बारिश न होने पर कई तरह के टोने-टोटके किए जाते हैं. आपने मेंढक और मेंढकी शादी करानेवाले टोटके के बारे में ज़रूर सुना होगा. वृंदालाल वर्मा की यह कहानी इसी टोटके पर करारा व्यंग्य करती है.
उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी. आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूंद नहीं. आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते. आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गांववालों ने कुछ पत्रों में पढ़ा था कि कलकत्ता-मद्रास की तरफ़ ज़ोर की वर्षा हुई है. लगते आसाढ़ थोड़ा-सा बरसा भी था. आगे भी बरसेगा, इसी आशा में अनाज बो दिया गया था. अनाज जम निकला, फिर हरियाकर सूखने लगा. यदि चार-छः दिन और न बरसा, तो सब समाप्त. यह आशंका उन ज़िलों के गांवों में घर करने लगी थी. लोग व्याकुल थे.
गांवों में समानों की कमी न थी. टोने टोटके, धूप-दीप, सभी-कुछ किया, लेकिन कुछ न हुआ. एक गांव का पुराना चतुर नावता बड़ी सूझ-बूझ का था. अधाई पर उसने बैठक करवायी. कहां क्या किया गया है, थोड़ी देर इस पर चर्चा चली. नावते ने अवसर पाकर कहा,“इन्द्र वर्षा के देवता है, उन्हें प्रसन्न करना पड़ेगा.”
“सभी तरह के उपाय कर लिए गए हैं. कोई गांव ऐसा नहीं है, जहां कुछ न कुछ न किया गया हो. पर अभी तक हुआ कुछ भी नहीं है.”
बहुत-से लोगों ने तरह-तरह से कहा और उन गांवों के नाम लिए, होम-हवन, सत्यनारायण कथा, बकरों-मुर्ग़ों का बलिदान, इत्यादि किसी-किसी ने फिर सुझाए; परन्तु नावते की एक नई सूझ अन्त में सबको माननी पड़ी.
नावते ने कहा,“बरसात में ही मेंढक क्यों इतना बोलते हैं? क्यों इतने बढ़ जाते हैं? कभी किसी ने सोचा? इन्द्र वर्षा के देवता हैं, सब जानते हैं. पानी की झड़ी के साथ मेंढक बरसते हैं, सो क्यों? कोई किरानी कह देगा कि मेंढक नहीं बरसते. बिलकुल ग़लत. मैंने ख़ुद बरसते देखा है. बड़ी नांद या किसी बड़े बर्तन को बरसात में खुली जगह रख के देख लो. सांझ के समय रख दी, सवेरे बर्तन में छोटे-छोटे मेंढक मिल जाएंगे. बात यह है कि इन्द्र देवता को मेंढक बहुत प्यारे हैं. वे जो रट लगाते हैं, तो इन्द्र का जय-जयकार करते हैं.”
अथाई पर बैठे लोग मुंह ताक रहे थे कि नावते जी अन्त में क्या कहते हैं. नावता अन्त में बहुत आश्वासन के साथ बोला,“मेंढक-मेंढकी का ब्याह करा दो. पानी न बरसे, तो मेरी नाक काट डालना.”
मेंढक-मेढकी का ब्याह! कुछ के ओंठों पर हंसी झलकने को हुई, परन्तु अनुभवी नावते की गम्भीर शक्ल देखकर हंसी उभर न पायी. एक ने पूछा,“कैसे क्या होगा उसमें? मेंढकी के ब्याह की विधि तो बतलाओ, दादा.”
नावते ने विधि बतलायी,“वैसे ही करो मेंढक-मेढकी का ब्याह, जैसे अपने यहां लड़के-लड़की का होता है. सगाई, फलदान, सगुन, तिलक, आतिशबाज़ी, भावर, ज्योनार, सब धूम-धाम के साथ हो, तभी इन्द्रदेव प्रसन्न होंगे.”
लोगों ने आकाश की ओर देखा. तारे टिमटिमा रहे थे. बादल का धब्बा भी वहां न था. पानी न बरसा तो मर मिटेंगे. ढोरों-बैलों का क्या होगा? बढ़ी हुई निराशा ने उन सबको भयभीत कर दिया. लोगों ने नावते की बात स्वीकार कर ली.
चन्दा किया गया. आस-पास के गांवों में भी सूचना भेजी गई. कुतूहल उमगा और भय ने भी अपना काम किया. यदि नावते के सुझाव को ठुकरा दिया, तो सम्भव है, इन्द्रदेव और भी नाराज़ हो जाएं? फिर? फिर क्या होगा? चौपट! सब तरफ़ बंटाधार! आस-पास के गांवों ने भी मान लिया. काफ़ी चन्दा थोड़े ही समय में हो गया.
नावते ने एक जोड़ी मेंढक भी कहीं से पकड़कर रख लिए. एक मेंढक था, एक मेंढकी. ब्राह्मणों की कमी नहीं थी. ब्याह की घूम-धाम का मज़ा और ऊपर से दान-दक्षिणा. गांव के दो भले आदमी मेंढक-मेढकी के पिता भी बन गए. मुहूर्त शोधा गया-जल्दी का मुहूर्त! बाजे-गाजे के साथ फलदान, सगुन की रस्में अदा की गईं. दोनों के घर दावत-पंगत हुई. मेंढक-मेंढकी नावते के ही पास थे. वही उन्हें खिला-पिला रहा था. अन्यत्र हटाकर उनके मरने-जीने की जोखिम कौन ले?
