एक स्वयंसिद्धा स्त्री की कहानी, जो बताती है मज़बूत इरादों से कुछ भी संभव है. हिंदी माह की नई कहानियों की सिरीज़ में आज पढ़ें, रश्मि रविजा की कहानी ‘धूप छांह’.
कुर्सी पर दोनों पैर ऊपर किए सावित्री बैठी थी. सामने थ्रेशर चल रहा था. उड़ते हुए पुआल के कण चारों तरफ़ छा गए थे. सर पर साड़ी लपेटे, मुंह ढंके सावित्री निगरानी कर रही थी. पति-बेटे-बहू सब दरवाज़ा-खिड़की बंद किए घर के अंदर बैठे थे. सावित्री को कोई मलाल नहीं था कि वह अकेली दुआर पर इन भूसे के बादल के बीच बैठी है. वह गेहूं के ढेर को आंखों में भर-भर लेना चाहती थी. कभी एक मुट्ठी गेहूं के लिए उसका परिवार तरसता था. एक रोटी के चार टुकड़े कर बच्चों को खिलाया है और सावित्री ने एक गिलास ठंडा पानी पीकर अपनी जठराग्नि बुझाई है. पतिदेव तो कहीं नशे में धुत्त पड़े होते. जाने क्यूं उसकी ज़िंदगी कभी कड़ी धूप में सुलगती तो कभी ठंडी छांव में सुस्ताती. सावित्री ने हाथ जोड़ माथे से लगा लिया,‘ईश्वर ये छांह बनाए रखना’.
सावित्री के पिता एक सम्पन्न किसान थे. सावित्री अच्छा खाती, अच्छा पहनती और स्कूल पढ़ने जाती. उस पांव में पांचवीं तक ही स्कूल था. सावित्री पढ़ने में तेज़ थी, उसकी बड़ी इच्छा थी, पास के पांव से मैट्रिक तक पढ़ ले. परमेसर बाबू भी तैयार थे, पर पांव की कोई लड़की आगे पढ़ने के लिए तैयार नहीं हुई. अकेली सावित्री स्कूल नहीं जा पाई. कभी-कभी सावित्री सोचती, शायद मैट्रिक पास कर लेती तो उसे वैसे दुःख भरे दिन नहीं देखने पड़ते.
सावित्री ने सोलहवें वसंत में क़दम रखा ही था कि उसके बड़े फूफा जी एक रिश्ता लेकर आए. पास के पांव का इंटर पास लड़का है. बहुत ज़मीन है. माता-पिता की मृत्यु हो गई है. दो बड़े भाई हैं जो शहर में नौकरी करते हैं. लड़के की भी नौकरी लगने वाली है. सावित्री किसी के शासन में नहीं रहेगी, अकेली राज करेगी. पिता लड़के को देख आए. उन्हें सबकुछ पसंद आया और शादी हो गई.
पर ये किसी का शासन नहीं होना ही सावित्री के लिए काल हो गया. माता-पिता की छत्रछाया के बिना रमाकांत बुरी सोहबत में पड़ गया था. दिन भर शराब के नशे में धुत्त रहता. बड़े भाइयों ने दो बार उसकी नौकरी लगाने की कोशिश की पर शराब की आदत के कारण नौकरी से निकाला गया. पांव के धूर्त लोग शराब पिलाकर रमाकांत से खेत गिरवी रखवा लेते, कई बार धोखे से अपने नाम भी करवा लेते. धीरे-धीरे खेत हाथ से निकलते गए, पैदावार कम होती गई और परिवार बढ़ता गया. चार बच्चों से आंगन गुलज़ार हो गया था, पर बच्चों के हंसने-खेलने की जगह रोने की आवाज़ ही ज़्यादा गूंजती. बच्चे भूख से बिलखते रहते और चूल्हा ठंडा पड़ा रहता. बहुत रात बीत जाने पर रमाकांत डोलता हुआ कुछ गाते हुए, झूमते हुए आता और बरामदे में पड़ी खाट पर ढह जाता. दोपहर तक उठता, ठंडी रसोई और ख़ाली बर्तन देख, सावित्री को ही गालियां बकता, बच्चों को मारने दौड़ता और फिर झूमता हुआ शराब के अड्डे की तरफ़ निकल जाता. सावित्री के घर का हाल सारे पांव वाले समझ रहे थे पर घर का मालिक ही बेख़बर था. कभी कोई बहाने से मकई दे जाता, कभी पसेरी भर गेहूं तो कभी धान. पड़ोस के रामखेलावन बाबू का बड़ा परिवार था. उनके यहां बहुत बड़ी बटलोही में भात बनता. उनकी बहू मांड़ पसाती तो जानबूझकर उसमें चावल गिरा देती और फिर पिछले दरवाज़े से सावित्री की बेटी सुमी को आवाज़ लगातीं,‘ये मांड़ जरा गाय को पिला देना’ सुमी लपक कर मांड़ की देगची ले आती और फिर सारे बच्चे कटोरा भर भरकर मांड पीकर पेट भर लेते. सावित्री की आंखों में आंसू आ जाते उसे बचपन में में दाल चावल क्या दूध-दही की भी कमी ना हुई और यहां उसके बच्चों को सूखी रोटी भी नसीब न होती.
