क्या कभी आप अपनी किसी यात्रा के दौरान सामुदायिक सरोकार के किसी बड़े काम से रूबरू हुए हैं? इंदौर की वरिष्ठ लेखिका ज्योति जैन मध्यप्रदेश के झाबुआ ज़िले के आदिवासी अंचल की अपनी यात्रा के दौरान एक अनूठे श्रमदान कार्यक्रम की साक्षी बनीं. उस यात्रा ने उन्हें क्या-क्या सिखाया? उनके मन से कौन-कौन सी ग़लतफ़हमियां दूर हुई? उसका सजीव व सुंदर वर्णन पढ़िए, स्वयं उन्हीं के शब्दों में.
कुछ वर्षों पहले की बात है. झाबुआ का नाम सामने आते ही सबसे पहले जो बात क्लिक करती है, वह थी-यदि अपनी गाड़ी से जा रहे हो, तो दिन छते झाबुआ क्रॉस कर लेना. कारण तो… जानते ही हो ना…?
इसी भ्रम में बरसों गुज़ार दिए थे. झाबुआ के भील/आदिवासी लूटमार, तीरों से मारने वाले, हमला करने वालों का पर्याय ही बताए जाते थे. हक़ीक़त तब पता चली जब मैं स्वयं पहली मर्तबा आदिवासी बंधुओं के बीच सन् 2006 में झाबुआ गई. दोबारा-तिबारा बार-बार गई तो इस हक़ीक़त से रूबरू होती गई कि जाने-अनजाने ये क्षेत्र विकास की मुख्य धारा से पिछड़ ज़रूर गया है, लेकिन यहां के लोग भोले व मेहनती हैं, साथ ही मस्त और ईमानदार भी.
ये जानकर और ख़ुशी हुई थी कि एक संस्था (शिवगंगा मित्र मण्डल) के सहयोग से झाबुआ व आसपास के युवा देश की आर्थिक उन्नति से होने वाले लाभ से वंचित रहने के बाद भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे हैं. वे स्वयं के प्रयासों से गांव में ख़ुशहाली लाने में जुट रहे हैं. इन्हीं प्रयासों में से एक है ‘हलमा’. ‘हलमा’ एक भीली परम्परा है. ‘हलमा’ यानी संकट के समय जब किसी एक व्यक्ति के बस का कोई काम नहीं रहता, तब परहित में कई लोग एक साथ उस कार्य में जुट जाते हैं व उसे पूर्ण करते हैं और इस कार्य के लिए वे कोई पैसे नहीं लेते.
अचानक ही मुझे कुछ दिन पूर्व डिस्कवरी चैनल पर दिखाया गया एक एपिसोड ध्यान आ गया. वो पूरा एपिसोड पेंग्विन पक्षियों पर था. पूरे बर्फ़ीले इलाक़े में कई पेंग्विन एक बड़ा गोल घेरे बनाए खड़े थे, घेरे के अंदर तीन-चार घेरे थे. थोड़ी देर बाद अन्दर के घेरे वाले पेंग्विन बाहर आ गए और बाहर वाले अन्दर के घेरे में. सुखद आश्चर्य ये था कि सबसे बीच में, यानी सबसे ज़्यादा गर्मी पाने वाले पेंग्विन एक निश्चित समय के बाद बाहरी पंक्ति में आ जाते थे. ऐसा बारी-बारी से हो रहा था. परहित और एकता का अद्भुत संगम था. इस सारे घटनाक्रम को समझने व कैमरे से शूट करके हमें भी समझाने वाले फ़ोटोग्राफ़र को मैंने मन ही मन धन्यवाद दिया कि उन्होंने इन पक्षियों की आदतें/गुण (झुण्ड में रहना, एक-दूजे के प्रति संवेदनशील रहना, एकता आदि) हमारे समक्ष प्रस्तुत किया.
यहां यह एपिसोड मुझे ‘हलमा’ के कारण याद आ गया और ‘हलमा’ की परंपरा को उन्हीं की भलाई के लिए निभाने का बीड़ा उठाया शिवगंगा के कार्यकर्ताओं ने, क्योंकि झाबुआ के भील… उनकी छवि… इन सबसे बाहर आना इतना आसान नहीं था. ‘हलमा’ के लिए गांव-गांव जाकर इन कार्यकर्ताओं ने आदिवासियों को न्यौता दिया. जिसमें पुरुष ही नहीं…महिलाएं ही नहीं… बल्कि घर का बच्चा-बच्चा भी हलमे के लिए आए. गांव का पानी गांव में रहे, इसलिए बंजर ‘हाथीपावा’ की पहाड़ियों पर ट्रेंच खोदने व वृक्षारोपण हेतु गड्ढे खोदने का लक्ष्य था. साथी हाथ बढ़ाना… की भावना से ओतप्रोत यह ‘हलमा’ एकजुटता का सबसे नायाब उदाहण है. जिसका मुख्य उद्देश्य है जन, जल, ज़मीन, जानवर व जंगल बचाना.
महीनों पहले ही इसकी तैयारियां प्रारंभ हो जाती हैं. इस दो दिवसीय आयोजन में पहले दिन दोपहर तक उन लगभग 350 गांवों से आदिवासी झाबुआ में आने लगते हैं. अपनी दो दिन की मज़दूरी छोड़ समर्पित भाव से ये भील सिर्फ़ ‘हलमे’ के लिए अपने-अपने साधन से आते हैं, बस, ट्रैक्टर, ट्राली आदि से… गुलरीपाड़ा, नवपाड़ा, आम्बाखोदरा, नीमखोदरा, आमली फल्या जैसे गांवों से ये आदिवासी बंधु चले आ रहे थे. आने के साथ ही सभी अनुशासित तरीक़े से निर्धारित पांडाल में जमा हो गए. अनुमान था कि क़रीब दस हज़ार की संख्या में आएंगे, लेकिन आश्चर्य! यह आंकड़ा बारह हज़ार पर पहुंच चुका था.
