अपने अंदर आए बदलावों का दोष दूसरों पर मढ़नेवालों को आईना दिखाती है, कुंवर बेचैन की कविता ‘लोहे ने कब कहा’.
लोहे ने कब कहा
कि तुम गाना छोड़ो
तुम ख़ुद ही जीवन की लय को भूल गए
वह प्रहार सहकर भी
गाया करता है
सधी हुई लय में,
झंकारों के स्वर में
तुम प्रहार को
सहे बिना भी चिल्लाए
किया टूटने का अभिनय
दुनिया भर में
लोहे ने कब कहा
कि तुम रिश्ते तोड़ो
तुम्हीं टूटने तक धागों पर झूल गए
हुई धूप में गर्म
शिशिर में शीतल भी
है संवेदनशीला
लोहे ही जड़ता
पर तुम जान-बूझ,
उन कमरों में बैठे
जिन पर ऋतु का
कोई असर नहीं पड़ता
लोहे ने कब कहा
इड़ा के संग दौड़ो
यह तुम थे जो श्रद्धा के प्रतिकूल गए
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