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रक्षा: इतिहास के पन्नों से एक अनूठी कहानी (लेखक: वृंदावनलाल वर्मा)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
January 9, 2024
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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रक्षा: इतिहास के पन्नों से एक अनूठी कहानी (लेखक: वृंदावनलाल वर्मा)
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यह मुग़ल शासन के आख़िरी सालों की कहानी है. जब बादशाह बनने के लिए अपने शौर्य के साथ दूसरे ताक़तवर लोगों की मदद की ज़रूरत पड़ती थी. भले ही समाज में हिंदू-मुलमान का भेद था, पर समाज के समृद्ध लोग तब भी एक-दूसरे की मदद किया करते थे.

मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था. 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था. सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया. निजाम वजीर हुआ और उसने विदेशियों की प्रेरणा से, क्योंकि औरंगजेब के बाद भी इनमें कट्टरपन के आदर्शों की श्रद्धा बाक़ी थी और यहां के हिंदू मुसलमानों के प्रति सहानुभूति नहीं रखते थे, जजिया फिर जारी करवाने की कोशिश की. राजा जयसिंह इत्यादि के हिंदुस्तानी दल के विरोध के कारण जजिया की नीति व्यवहार में नहीं लाई जा सकी – एक छदाम भी वसूल नहीं किया जा सका होगा. विदेशी दल ने अपनी बान छोड़ दी हो, सो नहीं हुआ. वह किसी अच्छे युग के आने की प्रतीक्षा में था. हिंदुस्तानी दल इतना मजबूत बन चुका था कि निजाम को मुंह की खानी पड़ी. कोकीजू ने उसके विरुद्ध इतने षड्यंत्र तैयार किए कि निजाम को परेशान होकर वजीर पद त्यागना पड़ा और ‘दक्खिन’ की सूबेदारी तथा अपने लिए नई सल्तनत स्थापित करने की महत्वाकांक्षा लेकर एक बड़ी सेना के साथ वह दक्षिण चला गया. परंतु संतुलन बनाए रखने के लिए मुहम्मदशाह ने विदेशी दल के दूसरे मुखिया कमरुद्दीन को वजीर बना दिया. कोकीजू को तरह देनी पड़ी. औरंगजेबी सवारों इत्यादि में ही नहीं-बहुत से रोजगारियों में भी, और अधिक गरमागरमी के साथ. दिल्ली के बहुसंख्यक जूताफरोश और कसाई इनमें प्रमुख थे. रोजगार में श्रम और लगन के कारण इनके पास काफी धन हो गया था. संगठित भी थे. धर्म के बाहरी रूपों का नियमानुसार अनुशीलन करते-करते, विदेशी दल की राजनीतिक वृत्तियों के आवरण में, उनका मन छिपे बारूदखानों की तरह का हो गया था. बादशाह मुहम्मदशाह और उसके दरबार की रंगरेलियों, मजहब की तरफ़ से लापरवाही और कठमुल्लों के अपमानों ने उस बारूदखाने के बारूद को काफी सूखा रख छोड़ा था. केवल एक चिनगारी की ज़रूरत थी.
शाही जुमा (जामा) मसजिद के पेश इमाम की जगह खाली हुई. वजीर ने विदेशी दल के एक कट्टर मुल्ला को नियुक्त कराने की कोशिश की. परंतु वह सफल न हो सका.
हिंदुस्तानी दल का एक मुल्ला राजा शुभकर्ण की मारफत हाफिज खिदमतगार ख़ां के पास पहुंचा. हाफिज ने रौशनुद्दौला को पकड़ा. रौशनद्दौला और सवाई जयसिंह ने कोकीजू को. बिना ख़र्च किए वह मुल्ला पेश इमाम मुकर्रर हो गया.
वजीर को दुहरी चोट लगी-अपना आदमी पेश इमाम न बन सका और जो कुछ हाथ लगने वाला था, न लगा. इतने प्रभावशाली स्थान में अपने आदमी का न रख पाना आगे चलकर बहुत हानि पहुंचा सकता है, उसे यह खटक रहा था.
विदेशी दल को बड़ी ठेस लगी. अब तो हिंदू पेश इमाम की नियुक्ति में भी हाथ डालने लगे हैं! ये ही लोग तो बादशाह को बिगाड़े हुए हैं-ये ही उसे सुरा और सुंदरी के जाल में फांसे हुए हैं! उसे मस्त रखकर बादशाह के कर्तव्यों का पालन नहीं करने देते! हमें पनपने न देंगे! दीन को खतरे में धकेल रहे हैं और पठानों को बुद्धू बनाए हुए हैं.
उनके विचार में जजिया के कारण हिंदू और मुसलमान के बीच एक बड़ी राजनीतिक पहचान थी, वह भी ख़त्म कर दी गई. महत्वपूर्ण भेद का एकमात्र साधन ग़ायब हो गया. कयामत आने में कसर ही क्या रह गई!
दीन को संकट में पड़ा देखने की वृत्तिवाले कुछ इसी प्रकार सोचते थे. जनता का संपर्क प्राप्त न होने के कारण शासन निकृष्ट हो ही गया था, इस प्रकार के लोगों का उद्वेग पुष्ट और विस्तृत होता चला गया.
