एक स्त्री के लिए मायके का क्या महत्व है, वह मायके लौटी स्त्री में आने वाले बदलावों से पता चलता है. अरुण चन्द्र रॉय की कविता मायके लौटी स्त्री की बड़ी सूक्ष्मता से पड़ताल करती है.
मायके लौटी स्त्री
फिर से बच्ची बन जाती है
लौट जाती है वह
गुड़ियों के खेल में
दो चोटियों और
उनमें लगे लाल रिबन के फूल में
वह उचक उचक कर दौड़ती है
जैसे पैरों में लग गए हों पर
घर की दीवारों को छू कर
अपने अस्तित्व का करती है एहसास
मायके लौटी स्त्री
मायके लौटी स्त्री
वह सब खा लेना चाहती है
जिनका स्वाद भूल चुकी थी
जीवन की आपाधापी में
घूम आती है अड़ोस पड़ोस
ढूंढ़ आती है
पुराने लोग, सखी सहेली
अनायास ही मुस्कुरा उठती है
मायके लौटी स्त्री
मायके लौटी स्त्री
दरअसल मायके नहीं आती
बल्कि समय का पहिए को रोककर वह
अपने अतीत को जी लेती है
फिर से एक बार
मायके लौटी स्त्री
भूल जाती है
राग द्वेष
दुख सुख
क्लेश कांत
पानी हो जाती है
किसी नदी की
हे ईश्वर!
छीन लेना
फूलों से रंग और गंध
लेकिन मत छीनना
किसी स्त्री से उसका मायका
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