भारत के महान फ़िल्मकारों में एक, सत्यजीत रे उम्दा कहानीकार भी थे. पढ़ें, उनकी एक बांग्ला कहानी का हिंदी अनुवाद ‘बंकु बाबू का मित्र’. साइंस फ़िक्शन पर आधारित कहानी मानवीय भावनाओं को भी ख़ूबसूरती से बयां करती है, साथ ही एलियन्स की भावनाओं को भी!
बंकु बाबू को कभी किसी ने क्रोध में आते नहीं देखा है. सचमुच अगर ये क्रोध में आ जाएं तब उनका स्वरूप क्या होगा, वे क्या कहेंगे, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है.
हालांकि बात ऐसी नहीं है कि क्रोध आने के मौके नहीं आते हैं. पिछले बाईस बरसों से वे कांकूड़गाछी प्राइमरी स्कूल में भूगोल और बांग्ला पढ़ाते आ रहे हैं. इस अरसे के दरमियान कितने ही छात्र आए और गए मगर बंकु बाबू के पीछे पड़ने का सिलसिला-ब्लैकबोर्ड में उनका चित्र बनाना, उनके बैठने की कुर्सी में गोंद लगा देना, दीवाली की रात में उनके पीछे पटाखाबाज़ी करना-बाईस बरसों से छात्र-परम्परा के रूप में चला आ रहा है.
लेकिन बंकु बाबू कभी ग़ुस्से में नहीं आए, बस गला खंखारकर इतना ही कहा है,“छि:”!
इसका अवश्य ही कोई कारण है और वह यह कि अगर वे ग़ुस्से में आकर मास्टरी छोड़ देते हैं तो उनके जैसे ग़रीब आदमी के लिए इस उम्र में कोई मास्टरी या नौकरी ढूंढ़ना बड़ा ही मुश्किल है और दूसरा कारण यह है, कि पूरे क्लास के शैतान छात्रों के बीच दो-चार भले छात्र अवश्य रहते हैं; उन लोगों से मेल-जोलकर तथा उन्हें पढ़ाकर बंकु बाबू को इतना आनंद प्राप्त होता है कि इसी से उनकी मास्टरी सार्थक हो जाती है. ऐसे छात्रों को वे यदा-कदा अपने घर पर ले आते हैं. उसके बाद कटोरा-भर भुरभुरी खिलाकर कहानी के बहाने देश-विदेश की आश्चर्यजनक घटनाएं उन्हें सुनाते हैं. अफ्रीका की कहानी, मेरु की खोज की कहानी, ब्राज़ील की आदमख़ोर मछलियों की कहानी, समुद्र-गर्भ में समाये हुए अटलांटिस महादेश की कहानी-बंकु बाबू इन सबों का वर्णन बड़े ही चमत्कारिक तरीक़े से करते हैं.
शनि और रविवार की शाम के वक़्त बंकु बाबू गांव के वकील श्रीपति मजूमदार के अड्डे में शामिल होते हैं. बहुत बार उन्होंने सोचा है, अब नहीं जाऊंगा, अबकी आख़िरी बार जा रहा हूं. छात्रों की टिटकारी बरदाश्त करने लायक हो जाने के बावजूद बूढ़ों का उनके पीछे पड़ना उन्हें बरदाश्त नहीं होता. इस बैठक में उन्हें केंद्र बनाकर जो हंसी-दिल्लगी चलती है, वह सचमुच कभी-कभी बरदाश्त के बाहर हो जाती है.
यही तो उस दिन की बात है, दो महीने भी न गुज़रे होंगे, भूत प्रेत की बातें चल रही थीं. बंकु बाबू यों सबके सामने अपनी राय ज़ाहिर करने के अभ्ह्यस्त नहीं हैं, न जाने उस दिन क्या हुआ कि वे कह बैठे कि वे भूत प्रेत से नहीं डरते हैं. अब जाएं तो जाएं कहां. ऐसे मौके को लोग भला हाथ से जाने दें! रात में घर लौटते समय बंकु बाबू की रास्ते में बड़ी ही दुर्गति हुई. मित्तिर ख़ानदान के इमली के पेड़ के तले कोई लिकलिक लम्बा आदमी अपनी देह में भूसा वग़ैरह लगाकर अंधेरे में उनके बदन पर कूद पड़ा. यह काम इसी अड्डे के षड्यंत्र के अलावा और हो ही क्या सकता है!
बंकु बाबू को डर नहीं लगा तब, हां! चोट अवश्य ही लगी थी. तीन दिनों तक उनकी गर्दन में दर्द रहा था और, सबसे जो बड़ी बात हुई वह यह कि उनके नए कुरते में सियाही वग़ैरह लग गयी थी तथा वह कई जगह फट भी गया था. भला, यह कोई मज़ाक़ में मज़ाक़ है!
