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रानी सारन्धा: कहानी एक रानी की वीरता की (लेखक: मुंशी प्रेमचंद)

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
January 31, 2021
in क्लासिक कहानियां, बुक क्लब
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रानी सारन्धा: कहानी एक रानी की वीरता की (लेखक: मुंशी प्रेमचंद)
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मुंशी प्रेमचंद की यह कहानी उस स्वाभिमानी रानी की दास्तां कहती है, जिसने अपने वचन के लिए, हंसते-हंसते अपना सबकुछ न्यौछावर कर दिया. यहां तक कि अपनी जान तक.

 

अंधेरी रात के सन्नाटे में धसान नदी चट्टानों से टकराती हुई ऐसी सुहावनी मालूम होती थी जैसे घुमुर-घुमुर करती हुई चक्कियां. नदी के दाहिने तट पर एक टीला है. उस पर एक पुराना दुर्ग बना हुआ है जिसको जंगली वृक्षों ने घेर रखा है. टीले के पूर्व की ओर छोटा-सा गांव है. यह गढ़ी और गांव दोनों एक बुंदेला सरकार के कीर्ति-चिह्न हैं. शताब्दियां व्यतीत हो गईं बुंदेलखंड में कितने ही राज्यों का उदय और अस्त हुआ. मुसलमान आए और बुंदेला राजा उठे और गिरे. कोई गांव कोई इलाक़ा ऐसा न था जो इन दुरवस्थाओं से पीड़ित न हो मगर इस दुर्ग पर किसी शत्रु की विजय-पताका न लहराई और इस गांव में किसी विद्रोह का भी पदार्पण न हुआ. यह उसका सौभाग्य था.
अनिरुद्धसिंह वीर राजपूत था. वह ज़माना ही ऐसा था जब मनुष्यमात्र को अपने बाहुबल और पराक्रम ही का भरोसा था. एक ओर मुसलमान सेनाएं पैर जमाए खड़ी रहती थीं दूसरी ओर बलवान राजा अपने निर्बल भाइयों का गला घोंटने पर तत्पर रहते थे. अनिरुद्धसिंह के पास सवारों और पियादों का एक छोटा-सा मगर सजीव दल था. इससे वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा किया करता था. उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था. तीन वर्ष पहले उसका विवाह शीतला देवी से हुआ था मगर अनिरुद्ध विहार के दिन और विलास की रातें पहाड़ों में काटता था और शीतला उसकी जान की ख़ैर मनाने में. वह कितनी बार पति से अनुरोध कर चुकी थी कितनी बार उसके पैरों पर गिर कर रोई थी कि तुम मेरी आंखों से दूर न हो. मुझे हरिद्वार ले चलो, मुझे तुम्हारे साथ वनवास अच्छा है, यह वियोग अब नहीं सहा जाता. उसने प्यार से कहा जिद से कहा विनय की मगर अनिरुद्ध बुंदेला था. शीतला अपने किसी हथियार से उसे परास्त न कर सकी.
अंधेरी रात थी. सारी दुनिया सोती थी तारे आकाश में जागते थे. शीतला देवी पलंग पर पड़ी करवटें बदल रही थीं और उसकी ननद सारन्धा फ़र्श पर बैठी मधुर स्वर से गाती थी…
बिनु रघुवीर कटत नहिं रैन
शीतला ने कहा-जी न जलाओ. क्या तुम्हें भी नींद नहीं आती?
सारन्धा-तुम्हें लोरी सुना रही हूं.
शीतला-मेरी आंखों से तो नींद लोप हो गई.
सारन्धा-किसी को ढूंढ़ने गई होगी.
इतने में द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान पुरुष ने भीतर प्रवेश किया. वह अनिरुद्ध था. उसके कपड़े भीगे हुए थे और बदन पर कोई हथियार न था. शीतला चारपाई से उतर कर ज़मीन पर बैठ गई.
सारन्धा ने पूछा-भैया यह कपड़े भीगे क्यों हैं?
अनिरुद्ध-नदी तैर कर आया हूं.
सारन्धा-हथियार क्या हुए?
अनिरुद्ध-छिन गए.
सारन्धा-और साथ के आदमी?
अनिरुद्ध-सबने वीर-गति पाई.
शीतला ने दबी ज़बान से कहा-ईश्वर ने ही कुशल किया. मगर सारन्धा के तीवरों पर बल पड़ गए और मुखमण्डल गर्व से सतेज हो गया. बोली-भैया तुमने कुल की मर्यादा खो दी. ऐसा कभी न हुआ था.
