धरती हमें इतना कुछ देती है, क्या हमें भी इसे कुछ नहीं देना चाहिए? बता रही है हूबनाथ पांडे की कविता ‘किसी एक दिन’.
जी करता है
इस प्यारी धरती को
कसकर बाहों में जकड़ लूं
भींच लूं ख़ूब कसकर
टस से मस न होने दूं
जब से जनमी
चलती ही जा रही
इसके पांवों के छाले
न जाने कितनी बार
फूटफूटकर बरसे हैं
न जाने कितना तरसे हैं
इसके थके से नयन
बूंदभर उजास के लिए
कितनी तरसी है रसना
स्नेहमयी प्यास के लिए
थोड़ी देर गोद में लेकर
इसे दुलराऊं थपथपाऊं
इसकी घुंघराली अलकों में
उंगलियां फंसाऊं
बसाऊं पलकों में
घड़ी भर के लिए
अपनी प्यारी प्यारी धरती को
नदियों का ज़हर चूस लूं
नीलकंठ की तरह
उगाऊं जंगलों की क़ब्र पर
प्यारा सा नया जंगल
नूह की नाव से उठा लाऊं
तमाम जीवों के नए जोड़े
और छींट दूं
बाजरे की तरह
पूरी क़ायनात में
जितना कुछ खोया है
मेरी प्यारी धरती ने
वह सब कुछ एक साथ
एक दिन
लौटा देना चाहता हूं
इसे बाहों में भरकर
ख़ूब रोना चाहता हूं
कि यह सब मैंने
तब क्यों नहीं सोचा
तब क्यों नहीं किया
जब मेरी धरती को
सबसे अधिक ज़रूरत थी
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