इसके अलावा उनके पीछे पड़ने का धंधा लगा ही हुआ है. जैसे छाता या जूता छिपा देना, पान में असली मसाले की जगह मिट्टी मिला देना, ज़ोर-ज़बरन गीत गाने के लिए बाध्य करना इत्यादि.
फिर भी उन्हें अड्डे पर आना पड़ता है, न आने पर श्रीपति बाबू पता नहीं, क्या सोचें. एक तो वे गांव के गणमान्य व्यक्ति हैं, दिन को रात और रात को दिन बनाने की उनमें सामर्थ्य है, उस पर बंकु बाबू न हों तो उनका काम नहीं चल सकता. उनका कहना है: एक ऐसे व्यक्ति का रहना ज़रूरी है जिसको लेकर ख़ासे मज़ेदार ढंग से उससे रगड़ किया जाए, वरना अड्डेबाज़ी का अर्थ ही क्या है? बंकु बिहारी को बुला लाओ.
आज की अड्डेबाज़ी में ज़ोर-ज़ोर से बहस-मुबाहिसा चल रहा था यानी सैटेलाईट (उपग्रह) के सम्बन्ध में चर्चा चल रही थी. आज ही, सूर्यास्त के कुछ क्षण पहले उत्तर दिशा के आकाश में एक गतिमान प्रकाश दीख पड़ा है. तीन-एक महीने पहले भी एक बार उसी तरह का प्रकाश दीख पड़ा था और उसके सम्बन्ध में अड्डे में काफ़ी खोज-पड़ताल का सिलसिला चला था, बाद में मालूम हुआ था कि वह एक रूसी उपग्रह था. ‘खटका’ या ‘फोसका’ इसी क़िस्म का कुछ उसका नाम था. सुनने में आया है कि यह चार सौ मील ऊपर पृथ्वी के चारों तरफ़ घूम रहा है और वैज्ञानिकों को उससे नए-नए तथ्यों की जानकारी मिल रही है.
आज के प्रकाश को बंकु बाबू ने सबसे पहले देखा था, उसके बाद उन्होंने ही निघु बाबू को बुलाकर दिखाया था.
किन्तु अड्डे पर पहुंचने के बाद बंकु बाबू ने पाया कि निघु बाबू ने सबसे पहले प्रकाश पर दृष्टी पड़ने का श्रेय बेझिझक अपने आपको दे डाला है और इस वजह से अपनी बहुत तारीफ़ कर रहे हैं. बंकु बाबू ने कुछ भी नहीं कहा.
उपग्रह के सम्बन्ध में यहां किसी को कोई विशेष जानकारी नहीं है, लेकिन चूंकि बात करने के लिए टिकट नहीं ख़रीदनी पड़ती है या बोलने से पुलिस नहीं पकड़ती है इसलिए सभी बातों की रफ़ूगरी कर रहे हैं.
घंषी बाबू ने कहा, “चाहे जो कहो भैया, यह सब उपग्रह वग़ैरह के सम्बन्ध में माथ-पच्ची करना हमें शोभा नहीं देता. हम लोगों के लिए जैसा वह है, सांप के माथे पर मणि होना वैसा ही है. कहां आकाश के किस कोने में प्रकाश का एक बिंदु देख लिया है और उसी के सम्बन्ध में अख़बारों में लिख रहा है और उसी को पढ़कर तुम इस बैठक में पान चबाते-चबाते वाह-वाही लूट रहे हो. मानो, यह तुम्हारी कीर्ति हो, तुम्हारा ही गौरव हो. तालियों की तड़तड़ाहट जैसे तुम्हें ही मिलनी चाहिए, हूं! “
राम कन्हाई की उम्र कम है. वह बोला, ‘चाहे मेरा कारनामा न हो, मगर है तो आदमी का ही. सबसे श्रेष्ठ मनुज है जग में!”
चंडी बाबू ने कहा, “अरे, रहने दो बेवजह की … आदमी ने नहीं तो क्या बन्दर ने उपग्रह बनाया है? मनुष्य के अतिरिक्त है ही क्या?”
निघु मुक्तार ने कहा, “ठीक है, उपग्रह की बात रहे. उसके अंदर कोई आदमी नहीं है, सिर्फ़ एक यंत्र ही चक्कर काट रहा है, सो तो लट्टू भी चक्कर काटती है. स्विच दबा देने से पंखा भी घूमने लगता है. ख़ैर, मगर रॉकेट? रॉकेट की बात यों ही अनदेखी नहीं की जा सकती है.’‘ चंडी बाबू ने मुंह बिदकाकर कहा, “रॉकेट! मैं दाद देता अगर यह हमारे मुल्क में तैयार होता, किले के मैदान से छोड़ने से अगर चंद्रमा तक पहुंच जाता, हम टिकट ख़रीदकर देख आते तो इसका कोई मानी होता.”