सारन्धा भाई पर जान देती थी. उसके मुंह से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो गया. वह वीराग्नि जिसे क्षणभर के लिए अनुराग ने दबा लिया था फिर ज्वलंत हो गई. वह उलटे पांव लौटा और यह कह कर बाहर चला गया कि सारन्धा तुमने मुझे सदैव के लिए सचेत कर दिया. यह बात मुझे कभी न भूलेगी.
अंधेरी रात थी. आकाश-मण्डल में तारों का प्रकाश बहुत धुंधला था. अनिरुद्ध क़िले से बाहर निकला. पलभर में नदी के उस पार जा पहुंचा और फिर अन्धकार में लुप्त हो गया. शीतला उसके पीछे-पीछे क़िले की दीवारों तक आई मगर जब अनिरुद्ध छलांग मार कर बाहर कूद पड़ा तो वह विरहिणी चट्टान पर बैठ कर रोने लगी.
इतने में सारन्धा भी वहीं आ पहुंची. शीतला ने नागिन की तरह बल खा कर कहा-मर्यादा इतनी प्यारी है?
सारन्धा-हां.
शीतला-अपना पति होता तो हृदय में छिपा लेती.
सारन्धा-ना छाती में छुरा चुभा देती.
शीतला ने ऐंठकर कहा-चोली में छिपाती फिरोगी मेरी बात गिरह में बांध लो.
सारन्धा-जिस दिन ऐसा होगा मैं भी अपना वचन पूरा कर दिखाऊंगी.
*****

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इस घटना के तीन महीने पीछे अनिरुद्ध महरौनी को जीत करके लौटा और साल भर पीछे सारन्धा का विवाह ओरछा के राजा चम्पतराय से हो गया, मगर उस दिन की बातें दोनों महिलाओं के हृदय-स्थल में कांटे की तरह खटकती रहीं.
राजा चम्पतराय बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे. सारी बुन्देला जाति उनके नाम पर जान देती थी और उनके प्रभुत्व को मानती थी. गद्दी पर बैठते ही उन्होंने मुग़ल बादशाहों को कर देना बन्द कर दिया और वे अपने बाहुबल से राज्य-विस्तार करने लगे. मुग़लों की सेनाएं बार-बार उन पर हमले करती थीं पर हार कर लौट जाती थीं.
यही समय था कि जब अनिरुद्ध ने सारन्धा का चम्पतराय से विवाह कर दिया. सारन्धा ने मुंहमांगी मुराद पाई. उसकी यह अभिलाषा कि मेरा पति बुन्देला जाति का कुल-तिलक हो पूरी हुई. यद्यपि राजा के रनिवास में पांच रानियां थीं मगर उन्हें शीघ्र ही मालूम हो गया कि वह देवी जो हृदय में मेरी पूजा करती है सारन्धा है.
परन्तु कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि चम्पतराय को मुग़ल बादशाह का आश्रित होना पड़ा. वे अपना राज्य अपने भाई पहाड़सिंह को सौंपकर देहली चले गए. यह शाहजहां के शासन-काल का अन्तिम भाग था. शाहज़ादा दारा शिकोह राजकीय कार्यों को संभालते थे. युवराज की आंखों में शील था और चित्त में उदारता. उन्होंने चम्पतराय की वीरता की कथाएं सुनी थीं इसलिए उनका बहुत आदर-सम्मान किया और कालपी की बहुमूल्य जागीर उनको भेंट की जिसकी आमदनी नौ लाख थी. यह पहला अवसर था कि चम्पतराय को आए-दिन के लड़ाई-झगड़े से निवृत्ति मिली और उसके साथ ही भोग-विलास का प्राबल्य हुआ. रात-दिन आमोद-प्रमोद की चर्चा रहने लगी. राजा विलास में डूबे रानियां जड़ाऊ गहनों पर रीझीं मगर सारन्धा इन दिनों बहुत उदास और संकुचित रहती-वह इन रहस्यों से दूर-दूर रहती ये नृत्य और गान की सभाएं उसे सूनी प्रतीत होतीं.
एक दिन चम्पतराय ने सारन्धा से कहा-सारन तुम उदास क्यों रहती हो मैं तुम्हें कभी हंसते नहीं देखता. क्या मुझसे नाराज़ हो?
सारन्धा की आंखों में जल भर आया. बोली-स्वामीजी आप क्यों ऐसा विचार करते हैं जहां आप प्रसन्न हैं वहां मैं भी ख़ुश हूं.
चम्पतराय-मैं जब से यहां आया हूं मैंने तुम्हारे मुख-कमल पर कभी मनोहारिणी मुस्कराहट नहीं देखी. तुमने कभी अपने हाथों से मुझे बीड़ा नहीं खिलाया. कभी मेरी पाग नहीं संवारी. कभी मेरे शरीर पर शस्त्र न सजाए. कहीं प्रेम-लता मुरझाने तो नहीं लगी?