पहला दिन गेंती यात्रा का था. अपने-अपने गेंती-फावड़े व तगारी के साथ पूरे झाबुआ में निकली ये गेंती यात्रा अनूठी थी. हम भी साथ-साथ पैदल ही चल पड़े उस गेंती यात्रा में. एक बात और महसूस की कि वे सभी हाथों में गेंती फावड़े लिए होने से बाक़ायदा एक सुनिश्चित दूरी बनाकर चल रहे थे यानी सबके साथ सामंजस्य बैठाते हुए चलना उनसे सीखा जा सकता है. गेंती को ‘माता’ का दर्जा देते हैं, क्योंकि उससे उनकी आजीविका चलती है.
अगले दिन ‘जल अभियान’ प्रारंभ होना था. गेंती यात्रा के पश्चात रात्रि में उस खुले मैदान में जब हमने सिर ऊपर उठाया तो आसमान में असंख्य तारे जगमगा रहे थे (जो अब शहरों में देखने को नहीं मिलते). दूसरे दिन सुबह ठीक साढ़े पांच बजे जब हम पंडाल में पहुंचे तो सारे आदिवासी पंडाल में बैठे मिले. साढ़े छह बजे तक स्थानीय भीली भाषा में भजन चलते रहे. साढ़े छह बजे सब ‘हाथीपावा’ की पहाड़ियों की ओर रवाना हो गए. गेट पर खड़े ट्रैक्टरों में शिवगंगा के कार्यकर्ता भोजन के पैकेट लेकर खड़े थे, जो हर आदिवासी को दिए जा रहे थे. यहां पर मैनेजमेंट की तारीफ़ करनी होगी. सारे आदिवासियों को पहले से निर्देश थे कि उन्हें किस रंग के झण्डे के पास के क्षेत्र में श्रमदान करना है और वे सब अपने-अपने निर्धारित रंग के झण्डे के क्षेत्र में पहुंच गए.
लगभग दस से बारह हज़ार लोगों ने चार घंटे में मानों पूरी पहाड़ी खोद दी. हर जगह ट्रेंच साफ़ नज़र आ रही थी, साथ ही पौधों के लिए गड्ढे भी. ऐसा लग रहा था कि रात के आसमान वाले तारे रंग-बिरंगे चटख परिधान में पूरे हाथीपावा की पहाड़ियों पर झिलमिला रहे थे. गेंती-फावड़े से ट्रेंच खोदकर जल बिंदुओं को सहेजने का उनका भागीरथी प्रयास देख मन में यक़ीन हो गया कि जल्दी ही यह क्षेत्र जलसंकट से मुक्त हो जाएगा. उन आदिवासी स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों/किशोरों के श्रम से उत्पन्न स्वेद बिन्दुओं पर जब सूर्य की किरणें पड़ीं उनकी चमक रात्रि के उन तारों से कई गुना बढ़कर लगी. हम भी गेंती उठाकर उनके साथ जुट गए.
पूरे हाथीपावा क्षेत्र में फैले दस हज़ार से अधिक आदिवासियों का एकत्र होकर किया जा रहा यह श्रमदान इस बात का संकेत था कि वहां जल्दी ही पानी की कमी दूर होगी. इस हौसले के साथ उनकी भावनाएं कि नाचते-गाते वे परिश्रमी मतवाले आए भी स्वयं के ख़र्च से और ये ऐलान कि ‘इस काम की दाड़की थोड़ी लांगा…’ उस भागीरथी प्रयास की दस्तक मालूम हो रही थी.
वहां मौजूद पत्रकारों में से किसी ने मुझसे सवाल किया कि आप शहरवासी भी बड़ी संख्या में यहां आए हैं. इन आदिवासियों को प्रेरणा देने के लिए, आप क्या कहेंगी…? पूरे आदर के साथ मेरा यही जवाब था कि,‘इन्हें हम क्या प्रेरणा दें? बल्कि इनसे प्रेरणा लेकर एकजुटता के लिए कुछ करने का संकल्प, ज़िंदगी आनंद के साथ जीना, कड़ी मेहनत के बाद रोटी-भाजी में भी भरपूर तृप्ति…. और भी बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत तो हम शहरी लोगों को है.
उस श्रमदान के बाद भी मैं जितने युवाओं से मिली, सबके चेहरे पर व आंखों में थकान के स्थान पर आने वाले ‘भगोरिया’ पर्व का उल्लसित इंतज़ार व चमकदार शरारती सपने दिखाई दे रहे थे. बिल्कुल उनके कपड़ों के रंग जैसे लाल-पीले, गुलाबी-हरे, चटक केसरिया और चमकदार.
अपने लिए किया तो ‘कर्म’ और देश या समाज के लिए किया तो ‘धर्म’ ऐसी सीख देते ये आदिवासी निश्चिय ही एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे थे. आत्मविश्वास जाग रहा है, नई राहें मिल रही हैं… और आदिवासी एक नए विश्वास के साथ उठ खड़े हो रहे हैं… हम कुछ नहीं या हम कर ही क्या सकते हैं… की सोच से बिल्कुल परे हज़ारों की तादाद में ये सारे आदिवासी एक भागीरथी प्रयास में जुट हैं, तो गंगा का तो धरती पर आना तय है ही ना…?
पुस्तक साभार: यात्राओं का इंद्रधनुष
लेखिका: ज्योति जैन
प्रकाशन: शिवना प्रकाशन