राम कन्हाई ने कहा, “मान लो, दूसरे-दूसरे ग्रहों से कोई चीज़ इस पृथ्वी पर आती है…”
“आने से क्या होगा? हम-तुम उसे देख न पाएंगे.”
“सो तो ठीक है”.
अड्डे के सभी सदस्यों ने चाय की प्याली को होंठों से लगाया इसके बाद अब बात-चीत का सिलसिला चल नहीं सकता.
तभी बंकु ने एक कास का टुकड़ा उठाकर धीरे से कहा, “अगर यहीं आ जाए?”
निघु बाबू ने अवाक् होने का बहाना करते कहा, “बंका अब क्या कह रहा है जी? अयं! कौन यहां आएगा? कहां से आएगा?”
बंकु बाबू ने फिर अहिस्ता से कहा, “दूसरे ग्रह से कोई आदमी वग़ैरह…”
भैरव चक्रवर्ती ने अपनी आदत के अनुसार बंकु बाबू की पीठ पर एक धौल जमाते हुए दांत निपोरकर कहा, “वाह, बंकु बिहारी, वाह! दूसरे ग्रह से आदमी यहां आएगा? इस घनघोर देहात में? लन्दन में नहीं, मास्को में नहीं, न्यूयार्क में भी नहीं यहां तक कि कलकत्ते में भी नहीं-बल्कि कांकूड़गाछी में? तुम्हारा शौक़ तो कम मालूम नहीं होता.”
बंकु बाबू चुप हो गए. लेकिन उनका मन कहने लगा, यह असंभव ही कैसे हो सकता है? बाहर से जो आते हैं, उनका उद्देश्य रहता है पृथ्वी पर आना. उतना हिसाब करके अगर न ही आयें? कांकूड़गाछी में न आना जैसे सम्भव है उसी तरह आना भी तो सम्भव है.
श्रीपति बाबू ने अब तक अपना कोई विचार प्रकट नहीं किया था. अब वे सम्हल कर बैठ गए और सभी का ध्यान उनकी तरफ़ खिंच गया.
वे चाय का गिलास रखकर अभिज्ञ की तरह गंभीर आवाज़ में बोले, “देखो, दूसरे ग्रह से अगर आदमी आएगा भी तो इस गए गुज़रे देश में नहीं आएगा. मेरी यह बात गांठ बांधकर रख लो. खा-पीकर मगन रहना ही उनका काम नहीं है, और वे इतने बेवक़ूफ़ भी नहीं हैं. मुझे विश्वास है कि वे लोग साहब क्लास के हैं और आकर उतरेंगे भी तो साहबों के मुल्क में ही-पश्चिम में. समझ रहे हो न?”
बंकु बाबू के अतिरिक्त सभी ने हामी भरी.
चंडी बाबू ने निघु मुक्तार की कमर पर एक थाप जमाकर बंकु बाबू की ओर इशारा किया और नकियाते हुए कहा, “मुझे तो भैया, लग रहा कि बंकु ठीक ही कह रहा है. जहां बंकु बिहारी के जैसा आदमी है वहां लोगों के लिए आना स्वाभाविक है. कहो, निघु, ठीक कह रहा हूं न, मान लो, अगर कोई स्पेसमेन ले जाना होगा तो ये बंकु के अलावा दूसरा कौन आदमी मिलेगा.”
निघु मुक्तार ने हां में हां मिलाते हुए कहा, “ठीक कह रहे हो. चाहे अक़्ल की बात हो, चाहे चेहरे की या चाहे ताक़त की, बांका बिलकुल आदर्श है.”
राम कन्हाई ने कहा, “एकदम जादूघर में रखने लायक़ है, या चिड़ियाघर में.”
बंकु बाबू ने मन-ही-मन कहा, “अगर नमूने की बात ही ली जाए तो ये लोग ही क्या उन्नीस हैं? यह जो श्रीपति बाबू हैं, उनका थुथना ऊंट की तरह है और वह भैरव चक्रवर्ती–कछुए की तरह इसकी आंखें हैं, निघु छछूंदर है, राम कन्हाई बकरी, चंडी बाबू चमगादड़. अगर चिड़ियाघर में ही रखना होगा तो…”
बंकु बाबू की आंखों में आंसू उमड़ आए. वे उठकर खड़े हो गए. सोचा था, आज अड्डेबाज़ी जमेगी. उनका मन उदास हो गया, अब रहना बेकार है.
