जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है या ब्रह्म मिथ्या और जगत सत्य. ये विवाद सदैव से चलता आया है और चलता रहेगा. किंतु इसका उत्तर जानने के लिए अगर हम पुराणों की ओर जाएं और उनका सिर्फ़ पठन ही नहीं मनन भी करें तो पाएंगे कि हमारे व्रत, उपवासों में कोई तो वैज्ञानिक आधार छिपा है, जिन्हें यदि हम समझ लें तो इन्हें बनाने के उद्देश्य से परिचित हो सकेंगे. हो सकता है हमारे द्वंद्वग्रस्त मन को पूजा की सही विधि भी मिल जाए और अपने स्तर पर कुछ सार्थक करने का संतोष भी. यहां नवरात्र के नवें दिन की पूज्य देवी सिद्धिदात्री की पूजा की प्रासंगिकता पर चर्चा कर रही हैं भावना प्रकाश.
देवी सिद्धिदात्री सभी देवियों की सफल साधना के उपरांत पूजी जाने वाली वो देवी हैं, जिनकी उपासना से सिद्धियां प्राप्त होती है. ‘सिद्धि’ का अर्थ पौराणिक कथाओं के संदर्भ में देखें तो वो है- चमत्कार करने की शक्ति. जो आज के वैज्ञानिक युग में युक्ति संगत नहीं लगती. इसीलिए ‘सिद्धि’ का सही अर्थ समझना देवी सिद्धिदात्री की साधना का प्रतीकार्थ समझने से पहले ज़रूरी है. पर उससे भी पहले एक और बात पर ध्यान दें. देवी सिद्धिदात्री की आराधना बाक़ी देवियों की साधाना कर चुकने के पश्चात सबसे अंत में की जाती है. इसमें भी एक गूढ़ अर्थ छिपा है.
जैसा कि मैंने पहले लेखों में स्पष्ट किया है; इन्सान जब ख़ुद के व्यक्तित्व को उदात्त बनाने की साधना कर लेता है. अपने पारिवारिक दायित्वों के प्रति सजग होकर उनके सफल निर्वाह का ढंग सीख जाता है. समाज, राष्ट्र और प्रकृति के प्रति एक साधारण जागरूक नागरिक के योगदान का कर्तव्य सुनिश्चित कर लेता है. और संकट के समय आक्रामक होकर भी ख़ुद की रक्षा या न्याय के पक्ष में खड़े होने की निर्भयता स्वयं में विकसित कर लेता है. उसके बाद ही अपने व्यक्तित्व में युग-प्रवर्तक बन सकने लायक चामत्कारिक शक्तियां विकसित करने की साधना आरंभ हो सकती है.
अब पहले सिद्धियों के प्रतीकार्थ की बात करते हैं. पौराणिक कथाओं में जिन अष्टसिद्धियों का जिक्र किया गया है उनके शाब्दिक अर्थ को स्वीकार करना तो आज के वैज्ञानिक युग में संभव नहीं है, लेकिन आप किसी युग प्रवर्तक की उपलब्धियों और उसके साथ घटी घटनाओं के प्रकाश में तनिक ध्यान से विचार करें तो मंतव्य स्वयं ही स्पष्ट हो जाएगा.
सात सिद्धियों में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा शाब्दिक अर्थों में शरीर के लिए प्रयुक्त हैं किंतु प्रतीकार्थों में ये अहंकार को अत्यंत सूक्ष्म, हृदय को अत्यंत विशाल अर्थात् किसी भी प्रकार के लालच या स्वार्थ से सर्वथा शून्य, मन को बहुत हल्का अर्थात कुंठा रहित और क्षमाशील और निश्चय को बहुत भारी अर्थात् अडिग बना लेने की कला है. इसके निरंतर अभ्यास और सामाजिक कार्य करते हुए इन्हें व्यावहारिक रूप से भी तराशते जाने से ही वो निर्भयता प्राप्त होती है जो ‘प्राप्ति’ अर्थात बिना रोकटोक कहीं आ जा सकने का कौशल देने वाली सिद्धि है. ‘प्रकाम्य’ अर्थात् दूसरे के मन की सारी बातें समझ जाने का कौशल, यह भी सामाजिक कार्य हेतु विभिन्न प्रकार के लोगों से निरंतर मिलते रहने और अपने ज्ञान की वृद्धि करते रहने से आता है. सामने वाले के मनोविज्ञान को उसके हावभाव से जानकर उसका मन पढ़ लेना वो मानसिक परिपक्वता है, जिससे मानने से वैज्ञानिकों को भी ऐतराज़ नहीं है. उनके गुणों से बना विशाल संगठन ही युग प्रवर्तकों के ‘ईशत्व’ और ‘वशीत्व’ का प्रमाण है.
हम महापुरुषों की जीवनियां पढ़ें तो बुद्ध हो या गांधी, राजा राम मोहन ‘राय’ हों या विवेकानंद, सबको दूसरे के मन में अपने तर्क रोपने के लिए भूमि तैयार करने के लिए इतना विनम्र पाएंगे, जैसे वो ख़ुद को अणु से भी छोटा समझते हों. उनमें इतना विशाल हृदय अथवा उदारता इतनी पाएंगे कि उनके महती उद्देश्य के सामने सभी स्वार्थ तुच्छ लगने लगें, एक बार लक्ष्य निर्धारित कर लेने के पश्चात उसमें इतना अडिग अर्थात उनके इरादों को इतना ‘भारी’ पाएंगे कि कोई विरोध या हार डिगा न सके. और ये सब वो संगठन जोड़े बिना संभव ही नहीं है, जो उनकी विजय के प्रति जन साधारण के असाधारण विश्वास अर्थात् ‘ईशत्व’ और ‘वशित्व’ अर्थात् अपने तर्कों तथा व्यक्तित्व के माध्यम से दूसरों को वशीभूत कर, संगठित कर देने के कौशल से ही मिलता है.
पौराणिक का तो पता नहीं, पर इतिहास भी चमत्कार या सिद्धियों की पुष्टि करता है. एक नज़र से देखें तो अशोक जैसे महत्त्वाकांक्षी राजा का अहिंसा का व्रत धारण कर बुद्ध की शरण में आना, राम मोहन ‘राय’ के कहने से हज़ारों युवकों का विधवाओं से शादी कर अपने जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण फ़ैसला समाज को अर्पित कर देना, गांधी के अनशन की अडिगता से अंग्रेज़ों का भयभीत हो जाना चमत्कार ही तो है. और अपने व्यक्तित्व को सामाजिक उत्थान के लक्ष्य को समर्पित कर, उसे साधने के लिए उन ऊंचाइयों तक ले जाने की अनवरत साधना ही है देवी सिद्धिदात्री की पूजा.
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