सारन्धा-प्राणनाथ आप मुझसे ऐसी बात पूछते हैं जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है. यथार्थ में इन दिनों मेरा चित्त उदास रहता है. मैं बहुत चाहती हूं कि ख़ुश रहूं मगर बोझ-सा हृदय पर धरा रहता है.
चम्पतराय स्वयं आनन्द में मग्न थे. इसलिए उनके विचार में सारन्धा को असन्तुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था. वे भौंहें सिकोड़ कर बोले-मुझे तुम्हारे उदास रहने का कोई विशेष कारण नहीं मालूम होता. ओरछे में कौन-सा सुख था जो यहां नहीं है?
सारन्धा का चेहरा लाल हो गया. बोली-मैं कुछ कहूं आप नाराज़ तो न होंगे?
चम्पतराय-नहीं शौक़ से कहो.
सारन्धा-ओरछे में मैं एक राजा की रानी थी. यहां मैं एक जागीरदार की चेरी हूं. ओरछे में वह थी जो अवध में कौशल्या थीं यहां मैं बादशाह के एक सेवक की स्त्री हूं. जिस बादशाह के सामने आज आप आदर से सिर झुकाते हैं वह कल आपके नाम से कांपता था. रानी से चेरी हो कर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे वश में नहीं है. आपने यह पद और ये विलास की सामग्रियां बड़े महंगे दामों मोल ली हैं.
चम्पतराय के नेत्रों पर से एक पर्दा-सा हट गया. वे अब तक सारन्धा की आत्मिक उच्चता को न जानते थे. जैसे बे-मां-बाप का बालक मां की चर्चा सुन कर रोने लगता है उसी तरह ओरछे की याद से चम्पतराय की आंखें सजल हो गईं. उन्होंने आदरयुक्त अनुराग के साथ सारन्धा को हृदय से लगा लिया.
आज से उन्हें फिर उसी उजड़ी बस्ती की फ़िक्र हुई जहां से धन और कीर्ति की अभिलाषाएं खींच लाई थीं.
*****
मां अपने खोए हुए बालक को पा कर निहाल हो जाती है. चम्पतराय के आने से बुन्देलखण्ड निहाल हो गया. ओरछे के भाग जागे. नौबतें बजने लगीं और फिर सारन्धा के कमल-नेत्रों में जातीय अभिमान का आभास दिखाई देने लगा!
यहां रहते-रहते महीनों बीत गए. इस बीच में शाहजहां बीमार पड़ा. पहले से ईर्ष्या की अग्नि दहक रही थी. यह ख़बर सुनते ही ज्वाला प्रचण्ड हुई. संग्राम की तैयारियां होने लगीं. शाहज़ादे मुराद और मुहीउद्दीन अपने-अपने दल सजाकर दक्खिन से चले. वर्षा के दिन थे. उर्वरा भूमि रंग-बिरंग के रूप भर कर अपने सौन्दर्य को दिखाती थी.
मुराद और मुहीउद्दीन उमंगों से भरे हुए क़दम बढ़ाते चले आ रहे थे. यहां तक की धौलपुर के निकट चम्बल के तट पर आ पहुंचे परन्तु यहां उन्होंने बादशाही सेना को अपने शुभागमन के निमित्त तैयार पाया.
शाहज़ादे अब बड़ी चिंता में पड़े. सामने अगम्य नदी लहरें मार रही थी किसी योगी के त्याग के सदृश. विवश हो कर चम्पतराय के पास संदेश भेजा कि ख़ुदा के लिए आ कर हमारी डूबती हुई नाव को पार लगाइए.
राजा ने भवन में जा कर सारन्धा से पूछा-इसका क्या उत्तर दूं?
सारन्धा-आपको मदद करनी होगी.
चम्पतराय-उनकी मदद करना दारा शिकोह से वैर लेना है.
सारन्धा-यह सत्य है परन्तु हाथ फैलाने की मर्यादा भी तो निभानी चाहिए.
चम्पतराय-प्रिये तुमने सोचकर जवाब नहीं दिया.
सारन्धा-प्राणनाथ मैं अच्छी तरह जानती हूं कि यह मार्ग कठिन है. और अब हमें अपने योद्धाओं का रक्त पानी के समान बहाना पड़ेगा परंतु हम अपना रक्त बहायेंगे और चम्बल की लहरों को लाल कर देंगे. विश्वास रखिए कि जब तक नदी की धारा बहती रहेगी वह हमारे वीरों की कीर्तिगान करती रहेगी. जब तक बुन्देलों का एक भी नामलेवा रहेगा ये रक्त-बिन्दु उसके माथे पर केशर का तिलक बन कर चमकेंगे.