“यह क्या, जा क्यों रहे हो जी?” श्रीपति बाबू ने चिंता के स्वर में कहा.
“हां, रात हो चुकी है.”
“रात कहां हुई है? कल तो छुट्टी का दिन है. बैठो, चाय पीकर जाना.”
“नहीं, अब जा रहा हूं परीक्षा की कुछ कापियां हैं, नमस्कार.”
राम कन्हाई ने कहा, “देखिएगा बंकु दा, आज अमावस्या है. मंगलवार को आदमी के साथ-साथ भूतों की संख्या में भी वृद्धि होती है.”
बंकु बाबू को पंचा घोष की बंसवारी के बीच प्रकाश दिखायी पड़ा. उसके हाथ में कोई रौशनी नहीं थी. सर्दी का मौसम रहने के कारण सांप का डर नहीं था. इसके अलावा रास्ता भी जाना पहचाना था. यों उस रास्ते से लोग-बाग कम ही गुज़रते हैं, बंकु बाबू के लिए ये रास्ता शॉर्टकट है, इसलिए वे इस रास्ते से आते-जाते हैं.
कुछ देर पहले से ही उनके मन में एक खटका सा पैदा हो रहा था, और-और दिनों के बजाय एक दूसरी ही तरह का भाव. लेकिन वह क्या है, समझ नहीं पा रहे थे. अचानक उन्हें याद आया, आज बंसवारी से झींगुरों की आवाज़ नहीं गूंज रही है. नहीं, आवाज़ बिलकुल नहीं आ रही है. यही तो और-और दिनों से अंतर है. और-और दिन वे बंसवारी के जितना अंदर घुसते थे, झींगुरों की आवाज़ उतना ही बढ़ती जाती थी. आज उल्टी ही बात है. यही वजह है कि इतना सन्नाटा रेंग रहा है.
“बात क्या है? झींगुरों का दल नींद में खो गया है क्या?”
सोच ही रहे थे कि बीस-एक हाथ दूर, पूरब दिशा में प्रकाश देखा, शुरू में उन्हें लगा, आग लगी है. बंसवारी के बीच ख़ाली स्थान में, जहां डबरा है, उसके चारों और काफ़ी दायरे के दरमियान डाल और पत्तों पर एक गुलाबी आभा छाई हुई है. नीचे, डबरे की तमाम जगह को घेरकर गुलाबी आभा फैली हुई है, लेकिन आग नहीं है. क्यूंकि वह प्रकाश स्थिर है. बंकु बाबु आगे बढ़ने लगे.
कानों में एक तरह की आवाज़ आ रही है, मगर वह समझ के बाहर है. एकाएक कान बंद करने से जिस तरह री-री-री-री-री आवाज़ होती है, वह आवाज़ भी ठीक उसी तरह की है.
बंकु बाबू की देह यद्यपि सिहर रही है, फिर भी एक अदम्य कौतूहल के वशीभूत होकर वे आगे बढ़ते जा रहे हैं.
डबरे से तीस हाथ की दूरी पर, बड़ी बंसवारी पार करने के बाद उनकी निगाह उस वस्तु पर गयी. एक विशालकाय उलट कर रखे हुए शीशे के कटोरे की सी वस्तु पूरे डबरे को घेर कर पड़ी हुई है और उसके स्वच्छ-प्राय छाजन में से एक तीव्र, लेकिन स्निग्ध गुलाबी आभा छिटक रही है, जो समूचे वन को प्रकाशमान कर रही है.
बंकु बाबू ने ऐसा आश्चर्यजनक दृश्य स्वप्न में भी न देखा था.
बंकु बाबू कुछ देर तक घनघोर आश्चर्य में डूबते-उतरते रहे, उसके बाद उन्होंने देखा, वह वस्तु स्थिर होने पर भी निर्जीव नहीं है. धीमे स्पंदन की झलक मिल रही है. श्वास-प्रश्वास लेने पर जिस तरह आदमी की छाती धड़कती है, उसी तरह वह वस्तु हिलडुल रही है.
अच्छी तरह से देखने के लिए बंकु बाबू ज्यों ही चार हाथ आगे बढ़े होंगे कि उनके शरीर में विद्युत प्रवाह दौड़ने लगा. दुसरे ही क्षण उन्हें महसूस हुआ कि उनके हाथ-पैर किसी अदृश्य बंधन से बंध गए हैं. अब उनके शरीर में शक्ति नामक चीज़ नहीं है. वह न तो आगे बढ़ पा रहे हैं और न ही पीछे को हट पा रहे हैं.