***
उस दिन संध्या होने में थोड़ी ही देर थी. हवा बहुत मंद थी. यमुना की धार तेज थी. अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें उसके साथ मचल-मचलकर खेल रही थीं-किरणों को मानो प्रवाह की उस गति की कोई परवाह ही न हो. सूर्य के ऊपर क्षितिज में रीने-झीने बादल थे. लगता था जैसे तपे हुए सोने के कण समेटे मुसकरा रहे हों. जाड़ा जा रहा था. गरमी आ रही थी. फिर भी सांझ के समय ठंडक थी-वसंत के फूलों की सुगंधि से बसी हुई ठंडक. दिल्ली नगर के बड़े मार्गों पर आने जानेवालों का घना बिखरा तांता था. धूल उड़ रही थी. सुगंधि उसके कणों को भी नहीं भूल रही थी. ‘शाबान’ का महीना था. शबरात का त्योहार आने वाला था.
सूर्यास्त हो चुका था. त्योहार के आने की ख़ुशी में जगह-जगह दिए जला दिए गए थे-जैसे दीपावली के अवसर पर हिंदू करते आए हैं. लड़के उस त्योहार की अगवानी में अग्रसर थे. मुसलमान और हिंदू लड़के दोनों मिलकर सादुल्लाख़ां के चौक में पटाखे छुड़ा रहे थे. हवा कुछ तेज हुई. पटाखों की चिनगारियां इधर-उधर उड़ने लगीं.
जूताफरोशों की दुकानें दोनों तरफ़ थीं, दूर-दूर तक. दुकानें बड़ी-बड़ी थीं और छोटी भी.
एक दुकानदार ने छोकरों को डांटा, ‘अरे ओ बदमाशों! दुकान से ज़रा हटकर. गंधक के धुएं की बू से हमारी दुकान भर गई है और दिमाग फटा जा रहा है. इसके सिवाय दुकान में आग लगने का भी डर है.’ दुकानदार दुकान में ही बैठा रहा.
‘ओहो!’ एक हिंदू बालक ने मुंह बिचकाकर चुनौती दी, ‘जूतों के दुकान में आग कैसे लग जाएगी?’
‘एक और छुड़ा लेने दीजिए. अच्छा लग रहा है. एक-दो पटाखों से कहीं दुकान में धुआं भरते सुना है! हिंदू लड़के से कम उम्र के एक मुसलमान बच्चे ने घिघियाते स्वर और शरारत भरी आंखों से कहा.’
हिंदू और मुसलमान बालकों ने धड़ाम-धड़ाम दो पटाखे छुड़ा दिए. दुकानदार ने रूमाल से नाक दबोच ली और त्योरी सिकोड़ ली. दो छोकरे वहां और सिमट आए. उन्होंने भी पटाखे छोड़े. वे सब दस-दस, बारह-बारह साल के होंगे. दुकानदार के मन में आया, सबों के कान मल दूं; परंतु था असंभव. सोचा की छोकरों की आंधी जल्दी किसी दूसरी दिशा में रुख फेर लेगी, रह गया. कुछ लड़के और इकट्ठे हुए – हिंदू-मुसलमान घुले-मिले से. वहां से ज़रा दूर हटकर पटाखे छोड़ने लगे. पास ही एक झकोला चारपाई पर, जूतों की एक दुकान के पास, एक बुड्ढा तसबीह (माला) लिए मन-ही-मन कुछ जाप कर रहा था. उसके ओठ बिरबिरा रहे थे, स्वर नहीं फूट रहा था. लड़कों के हो हल्ले के मारे परेशान होकर बूड्ढे ने माला चारपाई के एक कोने पर रख दी और चिल्लाकर कहा, ‘कमबख्तो! क्यों ज़मीन सिर पर उठाए फिरते हो? आता हूं एक-एक की गरदन न मरोड़ी तो बात काहे की!’
बड़े मियां को चारपाई से उठते देखकर हिंदू लड़के ज़रा पीछे हटे, परंतु मुसलमान लड़के डटे रहे. इनमें से एक ने अपने साथी हिंदू बालक से धीरे से कहा, ‘अमां, भागते क्यों हो? हाजीजी दाढ़ी हिलाकर अभी जहां के तहां बैठे जाते हैं.’
बड़े मियां ने यह आदर वाक्य सुन लिया. लपके. छोकरे ज़रा दूर भागकर फिर खड़े हो गए. बड़े मियां ने कुढ़कर कहा, ‘ससुरों! भाग गए, नहीं तो कान उखाड़े बगैर न मानता.’
लड़कों ने शोर किया और बीच रास्ते में पटाखे छोड़े. बुड्ढा फिर अपनी झकुलिया पर जा बैठा और माला के गुरिए फेरने लगा.
उसी समय किले की ओर से एक पालकी आती हुई दिखलाई पड़ी. चार-पांच सिपाही उसकी अगल-बगल थे. सिपाही ‘हटो, बचो’ कहते हुए पालकी के साथ तेज चाल से चले आ रहे थे.
