जब देश आज़ादी की लड़ाई लड़ रहा था, जब एक बहन रक्षाबंधन के दिन अपने भाइयों को स्वाधीनता के आंदोलन में कूदने और हाथों में राखी के रूप में हथकड़ी पहनने की चुनौती देती है.
बहिन आज फूली समाती न मन में
तड़ित आज फूली समाती न घन में
घटा है न झूली समाती गगन में
लता आज फूली समाती न बन में
कही राखियां हैं, चमक है कहीं पर,
कही बूंद है, पुष्प प्यारे खिले हैं
ये आई है राखी, सुहाई है पूनो
बधाई उन्हें जिनको भाई मिले हैं
मैं हूं बहिन किन्तु भाई नहीं है
है राखी सजी पर कलाई नहीं है
है भादो घटा किन्तु छाई नहीं है
नहीं है ख़ुशी पर रुलाई नहीं है
मेरा बंधु मां की पुकारों को सुनकर
के तैयार हो जेलखाने गया है
छिनी है जो स्वाधीनता मां की उसको
वह जालिम के घर में से लाने गया है
मुझे गर्व है किन्तु राखी है सूनी
वह होता, ख़ुशी तो क्या होती न दूनी?
हम मंगल मनावे, वह तपता है धूनी
है घायल हृदय, दर्द उठता है ख़ूनी
है आती मुझे याद चित्तौड़ गढ़ की
धधकती है दिल में वह जौहर की ज्वाला
है माता-बहिन रो के उसको बुझाती
कहो भाई, तुमको भी है कुछ कसाला?
है, तो बढ़े हाथ, राखी पड़ी है
रेशम-सी कोमल नहीं यह कड़ी है
अजी देखो लोहे की यह हथकड़ी है
इसी प्रण को लेकर बहिन यह खड़ी है
आते हो भाई? पुन पूछती हूं
कि माता के बन्धन की है लाज तुमको?
तो बन्दी बनो, देखो बन्धन है कैसा,
चुनौती यह राखी की है आज तुमको
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