कुछ देर तक इसी प्रकार जड़वत खड़े रहने के बाद बंकु बाबू ने देखा, उस वस्तु का स्पंदन धीरे-धीरे थम गया और वह शब्द जो कानों को प्रिय लग रहा था, एकाएक रुक गया. उसके बाद एकाएक रात की निस्तब्धता भंग कर बहुत कुछ आदमी की तरह, पर अत्यंत ही महीन गले की चिल्लाहट सुनाई पड़ी, “मिलिपिपिंगक्यू, मिलिपिपिंगक्यू.”
बंकु बाबू चिहुंक कर जड़वत हो गए “बाप रे, यह कौन-सी भाषा है और जो बोल रहा है, वह हैं कहां?”
दूसरी चिल्लाहट सुनते ही बंकु बाबू की छाती धौंकनी की तरह चलने लगी.
“हू आर यू? हू आर यू?”
यह तो अंग्रेजी है. हो सकता है उन्हीं से सवाल किया जा रहा है. बंकु बाबू ने थूक निगलकर कहा,“आइ एम बंकु बिहारी, सर-बंकु बिहारी दत्त.”
सवाल पूछा गया,“आर यू इंग्लिश? आर यू इंग्लिश?”
बंकु बाबू ने चिल्लाकर कहा,“ नो सर! बंगाली कायस्थ सर.”
थोड़ी देर तक चुप्पी छाई रही, उसके बाद स्पष्ट उच्चारण में शब्द बाहर आया,“नमस्कार!”
बंकु बाबू ने राहत की सांस लेकर कहा,“नमस्कार!”
इतना कहते ही उन्हें महसूस हुआ कि उनके हाथ और पैरों का अदृश्य बंधन अपने आप खुल गया है. वे चाहते तो भाग सकते थे पर भागे नहीं. क्योंकि उन्होंने देखा, उस विशालकाय शीशे की स्तूप का एक हिस्सा आहिस्ता-अहिस्ता दरवाज़े की तरह खुल गया.
उस दरवाज़े से शुरू में चिकने बाल की तरह का एक सर बाहर निकला, उसके बाद एक अद्भुत प्राणी का शरीर.
सर के अलावा लम्बे छरहरे शरीर का तमाम हिस्सा एक झिलमिलाती गुलाबी आभा से ढका था. चेहरे पर नाक और कान के स्थान पर दो-दो और होंठ के स्थान पर एक छेद थे. रोएं या बाल का कहीं नामोनिशान नहीं था. हल्दी के रंग की दोनों गोल-गोल आंखें इस तरह चमक रही थीं जैसे कोई रौशनी जल रही हो.
यह आदमी धीरे-धीरे बंकु बाबू की ओर आया और तीन हाथ के फ़ासले पर रुक कर उनकी ओर अपलक ताकने लगा. बंकु बाबू के हाथ अपने आप जुड़ गए.
लगभग एक मिनट तक देखने के बाद वह प्राणी बांसुरी की तरह महीन आवाज़ में बोला,“तुम मनुष्य हो?”
बंकु बाबू ने कहा, “हां!”
प्राणी बोला,“यह पृथ्वीलोक है?”
बंकु बाबू बोले,“हां!”
“ठीक ही समझा हूं. यंत्रों ने गड़बड़ी पैदा की है. प्लूटो में जाने की बात थी. मन में एक प्रकार का संदेह था, यही वजह है कि शुरू में तुमसे प्लूटो भाषा में सवाल किया था. जब देखा तुम कोई जवाब नहीं दे रहे हो तो समझ गया, पृथ्वी पर आ पहुंचा हूं. मेहनत बेकार साबित हुई. छिः छिः इतनी दूर आने पर! और एक बार ऐसा ही हुआ था, जाना था बुध पर और चला गया ब्रहस्पति पर. एक दिन का अंतर हुआ, और क्या, हे हे हे.”
बंकु बाबू क्या कहें, उनकी समझ में नहीं आया. इसके अलावा उन्हें यों ही बेचैनी जैसी लग रही थी, क्योंकि वह प्राणी अपनी पतली-पतली उंगलियों से उनके हाथ हाथ-पैर दबा-दबा कर देखने लगा था.
दबाना बंद करके वह प्राणी बोला,“मैं कैनियस ग्रह का यांग हूं. आदमी से बहुत ही ऊंचे स्तर का प्राणी.”
यह लिकलिक-सा चार फ़ुट का प्राणी मनुष्य से ऊंचे स्तर का है? कहने से ही हो गया? बंकु बाबू हंसने की इच्छा हुई.