तिलक-भावर का भी दिन आया. पानी के एक बर्तन में मेंढकी उस घर में रख दी गई, जिसके स्वामी को कन्यादान करना था. उसने सोचा,“हो सकता है, पानी बरस पड़े. कन्यादान का पुण्य तो मिलेगा ही.”
मेंढक दूल्हा पालकी में बिठलाया गया. रखा गया बांधकर. उछल कर कहीं चल देता, तो सारा कार-बार ठप हो जाता. आतिशबाज़ी भी की गई, और बड़े पैमाने पर. एक तो, आतिशबाज़ी के बिना ब्याह क्या? दूसरे, अगर पिछले साल किसी ने आतिशबाज़ी पर एक रुपया फूंका था, तो इस साल कम से कम सवा का धुआं तो उड़ाना ही चाहिए.
तिलक हुआ. जैसे ही मेंढक के माथे पर चन्दन लगाने के लिए ब्राह्मण ने हाथ बढ़ाया कि मेंढक उछला. ब्राह्मण डर के मारे पीछे हट गया. ख़ैरियत हुई कि मेंढक एक पक्के डोरे से बर्तन में बंधा था, नहीं तो उसकी पकड़-धकड़ में मुहूर्त चूक जाता. कुछ लोग मेंढक की उछल-कूद पर हंस पड़े. कुछ ने ब्राह्मण को फटकारा,“डरते हो? दक्षिणा मिलेगी, पण्डित जी! करो तिलक.”
पण्डित जी ने साहस बटोरकर मेंढक के ऊपर चन्दन छिड़क दिया. फिर पड़ी भावर. एक पट्ट पर मेंढक बांधा गया, दूसरे पर मेंढकी. दोनों ने टर्र-टर्र शुरू की. नावता बोला, “ये एक-दूसरे से ब्याह करने की चर्चा कर रहे हैं.”
ब्राह्मणों ने भावरें पढ़ीं और पढ़वायीं. फिर दावत-पंगत हुई. मेंढकी की विदाई हुई. मेंढक के पिता जी को दहेज भी मिला. मनुष्यों के विवाह में दहेज दिया जाए, तो मेंढक-मेंढकी के विवाह में ही क्यों हाथ सिकोड़ा जाए? पानी बरसे या न बरसे, मेंढक के पिता जी बहरहाल कुछ से कुछ तो हो ही गए. नावता दादा की अंटी में भी रकम पहुंची और इन्द्रदेव ने भी कृपा की.
बादल आए, छाए और गड़गड़ाए, फिर बरसा मूसलाधार. लोग हर्ष मग्न हो गए. नावते की धाक बैठ गई, कहता फिर रहा था,“मेरी बात ख़ाली तो नहीं गई! इन्द्रदेव प्रसन्न हो गए न.”
पानी बरसा और इतना बरसा कि रुकने का नाम न ले रहा था. नाले चढ़े, नदियों में बाढ़ें आयीं. पोखरे और तालाब उमड़ उठे. कुछ तालाबों के बांध टूट गए. खेतों में पानी भर गया. सड़कें कट गईं. गांवों में पानी तरंगें लेने लगा. जनता और उसके ढोर डूबने-उतराने लगे. बहुत से तो मर भी गए. सम्पति की भारी हानि हो गई. आठ-दस दिन के भीतर ही भीषण बर्बादी हुई. इन्द्रदेव के बहुत हाथ-पैर जोड़े. वह न माने, न माने. लोग कह रहे थे कि इससे तो वह सूखा ही अच्छा था.
फिर नावते की शरण पकड़ी गई अब क्या हो? उसका नुस्ख़ा तैयार था. बोला,“कोई बात नहीं. सरकार ने तलाक़-क़ानून पास कर दिया है. मेंढक-मेंढकी की तलाक़ कराए देता हूं. पानी बन्द हो जाएगा.”
“पर मेंढकों का वह जोड़ा कहां मिलेगा?” लोगों ने प्रश्न किया.
नावते का उत्तर उसकी जेब में ही था. उसने चट से कहा,“मेरे पास है.”
“कहां से आया? कैसे?” प्रश्न हुआ.
उत्तर था,“मेंढक के पिता के घर से दोनों को ले आया था. जानता था कि शायद अटक न जाए.”
पानी बरसते में ही तलाक़ की कार्रवाई जल्दी-जल्दी की गई. तलाक़ की क्रिया के निभाने में न तो अधिक समय लगना था और न कुछ वैसा ख़र्चा. मेंढक-मेंढकी दोनों छोड़ दिए गए. दोनों उछलकर इधर-उधर हो गए.
परन्तु पानी का बरसना बंद न हुआ. बाढ़ पर बाढ़ और जनता के कष्टों का वारापार नहीं.
गांव छोड़-छोड़कर लोग इधर-उधर भाग रहे थे. एक-दो के मन में आया कि नावता मिल जाए, तो उसका सर फोड़ डालें. परन्तु नावता कहीं नौ-दो-ग्यारह हो गया.
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