‘अब देखूं,’ हाजी क्षुब्ध स्वर में बोला, ‘इन सिपाहियों के पास पटाखे छुड़ाओ – इतने बेभाव पिटोगे कि याद करोगे.’
एक हिंदू बालक ने जवाब दिया, ‘अभी लीजिए, हाजीजी. देखूं, सिपाही हम लोगों को कैसे छूते हैं! मुसमान बालकों ने अपने साथी हिंदू बालक का संकेत में समर्थन किया और कहा, ‘एक नही, चार छह छुड़ाएंगे, अभी लीजिए.’
हाजी ने भर्राए स्वर में निवारण किया, ‘ऐसा मत करियो रे, किसी बड़े आदमी की सवारी है.’
‘होगी,’ हिंदू बालक ने उत्तेजित होकर कहा, ‘शबरात के पटाखों को कोई नहीं रोक सकता.’
‘मरो शैतानों,’ हाजी ने क्रुद्ध स्वर में दुआ दी और आंखें मूंदकर माला फेरने लगा.
पालकी के पास आते-आते छोकरों ने एक-दो-तीन पटाखे फोड़ दिए. पालकी की चाल धीमी पड़ गई. एक हिंदू बालक पालकी रक्षक सिपाहियों के सामने पड़ गया. सिपाही ने उसकी पीठ पर धौल जमा दी. बालक चीखा. अन्य बालकों ने रौरा मचाया. पालकी की गति और धीमी पड़ी. सिपाहियों ने और कई बालकों पर तमाचे जड़े. हाजी ने चारपाई पर बैठे-बैठे मना किया. लड़कों को बचाने के लिए दो-तीन दुकानदार उतर आए. सिपाहियों को मना कर दूर से ही बीच-बचाव करने लगे. इतने में एक हिंदू ने सुर्रू और बिछुए में आग लगाई और पालकी के पास छोड़ दिया. बिछुआ फिरकी खाकर उचटा. उसके बड़े-बड़े परे पालकी में बैठे हुए रईस के दरबारी लिबास पर जा पड़े.
पालकी में बैठा रईस राजा शुभकर्ण था. वह इस समय हाफिज खिदमतगार ख़ां की हवेली से लौट रहा था. बादशाह के बख्शे हुए लिबास पर हाफिज की दुआ भी थोड़ी ही देर पहले पाई थी. उसी लिबास पर बिछुए के परे ने चमककर छेद कर दिया. चिनगारी उसके शरीर को भी छू गई. उसने तुरंत गदेली से मलकर बुझाया और देह के उस अंग को रगड़ा. छेद बड़ा न था और न देह का अंग ज़्यादा जला ही था; परंतु जिस कपड़े में छेद हो गया था, वह बादशाह का बख्शा हुआ था और उसका पहननेवाला पालकी में बैठा हुआ राजा था. लड़कों की बदमाशी सही ही कैसे जा सकती थी. शुभकर्ण को क्रोध आ गया. पालकी खड़ी हो गई. सिपाहियों से उसने कहा, ‘सालों के दांत तोड़ दो! शाहंशाह के बख्शे हुए सिरोपाव में आग लगा दी है!’
फिर क्या था, सिपाहियों ने बिना किसी भेदभाव के कई हिंदू-मुसलमान बालकों को, जो उनके घेरे में से भागकर नहीं निकल पाए थे, मरम्मत शुरू कर दी.
उन लड़कों की मारपीट में, शाबान के महीने का और आनेवाली शबरात का अपमान होता हुआ समझकर कई जूताफरोश दुकानें छोड़-छोड़कर शुभकर्ण से प्रतिवाद करने और उन बालकों को बचाने के लिए दौड़ पड़े. उन लोगों के दौड़ पड़ने और प्रतिवाद करने पर भी सिपाहियों के हाथ नहीं रुके.
क्षुब्ध स्वर में शुभकर्ण चिल्लाया, ‘आप लोगों को शरम आनी चाहिए. इन छोकरों को इतना आवारा कर दिया है. क्या इन लौंडों को आप यही तालीम देते रहते हैं? इन बेहूदों ने हमारा दरबारी लिबास जला दिया है!’
एक दुकान से दूसरी दुकान की रोशनी लहरा-लहराकर सड़क पर खड़े उन लोगों की छाया को हिला-डुला रही थी; मानो एक छाया दूसरी से गुंथ जाना चाहती हो.
‘उसमें पैबंद लगवा लीजिएगा,’ एक दुकानदार ज़रा दूर से बोला, ‘ज़रा-ज़रा से बच्चों को इस तरह तो नहीं पीटा जाता. क्या ये सिपाही इन बच्चों को मार डालने के लिए तैनात किए गए हैं?’
भीड़ के लोगों में से कुछ ने ताका, देखें पालकी में कौन है. राजा शुभकर्ण को पहचान लिया.
एक सिपाही ने फटकारा – ‘चुप रहो, बेहया कहीं के!’
