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सपने अपने: शर्मिला चौहान की लघुकथा

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
October 12, 2021
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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सपने अपने: शर्मिला चौहान की लघुकथा
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कई बार जो लोग ऊपर से सख़्त और बेहद अजीब नज़र आते हैं, दरअसल ऐसे नहीं होते. इंसानियत पर विश्वास जगाती है हुई यह लघुकथा ज़रूर पढ़ें.

धीरे-धीरे क़दम उठाती हुई रूपा नई कॉलोनी की ओर मुड़ गई. सत्रह साल की उम्र में वो अपने विकलांग पिता और बीमार मां को पालती है. मिल में काम करते समय दुर्घटना हुई और बापू हमेशा के लिए असमर्थ हो गए. ग़रीबी से और पिता की इस हालत से कमज़ोर मां, आए दिन शरीर की नई परेशानियों से घिरी रहती.

बंगले का गेट खुलने के साथ ही मैडम जी की ख़ुशी से भरी आवाज सुनाई दी,‘‘आ गई रूपा तू ! मैं तेरा रास्ता ही देख रही थी. अब जल्दी आटा गूंध और आलू के परांठे बना दे. आलू उबालकर रखे हैं मैंने,” मैडम जी ने बाथरूम की ओर जाते हुए कहा.

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अनमनी-सी रूपा ने आलू पर से छिलके ऐसे उतारे, जैसे बीती हुई यादों के पर्त उधेड़ रही हो. बापू जब काम से आते थे अपने ख़ाली टिफ़िन में नुक्कड़ के हलवाई से कभी कचौड़ी, कभी जलेबी तो कभी मटकी वाली दही लिए आते थे. मां ग़ुस्सा करती तो कहते,‘‘अरी, चुप हो जा. मेरी एक ही तो लाड़ली बेटी है, उसकी सब ख़्वाहिशें पूरी करना है.” आलू मसलते हुए रूपा की आंखें नम हो गईं.

बापू की लाड़ली बेटी आज दूसरे के घर दिनभर काम करने पर मजबूर है. दसवीं कक्षा तक तो पाठशाला में पढ़ाई कर ली, लेकिन आगे ना पढ़ सकी. मां भी कमज़ोर हो गई थी और काम पर नहीं जा पाती थी, उन्हीं का काम अब रूपा करने लगी है.

छह महीने से काम कर रही है, लेकिन मैडम जी का स्वभाव उसे समझ नहीं आ रहा था. कभी प्यार से बोलतीं तो कभी ग़ुस्से से पैर पटकते हुए मेनू बतातीं. अचानक उसकी सोच का क्रम टूटा.

“रूपा, ज़रा दही और टमाटर की चटनी भी पैक कर देना और हां परांठे आठ-दस रखना साथ वाले भी खाते हैं.”

रूपा ने सोचा,”हर दिन ही तो ज़्यादा बनवाती हैं मैडम जी. कभी परांठे, कभी गाजर का हलवा, कभी दाल की देसी कचौरी तो कभी पुलाव. अच्छा हुआ जो मां ने स्वादिष्ट खाना बनाना सिखा दिया मुझे.”

उस दिन शाम के खाने की तैयारी में जुटी रूपा सोच रही थी कि आज तो पंद्रह लोगों का खाना बोला है मैडम जी ने. बच्चों के लिए पिज़्ज़ा मंगवाने वाले हैं. खीर में इलायची और मेवा डालकर पलटी तो देखा मैडम जी और उनके दोस्त किचन में आ गए हैं.

“रूपा, ये लो तुम्हारे ‘रूपा भोजन केंद्र’ की चाबी और जगह के एग्रीमेंट के पेपर मेरे पास हैं. हम सबने मिलकर तुम्हारे हुनर को परखा और अब तुम अपना ख़ुद का व्यवसाय चलाओगी, लेकिन हां… हमारे खाने के आर्डर में डिस्काउंट जरूर देना,” मैडम जी का यह कहना था कि वहां मौजूद सभी लोग ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगे. रूपा तो जैसे अपने सपनों की दुनिया में उड़ान भरने लगी थी.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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