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ओए अफ़लातून
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ऐसी ही कवयित्री कह सकती है कि मुझे ईश्वर नहीं नींद चाहिए

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 29, 2022
in बुक क्लब, समीक्षा
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Book-review
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बीते दिनों सुख्यात कवयित्री अनुराधा सिंह को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान के सभागार में शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया. यहां पढ़िए उनके पहले कविता-संग्रह ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ पर लिखी वरिष्ठ लेखक, संपादक प्रियदर्शन की टीप.

 

कविता संग्रह: ईश्वर नहीं नींद चाहिए
कवयित्री: अनुराधा सिंह
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
अनुराधा सिंह की कविताओं के कई गुण हैं. सबसे बड़ा गुण है सहजता. कई बार यह लिख चुका हूं कि सहजता को साधना सहज नहीं. बहुधा इस कोशिश में कविता सरलीकरण की चपेट में आ जाती है या फिर सपाटपन की खाई में गिर पड़ती है. लेकिन अनुराधा का काव्य शिल्प और संसार जैसे सहजता में ही बसता है.

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लेकिन यह सहजता आती कैसे है? शायद तब आती है जब कवि को पता हो कि क्या कहना है और कैसे कहना है. मगर क्या कविता इतनी स्पष्ट चीज़ है कि वह लिखे जाने से पहले ही ठोस ढंग से हमारे भीतर रूप ग्रहण कर ले? या वह पहले कुछ गड्डमड्ड ख़यालों में, कुछ धुंधली अनुभूतियों में, कुछ तीव्र अनुभवों में, कुछ नामालूम बेचैनियों में बसी होती है, जिन्हें हम शब्दों में ‘डिकोड’ करने की कोशिश करते हैं? जिसे अनुभव की तीव्रता कहते हैं, वह क्या चीज़ होती है? शायद जिस तरह कविता के नहीं होते, उस तरह इन प्रश्नों के भी स्पष्ट उत्तर नहीं हो सकते, कोई सीधी व्याख्या नहीं हो सकती. फिर वह‌ क्षण भी महत्वपूर्ण होता है जो कुछ हिलते-डुलते भावों, कुछ कांपते-कौंधते बिंबों को ठोस कविता में ढाल देता है. दरअसल अनुभव की तीव्रता और अभिव्यक्ति की स्थिरता के बीच एक बहुत बारीक़ संतुलन से एक अच्छी कविता बनती है- यह संतुलन भी आती-जाती सांस जैसा होता है जिसकी पूरी प्रक्रिया बाहर से संचालित होती हुई भी अपने भीतर घटित होती है.

अनुराधा सिंह की कविताएं इसी सुस्थित संतुलन के बीच, इस स्पंदित सहजता के बीच बनती हैं. उनकी काव्य चेतना इन कविताओं को एक अलग आयाम देती है. यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि उनके वैचारिक संसार की परिधि में सिर्फ़ मनुष्य ही नहीं है, बल्कि वह पूरा पर्यावरण है जिसे मनुष्य ने अपने प्रेम, अपनी घृणा, अपने मनोरंजन या फिर अपने कारोबार के लिए अपना उपनिवेश बना रखा है. उन्हें एहसास है कि हमने कबूतरों से उनके घर छीन लिए हैं, बाघों से उनका शौर्य छीन लिया है, धरती से उसका सब कुछ छीन कर, नदी को चुराकर अपने प्रेम का बेतरतीब जंगल सींचने की कोशिश की है. लेकिन विडंबना यह है कि इतना कुछ करने के बाद भी हम अपने बीच कुछ बचा नहीं पाए हैं. वे कुछ उदास होकर लिखती हैं – ‘क्या सोचती होगी पृथ्वी / औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में.’

दरअसल यहां इस पंक्ति को उद्धृत करने का एक मकसद और है- इस बात की ओर ध्यान खींचना कि अनुराधा सिंह की कविताएं भले सारे जीव जगत की परिक्रमा करें, लेकिन उनके केंद्र में अंततः एक स्त्री है. वह स्त्री जानती है कि लिखने से क्या होगा, चिड़ियों के बारे में लिखने से ज़्यादा ज़रूरी उन्हें बचाना है, पेड़ों का अध्ययन काफ़ी नहीं है, मिट्टी में बदस्तूर धंसा एक पेड़ चाहिए. दरअसल यह लिखने की व्यर्थता पर टिप्पणी नहीं है, व्यर्थ लिखे जाने का दुख है जिसमें यह एहसास शामिल है कि ‘हर हत्या हमारी उंगलियों पर आ ठहरी / जिन्होंने प्रेम और स्त्री पर बहुत लिखा / दरअसल उन्होंने ही किसी स्त्री से प्रेम नहीं किया.’