लेकिन आश्चर्य की बात, उस प्राणी ने बंकु बाबू के मन का भाव समझ लिया. वह बोला,“इसमें अविश्वास करने की कोई बात नहीं है. इसका सबूत है. तुम कितनी भाषाएं जानते हो?”
बंकु बाबू ने सर खुजलाते हुए कहा,“बांग्ला, अंग्रेज़ी और वो हिन्दी यानी…”
“यानी ढाई भाषाएं.”
“हां वह…”
“मैं चौदह हज़ार भाषाएं जानता हूं. तुम्हारे सौर जगत में ऐसी कोई भाषा नहीं, जिसे मैं न जानता होऊं. इसके अलावा दूसरे-दूसरे इकतीस ग्रहों की भाषाओं की मुझे जानकारी है. इनमे से पच्चीस ग्रहों में मैं ख़ुद जा चूका हूं. तुम्हारी उम्र कितनी है?”
“पचास!”
“मेरी उम्र है आठ सौ तैंतीस. तुम जानवर खाते हो?”
बंकु बाबू ने अभी-अभी कुछ दिन पहले काली पूजा में बकरे का मांस खाया था, इनकार करें तो कैसे?
यांग ने कहा,“हम नहीं खाते. कुछ सौ साल पहले ही हमने खाना छोड़ दिया है. पहले खाते थे, हो सकता है तुम्हें भी खा जाता.”
बंकु बाबू भय से सिहर उठे.
“यह वस्तु देख रहे हो न?”
यांग ने कंकड़ की तरह एक वस्तु बंकु बाबू के हाथ में रख दी. उसे हाथ में लेते ही बंकु बाबू के सर्वांग में ऐसी सिहरन दौड़ गयी कि उन्होंने तत्काल उस पत्थर को वापस कर दिया.
यांग ने हंसकर कहा,“चूंकि यह वस्तु मेरे हाथ में थी, इसलिए तुम उस वक़्त आगे नहीं बढ़ पाये. कोई आगे नहीं बढ़ सकता है. दुश्मन को बिना घायल किये शक्तिहीन बना देने वाली ऐसी कोई दूसरी वस्तु नहीं है.”
बंकु बाबू अब सचमुच हैरान हो गए-हैं!
यांग ने कहा,“ऐसी कोई जगह या दृश्य बताओ जिसे तुम देखना चाहते हो पर देखना सम्भव नहीं हो पाया हो.’
बंकु बाबू ने सोचा, सारी दुनिया ही देखने को बाक़ी रह गयी है. भूगोल पढता हूं मगर बंगाल के कुछ गांव और शहर के अलावा मैंने देखा ही क्या है? बंगाल को ही पूरा कहां देख पाया हूं? हिमालय की बर्फ़ नहीं देखी है, दीघा का समुन्द्र नहीं देखा है, सुंदरबन का जंगल नहीं देखा है-यहां तक कि शिवपुर के बग़ीचे के बरगद के उस दरख़्त तक को मैंने नहीं देखा है.
बंकु बाबू ने कहा “मैंने बहुत कुछ देखा ही नहीं है. जैसे गर्म मुल्क के आदमी. इसलिए उत्तरी ध्रुव को देखने की बड़ी ही इच्छा होती है.’
यांग ने शीशा लगी हुई एक नली निकालकर बंकु बाबू के चेहरे के सामने रखा और कहा,“इसे आंखों पर लगाओ.’
आंखों पर लगाते ही बंकु बाबू के रोंगटे खड़े हो गए. यह क्या संभव है? उनकी आंखों के सामने बर्फ़ की मरुभूमि फैली है. उस मरुभूमि के बीच-बीच में मस्तक ऊंचा किये पर्वत के समान तुषारखंड खड़े हैं. ऊपर, चटख नीले आकाश में इन्द्रधनुष के रंगों में बने चित्र क्षण-क्षण रूप बदल रहे हैं…औरोरा वोग्नियेलिस. वह क्या? वह क्या है? इग्लू. वह रहा ध्रुवीय भालू का झुण्ड, और वह पेंगुइन की जमात. वह कौन सा वीभत्स जानवर है? ग़ौर से देखने के बाद बंकु बाबू ने पहचाना-यह दरियाई घोड़ा है. एक नहीं दो हैं. भयंकर लड़ाई चल रही है. मूली की तरह जुड़े दांतों को एक ने दूसरे के शरीर पर गड़ा दिया. शुभ्र हिम-शय्या पर लाल रक्त की धारा बहने लगी …
पूस की ठंड में बर्फ़ का दृश्य देखकर बंकु बाबू के शरीर से पसीना छूटने लगा.
यांग ने कहा,“ब्राज़ील जाने की तुम्हें इच्छा नहीं होती है?”
