह खोज ली होगी, तभी उन्होंने ईसाइयों के धर्मग्रंथ बाइबिल में यह शब्द लिखे होंगे. शायद मैं भी कुछ अच्छी बातें लिख सकूंगा. हिल स्टेशन पर आने वाले सैलानी अभी हरियाली और जंगली जीवों की इस क़ुदरती पनाहगाह तक नहीं पहुंचे थे. मुझे अपने अन्दर कहीं ऐसा लगने लगा था जैसे इस जगह पर मेरा हक़ है, जैसे यह मेरी जागीर हो.
मेरे अलावा धारा पर इस जगह पर आने वाला एक और प्राणी थी-चितकबरी फ़ोर्कटेल, जिसे इस इलाक़े के लोग ‘धोबी चिड़िया के नाम से पुकारते थे-शायद ज़्यातर समय पानी के आसपास बिताने की वजह से. वह मेरे बिल्कुल पास पहुंच जाने पर भी अपनी जगह से नहीं उड़ती थी, लेकिन अगर मैं वहां ज़्यादा देर ठहरता था तो बेचैन होकर एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर फुदकती और शिकायती लहजे में तीखी आवाज़ें निकालती फिरती.
उस दिन सारी दोपहरी मैं उसका घोंसला ढूंढ़ता रहा. मुझे पूरा यक़ीन था कि उसके घोंसले में बच्चे होंगे, क्योंकि मैंने उसे अपनी चोंच में एक कीड़ा दबाकर जाते हुए देखा था. दिक़्क़त यह थी कि जब वह ऊपर की तरफ़ यानी जिधर से धारा आ रही थी, उधर की तरफ़ जाती तो मैं उसका तेज़ी से पीछा नहीं कर पाता था क्योंकि चट्टानें पैनी थीं और वहां फिसलन भी काफ़ी थी.
आखिरकार मैंने ख़ुद को फ़र्न की शाखों से सजाया और धीरे-धीरे धारा के बहाव से उलटी दिशा में आगे बढ़ता गया. फिर जिस जगह जाकर अक्सर फ़ोर्कटेल आंखों से ओझल हो जाया करती थी, मैं वहां एक पेड़ के खोखले तने में घुस कर छुप गया. मैं उस चिड़िया को किसी तरह लूटना नहीं चाहता था-सिर्फ़ उसका घोंसला देखना चाहता था.
उकड़ बैठकर मुझे सिर्फ़ उस धारा के बहाव का छोटा-सा हिस्सा और घाटी के दोनों ओर का नज़ारा दिखाई दे रहा था, लेकिन उसे धोखा देने की कोशिश के बावजूद मैं उस पक्षी की निगाहों से बच नहीं पाया था, और वह लगातार अपने आशियाने के इतने नज़दीक मेरी मौजूदगी के ख़िलाफ़ जोरदार आवाज़ उठाती रही.
मैंने अपने रहे-सहे सब्र को समेटा और क़रीब दस मिनट तक बिल्कुल बुत की तरह बिना हिले-डुले बैठा रहा. फ़ोर्कटेल शांत हो गई. नज़रों से दूर, दिल से काफ़ूर! लेकिन वह कहां गुम हो गई? मुझे पक्के तौर पर यह महसूस हो रहा था कि वह घाटी के खड़े किनारों में, शायद बिलकुल क़रीब में ही कहीं, अपने घोंसले की रखवाली कर रही होगी.
मैंने सोचा कि मैं उसे चौंका दूंगा और अचानक खड़ा हो गया. लेकिन मुझे अपने घोंसले की रखवाली करती फ़ोर्कटेल के बजाय दौड़कर दूर भागता तेंदुआ दिखा जिसकी चौंकने से गुर्राहट निकल गई थी! बस दो छलांगों में ही वह धारा पार कर जंगल में समा गया.
चीते को देखकर मैं ख़ुद भी कोई कम नहीं चौंका था, और इस चौंकने का असर यह हुआ कि फ़ोर्कटेल और उसके घोंसले की ओर से सारा ध्यान ही हट गया. तो क्या चीता फिर से मेरे पीछे लग गया था? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता इस बात को मैंने ख़ुद ही नकार दिया. सिर्फ़ आदमखोर चीता ही इन्सानों का पीछा करते हैं, और जहां तक मैं जानता हूं, मसूरी के आसपास आदमखोर चीता कभी नहीं रहा.