‘ओ हो हो!’ दुकानदारों की भीड़ में से एक बौखलाया – ‘जवानों से मुकाबला पड़े तब तुम्हारी हया और बहादुरी की जांच हो.’
शुभकर्ण को पहचानते ही भीड़ में गरमी आ गई थी.
शुभकर्ण और उसके सिपाही और भी उत्तजित हो गए. बीच-बचाव के लिए दुकानदारों के आने पर कुछ बच्चे सिपाहियों के घेरे से निकल भागे. उन्होंने सिपाहियों पर धूल फेंकी. अब आया सिपाहियों को बहुत तैश. एक सिपाही के कुछ अधिक निकट एक बालक आ गया था. सिपाही पकड़ने के लिए झपटा. कुछ दुकानदार बीच में आ गए. सिपाही ने एक दुकानदार की हिलती हुई दाढ़ी पकड़कर उसके मुंह पर तमाचा जड़ दिया. दूसरे दुकानदार उस सिपाही से चिपट गए. सिपाही हथियारबंद था. परंतु हथियार का उपयोग नहीं कर पा रहा था. दुकानदारों की भीड़ बढ़ी. वे सिपाहियों पर टूट पड़े. एक सिपाही के अंग-अंग पर मार पड़ी और भीड़ ने उसके हथियार छीन लिए. सिपाही गाली-गलौज कर रहे थे. दुकानदारों का हुल्लड़ और भी अधिक उत्साह और उद्वेग के साथ जवाब दे रहा था. शुभकर्ण की पालकी के कहार अधीर हो उठे, घबरा गए. शुभकर्ण ने भी देखा कि और अधिक ठहरने में कुशल नहीं. कहारों को चल पड़ने का आदेश दिया. वे तो चाहते ही थे. दौड़ पड़े. सिपाही भी हाथ-पैर चलाते, कुटते-पिटते जान छुड़ाकर वहां से भागे. वे अपने हथियार बचा ले गए. चला एक भी नहीं पाया, क्योंकि भीड़ बहुत बढ़ गई थी. भीड़ ने ताने मारते हुए थोड़ी दूर तक पीछा किया, फिर लौट पड़ी.
शुभकर्ण की हवेली जौहरी बाजार के पीछे थी. रात हो ही गई थी, हवेली पर पहुंचते-पहुंचते देर लग गई. झगड़े का समाचार वहां पहले ही आ गया था. उसके सिपाही-संख्या उनकी थोड़ी ही थी-लड़ने के लिए तैयार हो गए थे; परंतु हवेली को अरक्षित नहीं छोड़ सकते थे. शुभकर्ण की प्रतीक्षा में थे. उन्हें देखकर शुभकर्ण के भीतर अपमान की स्मृति और भी नुकीली हो गई. वह क्रोध के मारे कांप रहा था. सिपाहियों में हिंदू-मुसलमान दोनों थे. जब उन्होंने अपने उन साथियों की दुर्गति का ब्योरा उन्हीं की जुबानी सुना और उनका फटा हाल देखा तो बहुत उत्तेजित हुए.
जैसे ही शुभकर्ण हवेली के भीतर पहुंचा, वे सब उसके पास इकट्ठे हो गए. चुप थे, परंतु सांसों की फुफकारें और चेहरों की सुकड़ने काफी बोल रही थीं.
‘इन हरामजादे जूताफरोसों को सजा दूंगा,’ शुभकर्ण ने चिल्लाकर कहा.
जिस सिपाही के हथियार छीन गए थे उसका गला रुद्ध था, बदन सूजा हुआ और माथे की नसें तनी हुईं. कठिनाई के साथ उसने अपने स्वामी का भाव प्रतिध्वनित किया,‘मैं मुंह दिखलाने लायक नहीं रहा.’
शुभकर्ण ने आवेश के साथ आदेश दिया, ‘कभी नहीं. अभी जाकर उन बदमाशों को चुन-चुनकर सजा दो. जितने सिपाही चाहो, साथ ले जाओ. जितनों को पकड़ सको, पकड़ो और कोतवाल साहब के हवाले कर दो. कल उनकी पीठ तुड़वाऊंगा.’
राजा के हथियारबंद सिपाही तुरंत चौक सादुल्लाख़ां की ओर दौड़ पड़े. सिपाहियों के मन में बदला लेने की भावना थी ही, अपने स्वामी के आदेश का और उसके अनेक अर्थों का पूरी तरह से पालन करने का संकल्प कर लिया. दूरदर्शिता और समझ-बूझ गांठ में रह ही कहां सकती थी.
छोकरे अब भी टोलियां बांधे इधर-उधर घूम रहे थे. पटाखे बहुत कम छुड़ाए जा रहे थे. दुकानदार गर्वोन्मत थे और दो-दो चार-चार के समूहों में बंटकर अपने किए और न किए की शूरता का बखान कर रहे थे.
शुभकर्ण के सिपाहियों की उस छोटी सी भीड़ के आते ही छोकरे नौ दो ग्यारह हो गए. केवल एक बच्चा सिपाहियों की भीड़ में बींध गया. बच्चा हिंदू का था.