बंकु बाबू को मांसख़ोर पिरान्हा मछली की याद आ गयी. आश्चर्य है! इस प्राणी को उनके मन की बातों का कैसे पता चला है?
बंकु बाबू ने नली को फिर आंखों से लगाया.
घना जंगल. एक ओर एक विशाल वृक्ष है. उस पर कौन सी चीज़ लटकी हुई है? बाप रे, इतने बड़े सांप की बंकु बाबू ने कभी कल्पना तक नहीं की थी. अचानक उन्हें याद आया कि कहीं उन्होंने ब्राज़ील के एनाकोंडा के बारे में पढ़ा है. यह तो अजगर का बाप है लेकिन मछली कहां है? वह रही नहर. दोनों किनारे परती ज़मीन पर घड़ियाल बदन पर धूप लगा रहे हैं. घड़ियाल की जमात पर जमात हैं. उनमे से एक की देह में हलचल होती है, वह पानी में उतरने जा रहा है, वह छपाक से कूद पड़ा. बंकु बाबू को आवाज़ तक सुनायी पड़ी लेकिन यह क्या हुआ? घड़ियाल पानी से बिजली की गति से क्यूं बाहर निकल आया? बंकु बाबू ने फटी-फटी आंखों से देखा, घड़ियाल के निचले हिस्से में मांस नामक चीज़ नहीं के बराबर है सिर्फ़ हड्डियां बची हुई हैं. देह के बाक़ी हिस्से को पांच दांत वाली मछलियां दनादन निगलती जा रही हैं.
बंकु बाबू से अब देखा नहीं गया. उनके हाथ पैर थरथराने लगे, माथा चकराने लगा.
यांग ने कहा,“अब विश्वास हो रहा है न, कि हम श्रेष्ठ हैं.”
बंकु बाबू ने जीभ से होंठ चाटते हुए कहा,“बात तो सही है. बिलकुल सही है. आप लोग असाधारण हैं. हमसे सौ गुना आगे.”
यांग ने कहा, “ठीक है. तुमको देखकर और तुम्हारे हाथ पाँव दबाने के बाद लगता है, निकृष्ट कोटि के प्राणी होने के बावजूद तुम आदमी के लिहाज़ से बुरे नहीं हो. तब हां, तुममें दोष इतना ही है कि तुम बहुत ज़ियादा निरीह हो और यही वजह है कि तुम जीवन में उन्नति नहीं कर सके. अन्याय का विरोध नहीं करना या चुप चाप अपमान बर्दाश्त कर लेना आदमी क्या किसी भी प्राणी को शोभा नहीं देता. ख़ैर, तुममें जान-पहचान होने की कोई बात न थी, लेकिन हो गयी, तो अच्छा ही महसूस हुआ. तब हां, पृथ्वी पर ज़ियादा वक़्त बर्बाद करने से कोई फ़ायदा नहीं. मैं जा रहा हूं.”
बंकु बाबू ने कहा, “अच्छा, जाइए, यांग बाबू. आपसे जान-पहचान होने के कारण मैं भी बहुत…”
बंकु बाबू का वाक्य पूरा न हो पाया. पलक गिरते न गिरते यांग कब रॉकेट के अंदर चला गया और कब रॉकेट पंचा घोष के बंसवारी से ऊपर जाकर आंखों से ओझल हो गया. इसका बंकु बाबू को पता तक न चला. सहसा उन्हें प्रतीत हुआ कि झींगुरों ने फिर से बोलना शुरू कर दिया है. रात काफ़ी ढल चुकी है.
घर लौटते वक़्त बंकु बाबू को एक आश्चर्यजनक भाव का बोध हुआ. कितनी बड़ी घटना उनके जीवल में घटित हुई. कुछ क्षण पहले वे उसे ठीक-ठीक समझ नहीं सके थे. कहां सौर जगत का कौन सा ग्रह जिसका नाम तक किसी ने सुना नहीं, उसी ग्रह का एक आदमी-आदमी नहीं बल्कि यांग आकर उससे बातचीत कर गया. कितने अचरज की बात है, कितना अद्भुत. तमाम दुनिया में और किसी दूसरे से नहीं सिर्फ़ उसी से बात-चीत की. उससे यानी, बंकु बिहारी दत्त, कांकूड़गाछी प्राइमरी स्कूल के भूगोल और बांग्ला के शिक्षक से. आज, अभी से अंततः एक अनुभव के सन्दर्भ में, वे सारी दुनिया में अकेले हैं.
बंकु बाबू ने देखा, अब वे चल नहीं रहे हैं बल्कि नाच रहे हैं.