बरसात के मौसम में हमारी, यानी मेरी और फ़ोर्कटेल की धारा अपने रास्ते में पड़ने वाली झाड़ियों और यहां तक कि छोटे-मोटे पेड़ों को बहा ले जाने वाली वेगवान नदी बन गई, और कलकल की सरगम की जगह बहाव की खौफ़नाक गरज का शोर छा गया. तब मैंने अक्सर वहां जाने का सिलसिला छोड़ दिया, क्योंकि अब बहुत बढ़ चुकी घास में जोंक भरी रहती थीं.
एक दिन मुझे हिरन मरा पड़ा मिला जिसका बस थोड़ा सा हिस्सा ही खाया था. मुझे हैरत इस बात पर हुई कि चीते ने अपना बाक़ी बचा शिकार ऐसे ही कैसे छोड़ दिया था, उसे कहीं छुपाया क्यों नहीं था. लेकिन ज़रा दिमाग दौड़ाते ही मुझे समझ में आ गया कि ज़रूर खाते समय उसके साथ किसी तरह की छेड़छाड़ या अड़चन पैदा हुई होगी.
फिर चढ़ाई चढ़ते हुए मैंने बांज के झुरमुट में शिकारियों के एक दल को सुस्ताते देखा. उन्होंने मुझसे पूछा कि कहीं मैंने चीता तो नहीं देखा. मैंने मना कर दिया. उनमें से एक ने कहा कि उन्हें मालूम है कि जंगल में चीता घूम रहा है.
उन्होंने यह भी बताया कि दिल्ली में चीते की खाल एक हज़ार रुपये से भी ज़्यादा की बिकती है. हालांकि जंगली जानवरों की खाल वगैरह की ख़रीद-फ़रोख़्त ग़ैर-क़ानूनी थी, लेकिन उनकी बातों से मेरी समझ में आ गया था कि कहीं न कहीं कोई न कोई रास्ते भी ज़रूर निकल आते होंगे. इस जानकारी के लिए मैंने उनका शुक्रिया अदा किया और आगे अपनी राह चल पड़ा. लेकिन मैं कुछ घबराहट और बेचैनी-सी महसूस कर रहा था.
शिकारियों ने चीते के खाये हुए कांकड़ की लाश देख ली थी और उन्होंने चीते के पंजों के निशान भी देख लिए थे, और उसके बाद से वे जब देखो तब जंगल में आने लगे. तक़रीबन हरेक शाम मुझे गोलियां दागने की आवाज़ें सुनाई देने लगीं, क्योंकि उन्हें तो जो दिखाई दे जाए वे उसी को निशाना बनाने के लिए तैयार रहते थे.
‘चीता घूम रहा है,’ शिकारी मुझे हिदायत देते. ‘बन्दूक लेकर चला करो.’
‘मेरे पास बन्दूक है ही नहीं,’ मैंने बताया.
जब से जंगल में शिकारियों के क़दम पड़े थे, तब से पक्षी कम नज़र आ रहे थे, और लंगूर तक न जाने कहां चले गए थे. लाल लोमड़ी तो फिर दिखी ही नहीं, और जो बिज्जू बिलकुल निडर होकर घूमा करते थे, वे मुझे आता देखते ही दुबक जाते. लगता है जानवरों के लिए सारे इन्सानों की गंध एक जैसी ही होती होगी.
बारिश का मौसम बीता और अक्तूबर का महीना आ गया अब मैं भीनी-भीनी महक वाली हरी घास में धूप सेंकने लेट सकता था, और देर तक बाज की पत्तियों के बीच से झांकते धुले हुए नीले आसमान के आंखों को चौंधियाने वाले टुकड़ों को निहार सकता था. और मैं पत्ते-पत्ते, बूटे-बूटे के लिए, किसी चीज़ की रगड़ लगते ही फैल जाने वाली पुदीने और तिपतिया घास की गंध के लिए ईश्वर को धन्यवाद देता, और क़ुदरत का शुक्रिया अदा करता, घास और हवा तथा आकाश के नीलेपन के छूने से होने वाले मधुर अहसास के लिए.