अब सावित्री ने सोचा, बच्चों का पेट भरने के लिए उसे कुछ तो करना होगा. पर पांव की बहू, खेतों में काम नहीं कर सकती, घर से बाहर निकल किसी के घर चौका-बासन, कूटनी-पीसनी नहीं कर सकती. घर बैठे आख़िर वह क्या काम करे और उसे रामबिहारी बहू की बात याद आई. उसने बताया था कि रामबिहारी पत्ते और बीड़ी का मसाला लाकर देता है और रामबिहारी बहू बीड़ी बनाती है. सावित्री ने रामबिहारी बहू को बुला भेजा. उसने तो पहले सुन कर कानों पर हाथ रख लिया,‘ ई का कह रहीं हैं मालकिन, एतना ऊंचा जात का होके आप बीड़ी बनाइएगा!’
‘तब का करें, बच्चा सबको लेकर नहर में जाकर कूद जाएं? मालिक का हाल तुमको पता ही है.’ रामबिहारी बहू ने भी उनकी मजबूरी समझी और उन्हें बीड़ी के पत्ते और मसाला लाकर देने लगी. सावित्री दिन भर और देर रात तक जागकर बीड़ी बनाती. शाम को दस वर्ष का अजय कंधे पर झोला टांगकर बीड़ी लेकर बाजार जाता. दुकानवाले को बीड़ी देता और उससे मिले पैसों से आटा ख़रीदकर ले आता. सुमी छोटी बहन मिन्नी के साथ बथुए और चने का साग खोंट लाती. रात में भरपेट रोटी और साग खाकर बच्चे सो जाते. बच्चों के मुख पर सुख की नींद देखकर, सावित्री को परम तृप्ति मिलती.
धीरे-धीरे बच्चे भी बीड़ी बनाने में सहायता करने लगे. पर सावित्री ने बच्चों की पढ़ाई का पूरा ध्यान रखा. उसे पता था, पढ़ाई ही एकमात्र ऐसी कुंजी है, जिसके सहारे भविष्य के सपने के ताले खोले जा सकते हैं. सरकारी स्कूल में फ़ीस तो नहीं लगती पर इम्तहान की फ़ीस लगती थी. सावित्री के पास उतने भी पैसे नहीं होते. इम्तहान शुरू होने वाले थे. सुमी स्कूल जाने को तैयार नहीं. रो रोकर उसका बुरा हाल था कि फ़ीस नहीं जमा की तो इम्तहान में नहीं बैठने दिया जाएगा और वह उसी क्लास में रह जायेगी. अजय, अमर भी उदास से बरामदे का खम्भा पकड़े शून्य में शायद अपने भविष्य का खालीपन देख भयभीत हो रहे थे. सावित्री ने हेडमास्टर साहब को एक चिट्ठी लिखी,‘किसी तरह भी मेरे बच्चों की पढ़ाई जारी रहने दें, उन्हें इम्तहान में बैठने दें. उनके पास एक मात्र सहारा उनकी पढ़ाई ही है.’ हेडमास्टर साहब एक मां की लिखी इस चिट्ठी से इतने प्रभावित हुए कि चारों बच्चों की पढ़ाई का पूरा ध्यान रखा. अब बच्चों की फ़ीस उन्होंने माफ़ की या अपनी जेब से भरी पर बच्चों की पढ़ाई में कोई व्यवधान नहीं आया. बच्चे एक क्लास से दूसरी क्लास में जाते रहे.