‘यही है, यही तो है. मारो साले को!’
‘मैं नहीं था, मैं नहीं था,’ बच्चे ने बिलखते हुए कहा, ‘पटाखे छुड़ाने वाले तो भाग गए, मैं तो तमाशा देख रहा था.’
भीड़ चाहे सिपाहियों की हो, चाहे जनता की, जब उत्तेजित हो जाती है तो उसके भीतर की आग बाहर लपटें फेंकने लगती है. सिपाहियों ने एक न सुनी. उस बच्चे को कुछ ही क्षण में इतना पीटा, इतना पीटा कि वह मृतप्राय हो गया. फिर भी उसका पिटना बंद न हुआ.
टूटी सी खटिया पर वह हाजी अब भी बैठा था. माला अब भी फेर रहा था. उससे बालक का पिटना और क्रंदन न देखा गया. तुरंत माला एक तरफ़ रखकर नंगे पांव दौड़ा आया. और पिटते बच्चे से लिपट गया. उसकी दाढ़ी और हाथों ने बच्चे को छिपा लिया.
सिपाही क्रोध में पागल हो चुके थे. बुद्धि नष्ट हो चुकी थी. एक सिपाही ने तलवार खींचकर वार किया. हाजी पर हाथ पूरा बैठा. वह तुरंत मर गया. बच्चा उसकी लाश के नीचे सिसक रहा था.
ख़ून बहाने के बाद अधिकांश व्यक्ति अपना क्रोध पी जाते हैं. सिपाहियों ने देखा, ज़रूरत से ज़्यादा आगे बढ़ गए. जोश पर ठंडक का दौर आया. उधर कुछ जूताफरोश हथियार लेकर उन पर आ टूटने के लिए दौड़े आ रहे थे. सिपाही अविलंब शुभकर्ण की हवेली की ओर भागे – जूताफरोशों के मुक़ाबले में थे भी थोड़े. उन लोगों ने सिपाहियों का पीछा नहीं किया. भागते हुए सिपाहियों की परछाइयां दुकानों के शमादानों की लहराती रोशनी में अधिक चंचल लग रही थीं. उन्हें हाजी की देखभाल की अधिक चिंता न थी.
शुभकर्ण के क्रोध ने हाजी के वध की बात सुनकर ठंडक पाई, इतनी कि कलेजा ज़रा नीचे को धसक आया. राजा को सन्नाटे में देखकर सिपाही बोला, ‘हुजूर, उसी ने हमारे हथियार छिनवाए थे.’
ऐसे दंगे के अवसर पर लोगों की स्मृति इधर-उधर हो जाती है. राजा को केवल एक बात कोंच रही थी. बोला, ‘मगर वह हाजी था.’
‘नहीं, हुजूर वह पाजी था.’ सिपाही ने कहा. वह पछतावे की मुद्रा में नहीं था. और फिर जो कुछ किया, मालिक के हुक्म से ही तो किया. सिपाही हांफ रहा था.
शुभकर्ण ने कुछ सोचकर कहा, ‘तलवार का ख़ून पोंछ डालो. अगर कोई पूछे तो इनकार कर देना, न मालूम किसने मारा. कोई पहचान तो नहीं पाया होगा?’
‘नहीं सरकार.’
‘दिल्ली में रोज ऐसे ही दंगे-फसाद होते रहते और जब तब आदमी आदमी रास्तों पर कट मरते हैं. समझ गए?’ शुभकर्ण को उस समय यही समाधान सूझा..
सिपाहियों ने सिर हिलाकर हामी भरी. शुभकर्ण ने एक सुझाव और दिया, ‘तुम लोग हथियारों से लैस अपनी-अपनी जगह कमर कसकर तैयार रहो. मैं खाना-वाना खाकर ख़ां साहब नवाब शेर अफ़गान के पास जाऊंगा. कोई बड़ी बात नहीं, कुछ हुआ तो मामला ठंडा हो जाएगा. डर की कोई बात नहीं.’ परंतु उसके मन में उठ रहा था कि बहुत बड़ी बात हो गई है, मामला शायद देर में शांत हो पावे.’
उसकी पत्नी देवकी को बहुत कुछ हाल मालूम हो गया था. खाना खिलाते समय उसने कहा, ‘बात ज़रा आगे बढ़ गई है,’ और वह शुभकर्ण को पैनी दृष्टि से देखने लगी. थोड़ी सी कातर भी थी.
शुभकर्ण के मन में भी ‘बात ज़रा बढ़ सी गई है’ बार-बार उठ रहा था और वह सोच रहा था कि कोई-न-कोई कठिनाई आएगी. उसका हल निकालने में व्यस्त था. हल निकालने के लिए उसकी कल्पना जहां से चली थी उसी स्थान पर जा पहुंची. बोला, ‘हो, परंतु मेरे सिपाहियों का दोष नहीं है.’
‘जो होनहार है वह तो होकर ही रहता है. सिपाहियों को चौक की तरफ़ न भेजते तो अच्छा होता.’
शुभकर्ण जो कुछ अपने मिलनेवालों से कहता, वह देवकी से कहा, ‘फिर क्या करता? वह सब यों ही पी जाता?’