इन्सानों के बारे में तो मैं कुछ सोचता ही नहीं था. उनके प्रति मेरा रवैया कुछ वैसा ही था जैसा जंगल के बाशिंदों का. इन्सान भरोसेमंद नहीं होते हैं, कुछ नहीं पता कब क्या कर बैठें, इसलिए जितना हो सके उनसे दूर ही रहा जाए, इसी में भलाई है.
घाटी के दूसरी ओर परी टिब्बा की चढ़ाई थी. परी टिब्बा यानी परियों वाला पहाड़. उजाड़-सा पड़ा, छोटे-छोटे झाड़-झंखाड़ से भरी पहाड़ी जिस पर कोई नहीं रहता था.
कहा जाता है कि पिछली सदी में अंग्रेज़ों ने इस पहाड़ी पर रहने के लिए घर बनाने की कोशिश की थी, लेकिन वहां अक्सर बिजली गिरती थी-न जाने क्यों-यह उस जगह की अपनी ख़ासियत थी या उसमें जमा किसी खनिज की फ़ितरत इसकी वजह थी, लेकिन एक के बाद एक करके कई मकानों पर बिजली गिरने के बाद अंग्रेज़ उस पहाड़ी को छोड़ पड़ोस वाली पहाड़ी पर चले गए, जहां आज एक पूरा शहर बसा हुआ है.
पहाड़ी लोगों के लिए वह परी टिब्बा है, जहां उन दो बदनसीब प्रेमियों की आत्माएं रहती हैं जो तूफ़ान में फंसकर उस जगह जान से हाथ धो बैठे थे. जबकि कुछ लोग इसी परी टिब्बा को ‘बर्न्ट हिल’ यानी जली पहाड़ी के नाम से जानते थे, क्योंकि उस पर उगे पेड़ या तो बिजली गिरने से जले हुए थे या फिर ठीक से बढ़े ही नहीं थे.
एक दिन धारा पार करने के बाद मैं परी टिब्बा की चोटी तक जाने के इरादे से चढ़ाई चढ़ने लगा. यह बेहद कठिन था, क्योंकि वहां तक पहुंचने के लिए कोई पगडंडी वगैरह नहीं थी और मुझे खड़ी चढ़ाई चढ़ने के लिए झाड़ियों के जड़-तने और हाथ आने वाले पत्थरों को पकड़-पकड़ कर चढ़ाई चढ़नी थी-और यह खड़ी चढ़ाई पर पौधे-पत्थर कितनी मज़बूती से जमे हैं, इसका कोई अंदाज़ा नहीं होता था-वह कभी भी हाथ में आ सकते थे.
किसी तरह मैं परी टिब्बे के ऊपर पहुंच ही गया, जहां चोटी की जगह पठार जैसी समतल जगह थी और वहां चीड़ के कुछ पेड़ खड़े थे. उनकी ऊपरी शाखाएं हवा के बहाव के साथ सुर में सुर मिला कर धीरे-धीरे गुनगुना रही थीं. वहां मैंने वे खंडहर देखे, जो ज़रूर उन मकानों के होंगे जो शुरुआत में इस इलाक़े में बसने आए लोगों ने बनाए होंगे, और अब उनकी जगह बस मलबे के छोटे-छोटे कुछ ढेरों से ज़्यादा कुछ नहीं बचा था, और उन पर भी खरपतवार-तीनपतिया, ककरौंधा और बिछूटीपाता छा गए थे. जब में बिना छत वाले इन खंडहरों के बीच घूम रहा था, तब मुझे चारों तरफ़ सिर्फ सन्नाटे से घिरे होने का अहसास हुआ-न कोई जानवर, न परिंदे-बिल्कुल सुनसान बियाबान.
सन्नाटा ऐसा था कि लग रहा था वही मेरे कानों में गूंज रहा है. लेकिन वहां और भी कुछ था जिसकी मौजूदगी का अहसास मुझ पर हावी होता जा रहा था. बह थी बिल्ली परिवार के जीवों से आने वाली महक.
