पांवों के निशान बताते हैं कि हमने किस दिशा में कितनी दूरी तय की है. कंक्रीट की सड़क पर बने पैरों के निशान देखकर एक कवि के मन में आनेवाले भावों को व्यक्त करती हैं ऋतुराज की कविता ‘पांवों के निशान’.
अदृश्य मनुष्यों के पांव छपे हैं
कंक्रीट की सड़क पर
जब सीमेंट-रोड़ी डाली होंगी
वे नंगे पांव अपार फुर्ती से
दौड़े होंगे यहां
एक तरफ़ सात-आठ निशान हैं
तो उल्टी तरफ़ तीन-चार
पता चलता है कि
कुछ लोग सबसे पहले चले हैं
इस सड़क पर
वे आए हैं, गए हैं, मुकम्मिल तौर पर
लेकिन जहां गए वहां अभी तक
ज़िन्दा हैं या मर गए
किसे मालूम?
हल्का-सा गड्ढा बनाते ये निशान,
बरसात में पानी से भर जाते हैं
और चिड़ियां चली आती हैं
सड़क पर पड़े इन पड़हलों की तरफ़
ये वो निशान हैं
जो सड़क के इतिहास में
श्रमिकों की जीवन-गाथा का बखान करते हैं
एक निशान, हल्का उभरा, कम गहरा है
शायद किसी कुली स्त्री का
जो सावधानी से चलती हुई
ठेकेदार की झिड़की से डरी, गई होगी
ऐन सचिव के बंगले के सामने
ख़ुदे ये निशान,
घर की महिलाओं को चौंकाते हैं
आख़िर, इतने ही निशान क्यों
और बंगले तक आकर
क्यों ग़ायब हैं?
इतनी सारी गाड़ियों की भागमभाग हैं
लेकिन ये जस-के-तस हैं
क्या रात में इनकी संख्या बढ़ जाती है?
सुबह उठकर गिनती है
सचिव की पत्नी
वो ही ग्यारह के ग्यारह निशान
और उनमें से एक, कतार से छिटका हुआ
फिर गिनती है अपने लॉन पर
घर के लोगों के पांवों के निशान
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