‘नहीं तो, अपमान बहुत हुआ है. ऐसे अवसर पर सब बेकाबू हो जाते हैं. क्या करना चाहिए था, यह तो अब सोच-विचार की बात नहीं है. क्या करना चाहिए, इसे जल्दी तय करना पड़ेगा!’
‘खाना खाकर अभी नवाब शेर अफ़गान के पास जाता हूं. वहीं सबकुछ तय होगा.’
शुभकर्ण ने कठिनाई से थोड़ा सा खा पाया. भोजन के उपरांत पान चबाया और जल्दी-जल्दी में हुक्का पीकर शेर अफ़गान की हवेली पर जाने के लिए तैयार हो गया. थोड़े से अंगरक्षक लेकर वह पैदल गया. साथ में जली हुई दरबारी खिलअत लिए था.
शेर अफ़गान से मिलने में देर नहीं लगी. अभिवादन किया, फिर आंखों से दो बड़े-बड़े आंसू टपकाए और वह पोशाक शेर अफ़गान के सामने रख दी.
‘हुजूर, बड़ी तौहीन हुई, बहुत जिल्लत,’ शुभकर्ण का गला कांप रहा था.
‘क्या हुआ, राजा साहब?’ शेर अफ़गान ने मूंछ पर उंगली फेरते हुए एक आंख तरेरकर प्रश्न किया.
शुभकर्ण सांस और स्वर नहीं साध पा रहा था. शेर अफ़गान को आश्चर्य हो रहा था. उसने दोहराया, ‘क्या हुआ? क्या हुआ, राजा साहब?’
शुभकर्ण ने ब्योरे के साथ सब सुनाया. बादशाह से सिरोपाव का पाना, हाफिज खिदमतगार ख़ां का प्रसन्न होना, चौक में लड़कों की शरारत. जूताफरोशों की ‘बदमाशी’ का वर्णन उसने बढ़ा-चढ़ाकर किया. हाजी की मृत्यु का परिच्छेद आगे के लिए दबा लिया.
शेर अफ़गान तमक गया, ‘क्या आपके सिपाही सब नामर्द हैं? क्यों नहीं दस-पांच जूताफरोशों के सिर धड़ से जुदा कर दिए?’
शुभकर्ण ने हाथ जोड़े – मन की जो पा ली. बोला, ‘हुजूर, उस हंगामे में एक सिपाही फंस गया था. उसकी जान पर आ बनी. तलवार का वार हुआ. एक जूताफरोश मारा गया.’
‘सिर्फ एक?’
‘हुजूर, एक ही. मगर वह…’ शुभकर्ण रुका.
‘मगर क्या?’
‘मगर वह हाजी था, हुजूर.’
‘होगा जी. हाजी को क्या सिपाही के हथियार छीनने की सनद मिली थी?’
‘हुजूर, वह कुछ बुड्ढा भी था.’
‘होगा, क्यों जान छोड़े दे रहे हो? बुड्ढे आदमी ही तो फसाद करवाते हैं.’
शुभकर्ण का मन आनंद की पेंगों पर झूलने लगा; परंतु उसने अपना मुंह ऊंचा नहीं किया – सिर नीचा किए रहा. कुछ क्षणों दोनों चुप रहे. हाजी का मारा जाना कोई मामूली बात नहीं है, था वह परदेसी गुट का, पर खैर-शेर अफ़गान सोच रहा था.
शुभकर्ण बोला, ‘हुजूर, जूताफरोश कुछ ऊधम शायद ज़रूर करेंगे. कल चौक सादुल्लाख़ां में होकर मुझे अपने काम से फिर गुज़रना होगा. सिपाही साथ होंगे. डर तो वैसे कोई बड़ा नहीं है, पर शायद बात बढ़ जाए.’
शेर अफ़गान ने उसके ‘शायद’ को अच्छी तरह समझ लिया और कहा, ‘राजा साहब, आप भूलते हैं, वे सब बड़े बदमाश हैं. लेकिन हम परवाह नहीं करते. मेरे पास दस हजार असली पठान और राजपूत हैं और रौशनुद्दौला साहब के पास इनसे भी ज़्यादा-जाट भी बहुत से. सवाई राजा जयसिंह भी दिल्ली में ही हैं.’
शुभकर्ण चालाक जौहरी था. सिर नीचा किया और दबी जबान से बोला, ‘सो तो सरकार हैं ही. कोई शक ही नहीं. लेकिन जूताफरोशों की तादाद बहुत ज़्यादा है. सारे चौक के दोनों तरफ़ ठसाठस भरे हुए हैं और तमाम परदेसी उनके हिमायती हैं. ज़रा-ज़रा सी बात पर दुनिया को सिर पर उठा लेने की फितरत रच डालते हैं.’