दुसरे दिन रविवार था, श्रीपति बाबू के मकान पर ज़ोर-शोर से अड्डेबाज़ी जमी थी. कल के प्रकाश की ख़बर आज अख़बार में छपी है लेकिन जो कुछ छपा है, नगण्य ही है. बंगाल के मात्र दो-चार स्थानों में वह प्रकाश देखा गया था. इसलिए उसे फ्लाइंग सॉसर या उड़न तश्तरी समझा जा रहा था.
आज अड्डे पर पंचाघोष भी पहुंचे हैं. उसी चालीस बीघे की बंसवारी में जो डबरा है उसके चारों तरफ के बांसों में से दस बांस रातों रात नंगे हो गए हैं. सर्दियों में बांस के पत्ते झड़ते ज़रूर है मगर इस तरह एकाएक ठूंठ हो जान बड़ा ही अस्वाभाविक है. इसी विषय पर बातचीत का दौर चल रहा था कि तभी भैरव चक्रवर्ती ने एकाएक कहा,“आज बंकु को आने में देर क्यों हो रही है?”
बात तो सही है, अब तक किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया था.
निधू मुक्तार ने कहा,“बंकु क्या आज आसानी से इधर आएगा? कल ज़ुबान खोलने के कारण उसकी इतनी दुर्गति हुई थी कि कुछ पूछो मत.”
श्रीपति बाबू ने चिंता के स्वर में कहा “यह कहने से कैसे चलेगा? बंकु का होना ज़रूरी है. राम कन्हाई, तुम जाओ और उसे पकड़ कर यहां ले आओ.”
“चाय पी लूं फिर जाऊंगा”, इतना कहकर राम कन्हाई चाय की प्याली को होठों से लगाने ही जा रहा था कि बंकु बाबू ने कमरे में प्रवेश किया.
‘प्रवेश किया’ कहना ही पर्याप्त नहीं लगता है. मानो तूफ़ान के एक हल्के झोंके ने कमरे में अंदर आकर सबको हैरत में डाल दिया.
उसके बाद तूफ़ान का खेल शुरू हुआ. शुरू में बंकु बाबू ने एक मिनट तक क़हक़हा लगाया- ऐसा क़हक़हा इसके पहले किसी ने कभी सुना न था. ख़ुद बंकु बाबू ने भी न सुना था.
उसके बाद हंसना रोक कर, ज़ोरों से खंखार कर, गंभीर स्वर में कहना शुरू किया: दोस्तों! मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ आपको यह सूचना दे रहा हूं कि इस अड्डे पर मेरा आज का आना आख़िरी आना है. आप लोगों के दल को त्यागने के पूर्व आप लोगों के सामने कुछ शब्द प्रकट करना चाहता हूं और मैं इसी उद्देश्य से यहां आया हूं. नम्बर एक-जो सब पर लागू होता है-आप लोग सभी बेकार की बकवास करते हैं. जिस विषय की जानकारी न हो और उस पर बहुत बोला जाय तो लोग बोलने वाले को बेवक़ूफ़ कहते हैं. नम्बर दो-यह बात मैं चंडीबाबू से कह रहा हूं-आप लोगों को जितनी उम्र हो चुकी है, उस उम्र में दूसरे का छाता-जूता छुपा देना न केवल अन्याय है, बल्कि बचपना भी है. कृपया मेरा छाता और कत्थई कैनवास के जूते कल तक मेरे घर पहुंचा दें. निधु बाबू आप अगर मुझे बांका कहकर पुकारियेगा तो मैं आपको जोका कहकर पुकारूंगा. आपको यह बात समझ लेनी चाहिए. और श्रीपति बाबू आप गणमान्य व्यक्ति हैं आपको मुसाहिबों की ज़रूरत है, मगर आप समझ लें कि मैं उस दल में नहीं हूं. अगर आप कहें तो मैं अपनी पालतू बिल्ली आपके पास भेज सकता हूं. वह बहुत ही अच्छे तरीक़े से पांव चाट सकती है…अरे पंचाबाबू भी आए हैं. आपको भी समाचार दे दूं कल रात कैनियस ग्रह से यांग नाम का व्यक्ति आकर बंसवारी के डबरे में उतरा था. वह आदमी–यांग बड़ा ही भला है.
यह कह कर बंकु बाबू ने अपने बाएं हाथ से भैरव चकवर्ती की पीठ पर एक चपत जमाई और दर्प के साथ कमरे से बाहर निकल आए.
ठीक उसी क्षण राम कन्हाई के हाथ से चाय से भरी प्याली नीचे गिर पड़ी और सभी के कपड़े-लत्ते गर्म चाय से तर हो गए.
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