’90 के दशक में श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित और जूही चावला बॉलिवुड की टॉप की तीन बड़ी अभिनेत्रियां मानी जाती थीं. इनकी प्रतिस्पर्धा के चर्चा अख़बारों में छाई रहती थी. पिछले दिनों जूही चावला ने हमसे की कुछ नई और कुछ पुरानी बातें.
आप आज और ’90 के दशक की फ़िल्म मेकिंग तकनीकी में क्या फ़र्क़ देखती हैं?
तब बाउंड स्क्रिप्ट का चलन नहीं था. लोग रातभर बैठकर सीन बनाते थे, लेखक सेट पर डायरेक्टर के साथ बैठकर डायलॉग्स लिख देते थे. हम तैयार होते रहते तब सीन के बारे में बताया जाता. हाथों से लिखे डायलॉग्स मिलते. जब हमें फ़िल्म ऑफ़र होती थी तो पांच-छह लाइन की कहानी निर्देशक हमें बता देते थे. बस इतना ही सुनकर अपनी गट फ़ीलिंग पर हम फ़िल्म को ‘हां’ बोल देते थे. डर और आईना ये दो फ़िल्में थीं, जिनकी लिखी हुई स्क्रिप्ट मिली थी. यहां तक कि मेरे करियर की बेस्ट फ़िल्मों में से एक हम हैं राही प्यार के भी ऐसे ही बनी थी.
ख़ुश रखने के लिए क्या करती हैं?
मुझे लगता है कि लाइफ़ बहुत ही सिम्पल है. हमने उसे कॉम्प्लिकेटेड बना रखा है. ख़ुश रहने के लिए मैंने उन चीज़ों से धीरे-धीरे किनारा कर लिया, जिनसे ख़ुशी नहीं मिलती थी, जैसे-पार्टी में जाना. हां, किसी क़रीबी दोस्त की पार्टी हो तो ठीक है, वर्ना बस अपीयरेंस के लिए जाना सही नहीं है. हम दुखी तब होते हैं, जब ख़ुद को प्रेशर में डालते हैं. आजकल मैं ‘फ़ीयर ऑफ़ मिसिंग आउट’ के बारे में काफ़ी सुन रही हूं. दरअस्ल, हमारी परेशानी का सबसे बड़ा कारण यही है. हम हर जगह दिखना चाहते हैं, सबकुछ जानना चाहते हैं.
आपके बच्चे फ़िल्मों में आना चाहते हैं?
मेरे बच्चे अभी पढ़ रहे हैं. वे दोनों ही बोर्डिंग स्कूल में हैं. मेरी मां जब बचपन में मुझे कहती थी कि तुम्हें बोर्डिंग स्कूल डालूंगी तो मैं रोने लगती थी, इसलिए मेरी मां ने नहीं भेजा. आज मेरे बच्चे बोर्डिंग स्कूल में हैं, लेकिन उन्होंने ख़ुद इस बात को चुना कि वे बोर्डिंग स्कूल जाना चाहते हैं. मेरी बेटी 12वीं में है और बेटा नौवीं में. मेरे बच्चे पढ़ाकू हैं, ख़ासकर बेटी. वो स्पोर्ट्स में भी अच्छी है. स्कूबा डाइव करती है और फ़ुटबॉल खेलती है. उसने अभी तक तय नहीं किया उसे क्या करना है. कभी मॉडल बनना चाहती है. कभी सर्जन.
पहले अभिनेत्रियों की प्रतिस्पर्धा आम थी, आज स्थिति थोड़ी बदली हुई नज़र आ रही है…
(हंसते हुए) अपने वक़्त में तो मैं भी बोलती थी कि हमारे बीच किसी तरह की प्रतिस्पर्धा नहीं है! लेकिन सच कहूं तो प्रतिस्पर्धा हर दौर में होती है. हमारे से पहले भी रही होगी. तब तो नहीं कहा, पर अब कह रही हूं कि मैं माधुरी के साथ ख़ुद को सेकंड लीड में नहीं देख सकती थी, इसीलिए दिल तो पागल है को मना कर दिया था! माधुरी ही क्या, रवीना, करिश्मा सभी से प्रतिस्पर्धा रहती थी (हंसती हैं). 1942 ए लव स्टोरी में मनीषा कोइराला को देखा तो लगा कि अपना करियर अब ख़त्म हो जाएगा. नई लड़की आ गई है, मुझे कौन काम देगा.
आज आप प्लास्टिक बैन, रेडिएशन जैसे सामाजिक मुद्दों पर बात करती हैं. क्या आप हमेशा से ऐसी थीं?
मैं आज जो हूं, वह कल नहीं थी. पहले जब लोग मुझसे सामाजिक कार्यों के बारे में बोलते थे तो मैं भाग जाती थी. मुझे लगता था बस अपना काम करो. मैं सिर्फ़ अपने करियर पर फ़ोकस करती थी. मुझे लगता है कि ज़िंदगी का टर्निंग पॉइंट उस वक़्त आया, जब मेरे बच्चे हुए. आप अपने बच्चों के लेकर प्रोटेक्टिव तो होते ही हैं, लेकिन दूसरे बच्चों के बारे में भी सोचने लगते हैं. मां बनने के बाद मैं वाक़ई बदल गई.
छोटे बजट की फ़िल्मों का अनुभव कैसा रहा है?
शादी के बाद मुझे बड़े बजट की फ़िल्में ऑफ़र ही नहीं हो रही थीं. फिर मैंने झंकार बीट्स, 3 दीवारें और माय ब्रदर निखिल जैसी छोटे बजट की फ़िल्में की. इन फ़िल्मों का बजट हमारे एक गाने के बजट के बराबर होता था. मैं तो अभी तक हंसती हूं यह सोचकर कि नागेश कुकुनूर कहता था,‘ऐक्टिंग मत करना.’ हालांकि बाद में उन फ़िल्मों को करके मुझे बहुत ही रिफ्रेशिंग-सा लगने लगा था.
क्या आत्मकथा लिखने की कोई योजना है?
ज़िंदगी के कुछ ऐसे पन्ने हैं, जिन्हें मैं फिर से याद नहीं करना चाहूंगी. हां, अपनी फ़िल्मों से जुड़े, सेट्स के जुड़े क़िस्सों को ज़रूर किताब की शक्ल में सामने लाना चाहूंगी.