ज़रा सा मुसकराकर शेर अफ़गान ने फिर मूंछों पर हाथ फेरा. कहता गया – ‘जूताफरोश हैं क्या चीज? रौशनद्दौला तुर्रेबाज, मैं और मेरे भाई एक लमहे में पचास हजार पठान और राजपूत खड़े कर सकते हैं; जिनके हथियारों की झनझनाहट भर से जूताफरोशों और उनके हिमायतियों के कान बहरे हो जाएंगे. हमारे पास इतनी फौज है कि दिल्ली भर में नहीं समा सकती!’
अब शुभकर्ण अपनी प्रसन्नता की संभाल न सका. ‘बादशाह सलामत और वजीर साहब का रुख क्या होगा, हुजूर?’ उसने पूछा.
शेर अफ़गान ने बिना किसी संकोच के उत्तर दिया, ‘जिस ओर रौशनद्दौला का तुर्रा हिल जाएगा उसी तरफ़ बादशाह सलामत की मर्जी का भी इशारा होगा; मगर इतने बेकाबू क्यों हुआ जा रहे हो, राजा साहब?’
शुभकर्ण ने तुरंत उत्तर देना ठीक नहीं समझा. गरदन और भी नीची कर ली.
शेर अफ़गान ने सिर ऊंचा किया और सोचा. सोचकर कहा, ‘राजा साहब, आप एकाध दिन काम पर मत जाइए. हाफिज खिदमतगार ख़ां साहब के पास खबर भेज दूंगा. आप मेरे मकान पर आ जाइए. शायद आपके घर पर कोई बखेड़ा इतनी जल्दी खड़ा हो जाए कि कुमुक पहुंचने में कुछ देर लग जाए और नुक़सान हो जाए. उम्मीद है कि मामला यों ही ठंडा हो जाएगा; क्योंकि हम सबकी ताक़त किसी से छिपी नहीं है. यों ही ठंडा न हुआ तो कोशिश की जाएगी. आप बाहर निकलेंगे तो शायद आग बेकार भड़क उठेगी.’
राजा ने खांसकर गला साफ़ किया और उपयुक्त अवसर की बाट में थोड़ी देर चुप बना रहा. वातावरण में ठंडक आने लगी.
शेर अफ़गान ने कुछ क्षण उपरांत कहा, ‘मामला फिजूल ही बढ़ गया.’
‘हुजूर!’
‘फिर भी भीतर की आवाज़ कहती है कि अगर अक्ल से काम लिया जाता तो मरने-मारने की नौबत न आती. छोकरों का खिलवाड़ ही तो था, और ज़माना पूरे तौर से अभी हाथ में है भी नहीं.’ शेर अफ़गान कह तो गया, परंतु प्रतिक्रिया ने उसे भीतर ही भीतर दुत्कारा.
अब की बार शुभकर्ण के मुंह से ‘हुजूर’ शब्द कांपते और क्षीण स्वर में निकला. शेर अफ़गान को तुरंत स्पर्श कर गया. बोला, ‘जो कुछ भी हो, अब तो मामले को आंख-से-आंख मिलाकर ही देखना पड़ेगा.’
शुभकर्ण को फिर सहारा मिला. उसने कहा, ‘हुजूर, पठान और राजपूत सिपाही का हथियार उसकी मार-मर्यादा की नाक रहा है. छीने हुए हथियार को वापस लेने के लिए सिपाही गए. जूताफरोशों ने फसाद कर दिया. अपने सिपाहियों ने इज्जत बचाने के लिए हथियार उठाया. अचानक एक बिचारा बुड्ढा मारा गया. मेरे दिल में यही बहुत कसक रहा है.’
शेर अफ़गान के दबे भाव ने पुनः पलटा खाया. गरदन मोड़कर बोला, ‘बुरा-भला जो हुआ, सो हुआ. अब जो कोई भी हमारे मातहत की बेइज्जती करने की हिम्मत करेगा, उसे ऐसा सबक सिखलाऊंगा कि कभी न भूल सकेगा.’
‘सरकार!’ शुभकर्ण ने कुछ निवेदन और कुछ प्रश्न-सा करते हुए कहा.
‘बेशक,’ शेर अफ़गान ने दृढ़तापूर्वक ढांढस दी, ‘बेशक, चाहे दुनिया इधर की उधर हो जाए.’ शेर अफ़गान ताव पर आ गया था.
शुभकर्ण बोला, ‘हुजूर की पनाह में मेरा बाल भी बांका नहीं हो सकता, लेकिन घर पर बाल-बच्चे हैं; पर हां, जो हाल मेरा होगा वही उनका भी.’
शेर अफ़गान इस बात पर ज़रा हिल गया. एक क्षण सोचकर बोला, ‘फौरन घर जाइए. शायद वे शैतान गिनती में आप लोगों को कम पाकर कुछ कर बैठें. इसलिए बाल-बच्चों को मेरी हवेली पर ले आइए. आपकी रानी साहब मेरी निज बहिन के बराबर हैं. तब तक सबके सब यहीं बने रहना जब तक मामला रफै-दफै नहीं हो जाता. आजकल नवाब रौशनुद्दौला के यहां से मेरी और बहिनें भी आई हुई हैं.’
शुभकर्ण हर्षमग्न होकर तुरंत अपने घर गया. देवकी को समाचार सुनाया.
