गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है,‘कर्म कर, फल की चिंता न कर’. पर दुनिया में ज़्यादातर लोग फल मिलने की आशा में ही कर्म करते हैं. कहानी महायज्ञ का पुरस्कार गीता के इस संदेश की सार्थकता बताती है. जब हम बिना फल की आशा में, बिना किसी स्वार्थ या बदले में कुछ पाने की उम्मीद के काम करते हैं, तो एक दिन हमें फल ज़रूर मिलता है. यह कहानी उस सेठ की है, समय ने जिसे ग़रीब बना दिया है. ग़रीबी, तंगहाली की स्थिति में भी वह अपने मानवोचित कर्तव्यों को नहीं भूलता. भूखा रहकर भी एक कुत्ते को अपनी सारी रोटियां खिला देता है.
एक धनी सेठ थे-अत्यंत विनम्र और उदार. धर्मपरायण इतने कि कोई साधु-संत उनके द्वार से निराश न लौटता, भरपेट भोजन पाता. भंडार का द्वार सबके लिए खुला था. जो हाथ पसारे, वही पाए. सेठ ने बहुत से यज्ञ किए थे और दान में न जाने कितना धन दीन-दुखियों में बांट दिया था.
पर,‘सब दिन होत न एक समान’. अकस्मात् दिन फिरे और सेठ को ग़रीबी का मुंह देखना पड़ा. संगी-साथियों ने भी मुंह फेर लिया और नौबत यहां तक आ गई कि सेठ व सेठानी भूखों मरने लगे.
उन दिनों एक प्रथा प्रचलित थी. यज्ञों के फल का क्रय-विक्रय हुआ करता था. छोटा-बड़ा जैसा यज्ञ होता, उनके अनुसार मूल्य मिल जाता. जब बहुत तंगी हुई तो एक दिन सेठानी ने कहा,‘‘न हो तो एक यज्ञ ही बेच डालो!’’
सुनकर पहले तो सेठ बहुत दुखी हुए, पर बाद में अपनी तंगी का विचार कर एक यज्ञ बेचने के लिए तैयार हो गए. सेठ के यहां से दस-बारह कोस की दूरी पर कुंदनपुर नाम का एक नगर था, जिसमें एक बहुत बड़े सेठ रहते थे. लोग उन्हें ‘धन्ना-सेठ’ कहते थे. यह अफ़वाह थी कि उनकी सेठानी को कोई दैवी शक्ति प्राप्त है, जिससे वह तीनों लोकों की बात जान लेती हैं.
धन की उनके पास कोई कमी न थी. विपदग्रस्त सेठ ने उन्हीं के हाथ एक यज्ञ बेचने का विचार किया.
दूर की मंज़िल थी सो-सेठानी जैसे-तैसे पड़ोसी से थोड़ा-सा आटा मांग लाईं और रास्ते के लिए चार मोटी-मोटी रोटियां बना पोटली में बांधकर सेठ को दे दीं. सेठ बड़े तड़के उठे और कुंदनपुर की ओर चल दिए. गर्मी के दिन थे. सेठ ने सोचा कि सूरज निकले, जब तक जितना रास्ता पार कर लूं, उतना ही अच्छा है. यह सोचकर वे ख़ूब तेज़ चले, लेकिन आधा रास्ता पार करते-करते धूप में इतनी तेज़ी आ गई कि चलने में कष्ट होने लगा. पसीने से उनकी सारी देह लथ-पथ हो गई और भूख भी सताने लगी.
सामने वृक्षों का एक कुंज और कुआं देखकर सेठ ने विचार किया कि यहां थोड़ी देर रुककर भोजन और विश्राम कर लेना चाहिए. यह सोच वे उस कुंज की ओर बढ़े. पोटली से लोटा-डोर निकालकर पानी खींचा और हाथ-पैर धोए. उसके बाद एक लोटा पानी ले एक पेड़ के नीचे आ बैठे और खाने के लिए रोटी निकालकर तोड़ने ही वाले थे कि क्या देखते हैं-निकट ही, कोई हाथ भर की दूरी पर, एक कुत्ता पड़ा छटपटा रहा है. बेचारे का पेट कमर से लगा था. सेठ को रोटी खोलते देख वह बार-बार गर्दन उठाता, पर दुर्बलता के कारण उसकी गर्दन गिर जाती थी.