तो अनुराधा सिंह कविता का एक मोर्चा व्यर्थ और दिखावटी लेखन के विरुद्ध भी खोलती हैं और यहां तक कह जाती हैं कि ‘स्त्री बची रहे, प्रेम बचा रहे / इसके लिए / कलम का / भाषा का ख़त्म होना ज़रूरी है.’

आप चाहें तो एक अतिवाद इस विचार में पढ़ सकते हैं लेकिन क्या कलम, भाषा और लेखन के ज़रिए ही हमारे समय के बहुत सारे अतिवाद घटित नहीं हुए हैं? शब्द की चेतना और मनुष्य होने की गरिमा के बीच का यह द्वंद्व अनुराधा सिंह की कविताओं में बार-बार आता है. शब्द लिखे जाने से ज़्यादा ज़रूरी उन्हें मनुष्य बने रहना लगता है, लेकिन संकट यह है कि उनकी पहचान उनके शब्दों से बने या उनकी मनुष्यता से- यह तय करना उनके वश में नहीं है. उनके वश में बस अपनी बात कहना है जो कुछ ऐसी है- ‘शब्द बहुत थे मेरे / चटख, चपल, कुशल, कोमल / मनुष्यत्व मेरा रूखा सूखा विरल था / उन्होंने वही चुना जिसका मुझे डर था / चिरयौवन चुना मेरे शब्दों का / और चुनी वाकपटुता / वे उत्सव के साथ थे / मेरा मनुष्य अकेला रह गया / बुढ़ाता समय के साथ / पकता, पाता वही बुद्धत्व / जो उनके किसी काम का नहीं.’

इन कविताओं तक पहुंचते-पहुंचते अनायास हम पाते हैं कि कवयित्री के भीतर संवेदना और विचार का द्वंद्व बहुत सघन है. इस द्वंद्व के दो प्रभाव स्पष्ट हैं. पहली बात तो यह कि उनकी कविता लगातार फैलती चली जाती है. धीरे-धीरे इनमें सारी दुनिया समाती जाती है, दुनिया भर की स्त्रियों के दुख चले आते हैं, तरह-तरह की यंत्रणाओं के बीच क्षत-विक्षत मनुष्यता को भी यहां शरण मिल जाती है.

विचार अगर इन कविताओं का वितान विस्तृत करता है तो संवेदना इनकी जड़ों को धरती के बहुत भीतर तक ले जाती है. हम पाते हैं कि अनुराधा सिंह कई बार बहुत मामूली लगते प्रसंगों को इतनी संवेदनशीलता के साथ रचती हैं कि इससे प्राप्त होने वाला अनुभव एक गहरी कविता के अलावा कुछ नहीं होता.

एक ख़ास बात यह है कि प्रेम इन सारी कविताओं में पृष्ठभूमि के संगीत की तरह मद्धम स्वर में बजता रहता है. कई बार वह बिल्कुल मुख्य स्वर हो जाता है. एक और विशेषता यह है कि इन सारी कविताओं के झरोखे से एक स्त्री झांकती दिखाई पड़ती है. यह‌ उसकी दृष्टि है जो बहुत सावधानी, बहुत सतर्कता के साथ अपनी दुनिया सिरजती है, प्रेम करती है, और यह भी पहचानती है कि कहां प्रेम नहीं है, वह शब्दों की कीमत पर जीवन को बचाए रखने की हिमायती है- और यह कहते कहते वह कविता को भी बचा लेती है.
निश्चय ही अनुराधा सिंह हमारे समय के बहुत समर्थ और संवेदनशील कवियों में एक हैं. उन को उद्धृत करने का मोह बना रहता है. ‘न दैन्यं…’ नाम की उनकी कविता का यह अंश देखिए- ‘दीन हूं, पलायन से नहीं आपत्ति मुझे / ऐसी ही बचाया है मैंने धरती पर अपना अस्तित्व / जंगल से पलायन किया जब देखे हिंस्र पशु / नगरों से भागी जब देखे और गर्हित पशु / अपने आप से भागी जब नहीं दे पाई / असंभव प्रश्नों के उत्तर / घृणा से भागती न तो क्या करती / बात यह थी कि मैं प्रेम से भी भाग निकली / सड़कें देख / शंका हुई आखेट हूं सभ्यता का / ‘
ऐसी ही कवयित्री कह सकती है कि मुझे ईश्वर नहीं नींद चाहिए.

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