‘जल्दी करो,’ उसने देवकी से कहा.
देवकी को संकोच नहीं हुआ. सहमत हो गई. जैसाकि होता है, अपने क़ीमती समान की चिंता हुई. उसने ऐसा सारा सामान इकट्ठा किया. जो साधारण सा था, उसका भी मोह त्यागना दूभर था. उसे भी इकट्ठा किया. शुभकर्ण को आतुरता थी.
‘सड़े-गले पुराने सामान छोड़ो. सबका सब जोड़ने-जमा करने में यह रात तो क्या, कई रातें बीत जाएंगी. इसी घड़ी यदि जूताफरोशों या उनके साथियों ने हमारे ऊपर धावा कर दिया तो कुछ भी नहीं बच सकेगा, प्राणों पर भी बन आएगी.’
देवकी को अच्छा नहीं लगा, परंतु करती क्या. बहुमूल्य सामाग्री ही साथ ले जाने का संकल्प कर सकी. सामान सिपाहियों के सिर पर धीरे-धीरे ही शेर अफ़गान की हवेली पर भेजा जा सका, क्योंकि थोड़ा न था. साधारण सामान सब छोड़ना पड़ा. देवकी और शुभकर्ण को विश्वास था कि उन्हें वहां न पाकर धावा बोलनेवाले उनकी खोज के पीछे पड़ेंगे. न कि सामान के पीछे. शुभकर्ण और देवकी भोर होने के पहले शेर अफ़गान की हवेली में जा पहुंचे. सिपाहियों ने भी वहीं डेरा डाला. बात छिपी न रही.
शुभकर्ण और देवकी शेर अफ़गान की हवेली में पहुंच गए और चैन की सांस ली. रौशनुद्दौला की बेगम शबनम शेर अफ़गान की रिश्तेदार थी. वह वहां पहले ही आ गई थी. शबनम और देवकी एक ही कमरे में बैठी हुई थीं. शेर अफ़गान ने अपनी हवेली में शुभकर्ण, रानी देवकी और उनकी सहवर्गियों के भोजनादि की व्यवस्था कर दी थी.
ब्राह्मण रसोइए और कहार लगा दिए थे. छुआछूत का पूरा ज़ोर था – हिंदुओं के धर्म का अंग ही था. परंतु इसके कारण आपस की घनिष्ठता में कमी नहीं आती थी. खाया उन सबने बहुत कम, परंतु वे सब अति कृतज्ञ थे.
देवकी की आंखें छलछला आईं. कृतज्ञता के दो आंसू उसके गाल पर ढलक आए. केवल मुंह से निकला – ‘प्राणों की बाज़ी लगाकर आप हम लोगों की रक्षा कर रही हैं.’ उसने शबनम से कहा, ‘बहिन, आपका जस कभी नहीं भूलूंगी.’
शबनम बोली, ‘दीदी इसमें जस किस बात का? आप मेरी बड़ी बहिन हैं. हम लोगों ने थोड़ा सा फ़र्ज अदा किया तो कौन बड़ा काम किया?’
‘हम लोगों के लिए नवाब साहब ने अपने को संकट में डाल लिया है.’
‘वाह! वाह! यह सब कुछ नहीं है. हम लोग आपस में एक-दूसरे की मदद न करेंगे तो क्या बाहरवाले मदद करने आएंगे?’
‘यह सारा ऊधम बाहवालों का किया हुआ है, और न जाने आगे क्या-क्या करेंगे!’
‘अगर मैं किसी तरह अपने अब्बाजान के पास पहुंच पाती तो उनके हाथ जोड़ती, उन्हें समझाती, जिद्द करती और अपना गला तक काटकर उनके हाथ में रख देती कि बाज आइए, विलायतियों का साथ छोड़िए और हिंदुस्तानियों को अपना समझिए.’
‘प्यारी बहिन, आप किसी और आफत में न पड़ जाना; नवाब साहब तो हम थोड़े से हिंदुओं के लिए पूरी जोखिम सिर पर ले ही चुके हैं.’
‘आप बार-बार यह क्यों कहती हैं? थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि हम लोग किसी ऐसी जगह होते, जहां हिंदुओं की बहुतायत होती और थोड़े से हिंदुओं ने शरारत की होती और हम लोग उनके बीच फंस जाते तो आप क्या हाथ पर हाथ धरे बैठी रहतीं? राजा साहब क्या किनारा खींच जाते?’
देवकी की आंख का आंसू सूख गया. लाल हो गई. तमककर बोली, ‘बहिन, मैं हिंदुओं की मिट्टी ख़राब कर देती, जो आपको या आपके किसी नातेवाले को छूने के लिए क़दम बढ़ाते.’
शबनम देवकी से लिपट गई. बोली, ‘दीदी, हम भी तो इनसान हैं. आपके लिए यही ख़याल हमारे भी जी में घर किए हुए है. हम आपकी मदद नहीं कर रहे हैं बल्कि हिंदुस्तानी होने के नाते सिर्फ अपना फ़र्ज अदा कर रहे हैं.’

Illustration: Pinterest

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