यह देख सेठ का हृदय दया से भर आया,’बेचारे को कई दिन से खाना नहीं मिला दीखता है, तभी तो यह हालत हो गई है.’ सेठ ने एक रोटी उठाई और टुकड़े-टुकड़े कर कुत्ते के सामने डाल दी. कुत्ता भूखा तो था ही, धीरे-धीरे सारी रोटी खा गया. अब उसके शरीर में थोड़ी जान आती दिखाई दी. वह मुंह उठाकर सेठ की ओर देखने लगा. उसकी आंखों में कृतज्ञता थी. सेठ ने सोचा कि एक रोटी इसे और खिला दूं, तो फिर चलने-फिरने योग्य हो जाएगा.
यह सोचकर सेठ ने एक और रोटी टुकड़े-टुकड़े करके उसे खिला दी. दो रोटियां खाने के बाद कुत्ते के शरीर में शक्ति आ गई और वह खिसकता-खिसकता सेठ के समीप आ गया. सेठ ने देखा कि अभी भी वह अच्छी तरह चल नहीं पा रहा है. आसपास कोई बस्ती भी नहीं दिखाई दे रही थी. सेठ ने सोचा, एक रोटी इसे और दे दूं, तो फिर यह अच्छी तरह चल-फिर सकेगा. मेरा क्या है, जैसे दो खाईं वैसे एक. थोड़ी देर में कुंदनपुर पहुंच ही जाऊंगा.
सेठ ने तीसरी रोटी उठाई और कुत्ते को खिला दी. अब एक रोटी बची. उसे लेकर वे स्वयं खाने वाले ही थे कि सेठ ने देखा-कुत्ते की आंखें अब भी उनकी ओर जमी हैं. उन आंखों में करुण याचना है. सहसा सेठ के मुंह से निकला,‘हाय! बेचारा न जाने कितने दिनों से भूखा है.’
उनके मन में आया, मेरा काम तो पानी से भी चल सकता है. इस बेचारे मूक और बेबस जीव को एक रोटी और मिल जाए तो फिर निश्चय ही इसमें इतनी ताक़त आ जाएगी कि किसी बस्ती तक पहुंच सकेगा.
सेठ ने अधिक सोच-विचार नहीं किया और वह अंतिम रोटी भी कुत्ते कोलखिला दी. स्वयं एक लोटा जल पीकर तथा थोड़ा विश्राम करके अपना रास्ता पकड़ा.
दीया जले सेठ कुंदनपुर पहुंचे. सेठ हवेली पर पहुंचे तो धन्ना सेठ ने उठकर उनका स्वागत किया. पूछा,‘‘कहो सेठ! कैसे आना हुआ?’’
सेठ ने कहा,‘‘संकट में हूं और एक यज्ञ आपके हाथ बेचने आया हूं.’’
इतने में धन्ना सेठ की पत्नी ने आकर सेठ को प्रणाम किया और बोली,‘‘जी! यज्ञ ख़रीदने के लिए तो हम तैयार हैं, पर आपको अपना महायज्ञ बेचना होगा.’’
‘‘महायज्ञ!’’ सेठ ने आश्चर्य से कहा.
‘‘हां, वही जो आज आपने किया,’’ धन्ना सेठ की पत्नी ने कहा.
सेठ बड़े आश्चर्य में पड़े-महायज्ञ! और आज! वे समझे कि उनका मज़ाक उड़ाया जा रहा है. विनम्र भाव से बोले,‘‘आप आज की कहती हैं, मैंने तो बरसों से कोई यज्ञ नहीं किया. मेरी स्थिति ही ऐसी नहीं थी.’’
धन्ना सेठ की पत्नी ने गंभीर भाव से कहा,‘‘नहीं सेठ, आज आपने भारी यज्ञ किया है. महाराज! उसे बेचोगे तो हम ख़रीद लेंगे, नहीं तो नहीं.’’
सेठ विस्मित-विमूढ़ हो गए. उन्हें निश्चय हो गया कि इन लोगों को यज्ञ ख़रीदना नहीं है. इसलिए ऐसी बातें की जा रही हैं.
‘‘क्या सोचते हो सेठ? बोलो, राज़ी हो?’’ धन्ना सेठ की पत्नी ने पूछा.
सेठ ने खिन्न होकर कहा,‘‘सेठानी जी, हंसी छोड़िए! काम की बात कीजिए. बरसों से मैंने यज्ञ नहीं किया, आप आज की कहती हैं.’’