मैं वहीं एक जगह ठहर गया और ध्यान से हर ओर देखा. वहां कोई भी नहीं था मेरे सिवा. न तो कोई सूखे पत्ते हिलने की सरसराहट थी और न ही कोई कंकड़ अपनी जगह से सरकने की आहट. ज़्यादातर खंडहर सिर्फ़ आसमान से पटी बहुत कम ऊंचाई वाली दीवारों की शक्ल में थे, लेकिन एक सड़ कर गली हुई लकड़ी की शहतीरें टूटने से ऐसी जगह बन रही थी जैसे खान में जाने वाली सुरंग हो, और यह अंधेरी गुफ़ा पाताल तक जाने के रास्ते जैसी लग रही थी.
जब मैं उसके मुहाने पर पहुंचा तो वहां मांसाहारी जानवर की महक सबसे ज़्यादा महसूस हो रही थी. मैं वहीं ठहर गया और सोचने लगा कि कहीं मैं चीते की मांद की चौखट पर तो नहीं आ पहुंचा हूं और यह भी सोचता रहा कि हो सकता है कि रात को शिकार करने के बाद चीता वहीं आराम कर रहा हो.
हो सकता है, वह अंधेरे में घात लगाए बैठा मुझे ताक रहा हो, पहचान रहा हो, जान गया हो कि यह तो वही शख़्स है जो जंगल में बिना हथियार लिए अकेला घूमता है.
मुझे अच्छा लगता है जब मैं सोचता हूं कि वह वहीं होगा, और वह मुझे पहचान पाया होगा और उसने मेरे वहां जाने को इस तरह लिया होगा जैसे कोई अपने दोस्त के पास जाता है-जैसे उसे मेरे वहां होने से कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता.
शायद मेरी वजह से इन्सान पर उसका भरोसा पक्का हो गया था, कुछ ज़्यादा ही भरोसा करने लगा था वह अपने आसपास आने वाले इन्सान पर-ज़रूरत से ज़्यादा लापरवाह हो गया था. लेकिन मैं वहीं ठहर गया, वहीं बाहर ठहर गया. मैं पूरे होश में था. मैं नहीं चाहता था कि चीते से मेरी नज़दीकी बढ़े, बल्कि मेरे मन में तो एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर छलांग लगाते उसके गठीली मांस-पेशियों वाले शरीर को एक बार फिर देखने का लालच भी नहीं था मैं तो बस यह चाहता था कि वह मेरे ऊपर विश्वास करे, और मुझे लगता है भरोसे का यह तोहफ़ा उसने मेरे नाम कर रखा था.
लेकिन चीता इतना नादान होगा कि वह एक इन्सान पर भरोसा करने के बाद वैसा ही भरोसा हर इन्सान पर करने की भूल कर बैठेगा? क्या अपने मन से डर को पूरी तरह निकाल कर-अपने मन में उसका डर, और मेरी वजह से उसके अंदर से ख़ुद को ख़तरों से बचाकर रखने का डर निकल गया था, जिससे वह पूरी तरह से असुरक्षित हो गया था?
क्योंकि अगले दिन ढोल पीटते और चिल्लाते शिकारी धारा की ओर से ऊपर बस्ती की तरफ़ आने वाले रास्ते पर चले आ रहे थे. उनके कंधों पर एक लंबा-सा बांस था और उस बांस के बीच में ऊपर पैर बांधकर चीते के बेजान शरीर को टांग रखा था और उसका सिर नीचे को झूल रहा था. उसके सिर और गर्दन में गोलियों के घाव थे.
‘हमने तुमसे कहा था न कि चीता घूम रहा है!’उनमें से एक ने मुझे देखते ही, बहुत ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए चिल्लाकर कहा,‘देखो कितना बढ़िया है यह?’
‘हां,’मैंने कहा. ‘बहुत सुंदर चीता था यह.’
मैं सुनसान जंगल के रास्ते घर की ओर चल दिया. बहुत सन्नाटा था. ऐसा लग रहा था जैसे सारे परिंदे और जानवर जान गए हों कि इन्सान ने उनका भरोसा तोड़ा है.
मैं खड़ी चढ़ाई वाले सुनसान रास्ते पर अकेला अपने घर की ओर चला जा रहा था, और फ़िल्म ‘हाथी मेरे साथी’ के गीत के बोल मेरे मन में गूंज रहे थे
जब जानवर कोई इन्सान को मारे
कहते हैं दुनिया में वहशी उसे सारे,
एक जानवर की जान आज इन्सानों ने ली है
चुप क्यों है संसार?

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