आसपास की चीज़ों को अलग नज़रिए से देखना एक कवि की पहचान है. कवि अरुण चन्द्र रॉय बाज़ार, मिट्टी और प्रेम को अपने इसी अलहदा नज़रिए से परिभाषित कर रहे हैं.
1. प्रेम
पृथ्वी
जैसे घूमती है
धुरी पर अपनी
तुम घूम रही हो
निरन्तर
चांद जैसे
निहारता है पृथ्वी को
मैं, तुम्हें
मेरे लिए प्रेम
एक दिन का उत्सव नहीं!
2. मिट्टी
नमी रखकर
अपने भीतर
बीज को देती है गर्मी
बीज पनपता है
देता है फल-फूल
और गिरकर
मिट्टी बन जाता है
मिट्टी
न तो बीज के वृक्ष बनने पर
इतराती है
न उसके मिट्टी में मिलने पर
करती है विलाप
मिट्टी गर्म होती है धूप से
वह गीली होती है पानी से
वह पक कर आग में ईंट हो जाती है
कुम्हार के चाक पर ढल जाती है
फिर से मिट्टी होने पर उसे कोई गुरेज़ नहीं
यही है मिट्टी की सबसे बड़ी पहचान
3. बाज़ार
मूर्तियां
जो बिक गई
ईश्वर हो गईं
पूजी गईं
जो बिक न सकी
मिट्टी रह गईं
मिट्टी में मिल गईं
Illustration: Pinterest
Comments 1