सेठानी ने समझाया कि आज रास्ते में स्वयं न खाकर चारों रोटियां भूखे कुत्ते को खिला दीं, यह महायज्ञ नहीं तो और क्या है! यज्ञ कमाने की इच्छा से धन-दौलत लुटाकर किया गया यज्ञ, सच्चा यज्ञ नहीं है, नि:स्वार्थ भाव से किया गया कर्म ही सच्चा यज्ञ-महायज्ञ है. क्या आप इसे बेचने के लिए तैयार हैं?
सेठ मानो आसमान से गिरे. भूखे को अन्न देना सभी का कर्तव्य है. उसमें यज्ञ जैसी क्या बात!
‘‘क्या विचार है सेठ जी, यह यज्ञ बेचना है कि नहीं?’’ सेठानी ने पूछा.
सेठ ने कोई उत्तर नहीं दिया. चुपचाप पोटली उठाई और हवेली से बाहर चले आए. उन्हें मानवोचित कर्तव्य का मूल्य लेना उचित न लगा.
कुंदनपुर की धर्मशाला के चबूतरे पर भूखे पेट जैसे-तैसे रात बिताकर, पौ फटे वहां से चलकर, अगले दिन शाम को सेठ अपने घर आ पहुंचे. सेठानी बड़ी-बड़ी आशाएं लगाए बैठी थीं. सेठ को ख़ाली हाथ वापस आया देख आशंका से कांप उठीं. बोलीं,‘‘क्यों धन्ना सेठ नहीं मिले?’’
सेठ ने आद्योपांत सारी कथा सुनाई. सुनकर सेठानी की सारी वेदना जाने कहां विलीन हो गई. हृदय उल्लसित हो उठा. विपत्ति में भी सेठ ने धर्म नहीं छोड़ा. धन्य हैं मेरे पति! सेठ के चरणों की रज मस्तक पर लगाते हुए बोली,‘‘धीरज रखें, भगवान सब भला करेंगे.’’
रात का अंधकार फैलता जा रहा था. सेठानी उठकर दीया जलाने के लिए दलान में आईं तो रास्ते में किसी चीज़ की ठोकर लगी. गिरते-गिरते बचीं, संभलकर आले तक पहुंचीं और दीया जलाकर नीचे की ओर निगाह डाली तो देखा कि दहलीज़ के सहारे एक पत्थर ऊंचा हो गया है जिसके बीचोंबीच एक लोहे का कुंदा लगा है. इसी कुंदे से उन्होंने ठोकर खाई थी.
शाम तक तो वहां पत्थर बिलकुल उठा भी नहीं था. अब यह अकस्मात् कैसे उठ गया? सेठानी भौचक्की-सी खड़ी रहीं. फिर सेठ को बुलाकर बोलीं,‘‘देखो तो… यह पत्थर यहां कैसे उठ गया?’’
सेठ भी अचरज में पड़ गए. दीए की टिमटिमाती रोशनी में उन्होंने ध्यानपूर्वक देखा तो पता चला कि वह तो किसी चीज़ का ढकना है. आख़िर यह माजरा क्या है? सेठ ने कुंदे को पकड़कर खींचा तो पत्थर उठ आया और अंदर जाने के लिए सीढ़ियां निकल आईं.
सावधानी से सेठ और सेठानी दीया हाथ में लिए उतरे. कुछ सीढ़ियां उतरते ही इतना प्रकाश सामने आया कि उनकी आंखें चौंधियाने लगीं. सेठ ने देखा, वह एक विशाल तहख़ाना है और जवाहरातों से जगमगा रहा है. देव की इस माया का रहस्य उनकी समझ में नहीं आया. दोनों निस्तब्ध खड़े थे. तभी अदृश्य, पर स्पष्ट स्वर में उन्हें सुनाई दिया,‘‘ओ सेठ! स्वयं भूखे रहकर, अपना कर्त्तव्य मानकर प्रसन्नचित तुमने मरणासन्न कुत्ते को चारों रोटियां खिलाकर उसकी जान बचाई, उस महायज्ञ का यह पुरस्कार है.’’
सेठ और सेठानी इस दिव्य वाणी को सुनकर कृतकृत्य हुए. वहीं धरती पर माथा टेककर उन दोनों ने भगवान् के चरणों में प्रणाम किया.
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