सावित्री भी बारबार समझाती, तुमलोग पढ़ लिख लोगे तो भूखे पेट नहीं सोना पड़ेगा. बच्चों को भी आभास हो गया था सिर्फ़ पढ़ाई से ही वे अपनी तक़दीर बदल सकते हैं. पढ़-लिख कर पैसे कमाएंगे तो पांव में कोई उन पर दया नहीं दिखाएगा और पियक्कड़ का बेटा कह कर नहीं चिढ़ाएगा. आठवीं में आते ही दोनों बेटे ट्यूशन लेने लगे, गांव में घूम-घूम कर पढ़ाते. सुमी भी बरामदे में बोरा बिछाकर छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाती. सावित्री पहले की तरह ही बीड़ी बनाती. पर रमाकांत का पीना और बढ़ता जा रहा था. अक्सर देर रात कोई दरवाज़ा खटखटा कर कहता,‘अमुक जगह पीकर गिरे हुए हैं.’ सावित्री बच्चों को उठाती,‘जाकर उठा लाओ.’ दिन भर के थक-मांदे बेटे जाने के लिए तैयार नहीं होते. सावित्री कितना निहोरा करती तब वे जाते. बच्चे पहले पिता से डरते थे, फिर घृणा करने लगे थे और अब शायद उनपर तरस खाते हुए बैलगाड़ी लेकर जाते और उठाकर ले आते.
अब चूल्हे पर रोटी साग की जगह दाल-भात पकने लगा था. पर कपड़ों की अब भी कमी रहती. ठंड के दिनों में दोनों बेटे बिना स्वेटर के एक पतली सी कमीज पहने, दोनों हाथ बगलों में दबाए सी सी करते जब कोहरे के बीच से रात में ट्यूशन पढ़ा कर घर लौटते तो सावित्री का कलेजा मुंह को आ जाता. वो दो दो बोरसी में आग जला कर रखती, दोनों बेटों के हाथ पैरों पर गर्म सरसों तेल की मालिश करती. वह भूल जाती कि उसने भी तो एक पुरानी सूती साड़ी पहन रखी है. अब वो इन सबसे परे चली गई थी, उसे सर्दी-गर्मी नहीं व्यापती.
पास के शहर से बच्चों ने ट्यूशन के सहारे ही कॉलेज भी कर लिया. जिस दिन अजय की डाकखाने में नौकरी लगी, सावित्री पूजा घर में भगवान के चरणों में गिर ही पड़ी. देर तक रोती रही. अजय बड़ी सी हंडिया में रसगुल्ले ले आया था. आंगन में आस-पास के बच्चे जमा हो गए थे. रामखेलावन बाबू के घर के बच्चे भी आ गए थे. सबको अजय रसगुल्ले बांट रहा था. यह पहला मौक़ा था कि उनके घर में भी दूसरों को कुछ परोसा जा रहा था.
छोटे बेटे अमर की मेहनत रंग ला रही थी, उसके पढ़ाए बच्चे बहुत अच्छे नम्बरों से पास हो रहे थे. अमर ने अब घर-घर घूम कर पढ़ाना छोड़ दिया. घर के सामने ही, आम के पेड़ के नीचे, बेंच-डेस्क लगाकर बच्चों को पढ़ाता. अमर का इतना नाम हो गया कि धीरे धीरे आसपास के ही नहीं दूर गांवों से बच्चे भी साइकिल से आने लगे. घर से लगा हुआ एक हॉल बनवाना पड़ा. अब एक एक बैच में पचास से अधिक बच्चे बैठते. अमर स्पीकर लगाकर पढ़ाता. घर की कायापलट हो गई. दोनों भाइयों ने मिलकर दोनों बहनों की अच्छी शादी कर दी. बेटों की भी शादी हो गई. रमाकांत एक बार इतनी ज़ोर से बीमार पड़े कि महीनों बिस्तर पर पड़े रहे. डॉक्टर ने कह दिया,‘शराब ना छोड़ी तो जान से जाएंगे.’ कुत्ते के पिल्ले और चिरई के बच्चे को भी अपने जान की फिकर होती है, ये तो इंसान थे. उन्होंने शराब छोड़ दी. बेटों ने गिरवी रखी ज़मीन छुड़ाई और कुछ नए खेत भी ख़रीदे. रमाकांत अब खेती पर ध्यान देने लगे.
सावित्री अब बीड़ी नहीं बनाती पर उतनी ही व्यस्त रहती. पोते-पोतियों की देखभाल, अनाज बीनना-फटकना-सहेजना. घर के आस-पास की जगह में सब्ज़ियां लगाना. शरीर इस मेहनत से थक जाता पर मन खिला-खिला रहता.
सावित्री का मन इन्हीं पुरानी गलियों में भटक रहा था कि रामदेव की आवाज आई,‘मलकिनी बोरा लाइए ,सब गेहूं दंवा गया.’ सावित्री मानो नींद से जागी, भागकर छत पर से बोरे लाने चली गई . पति और बेटों को भी आवाज़ दी . गेहूं तौल कर बोरियों में भरे जाने लगे. सावित्री भरी भरी आंखों से संतुष्ट मन से देखती रही. शाम हो आई थी, वह पूजाघर में दीपक जलाने चली गई.
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