वायुमण्डल में मेघराज की सेनाएं उमड़ रही थीं. ओरछे के क़िले से बुन्देलों की एक काली घटा उठी और वेग के साथ चम्बल की तरफ चली. प्रत्येक सिपाही वीर-रस से झूम रहा था. सारन्धा ने दोनों राजकुमारों को गले से लगा लिया और राजा को पान का बीड़ा दे कर कहा-बुन्देलों की लाज अब तुम्हारे हाथ है.
आज उसका एक-एक अंग मुस्करा रहा है और हृदय हुलसित है. बुन्देलों की यह सेना देख कर शाहज़ादे फूले न समाए. राजा वहां की अंगुल-अंगुल भूमि से परिचित थे. उन्होंने बुन्देलों को तो एक आड़ में छिपा दिया और वे शाहज़ादों की फौज को सजा कर नदी के किनारे-किनारे पश्चिम की ओर चले. दारा शिकोह को भ्रम हुआ कि शत्रु किसी अन्य घाट से नदी उतरना चाहता है. उन्होंने घाट पर से मोर्चे हटा लिए. घाट में बैठे हुए बुन्देले उसी ताक में थे. बाहर निकल पड़े और उन्होंने तुरन्त ही नदी में घोड़े डाल दिए. चम्पतराय ने शाहज़ादा दारा शिकोह को भुलावा देकर अपनी फौज घुमा दी और वह बुन्देलों के पीछे चलता हुआ उसे पार उतार लाया. इस कठिन चाल में सात घण्टों का विलम्ब हुआ परन्तु जा कर देखा तो सात सौ बुन्देलों की लाशें तड़प रही थीं.
राजा को देखते ही बुन्देलों की हिम्मत बंध गई. शाहज़ादों की सेना ने भी अल्लाहो अकबर की ध्वनि के साथ धावा किया. बादशाही सेना में हलचल पड़ गई. उनकी पंक्तियां छिन्न-भिन्न हो गईं हाथोंहाथ लड़ाई होने लगी यहां तक कि शाम हो गई. रणभूमि रुधिर से लाल हो गई और आकाश में अंधेरा हो गया. घमासान की मार हो रही थी. बादशाही सेना शाहज़ादों को दबाए आती थी. अकस्मात् पश्चिम से फिर बुन्देलों की एक लहर उठी और इस वेग से बादशाही सेना की पुश्त पर टकरायी कि उसके क़दम उखड़ गए. जीता हुआ मैदान हाथ से निकल गया. लोगों को कुतूहल था कि यह दैवी सहायता कहां से आई. सरल स्वभाव के लोगों की धारणा थी कि यह फ़तह के फ़रिश्ते हैं शाहज़ादों की मदद के लिए आए हैं परन्तु जब राजा चम्पतराय निकट गए तो सारन्धा ने घोड़े से उतर कर उनके पैरों पर सिर झुका दिया. राजा को असीम आनन्द हुआ. यह सारन्धा थी.
समर-भूमि का दृश्य इस समय अत्यन्त दुःखमय था. थोड़ी देर पहले जहां सजे हुए वीरों के दल थे वहां अब बेजान लाशें तड़प रही थीं. मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिए अनादि काल से ही भाइयों की हत्या की है.
अब विजयी सेना लूट पर टूट पड़ी. पहले मर्द मर्दों से लड़ते थे. वह वीरता और पराक्रम का चित्र था यह नीचता और दुर्बलता की ग्लानिप्रद तसवीर थी. उस समय मनुष्य पशु बना हुआ था अब वह पशु से भी बढ़ गया था.
इस नोच-खसोट में लोगों को बादशाही सेना के सेनापति वली बहादुर ख़ां की लाश दिखाई दी. उसके निकट उसका घोड़ा खड़ा हुआ अपनी दुम से मक्खियां उड़ा रहा था. राजा को घोड़ों का शौक़ था. देखते ही वह उस पर मोहित हो गया. यह इराकी जाति का अति सुन्दर घोड़ा था. एक-एक अंग सांचे में ढला हुआ सिंह की-सी छाती चीते की-सी कमर उसका यह प्रेम और स्वामिभक्ति देखकर लोगों को बड़ा कुतूहल हुआ. राजा ने हुक्म दिया-ख़बरदार! इस प्रेमी पर कोई हथियार न चलाए इसे जीता पकड़ लो यह मेरे अस्तबल की शोभा बढ़ाएगा. जो इसे मेरे पास ले आएगा उसे धन से निहाल कर दूंगा.
योद्धागण चारों ओर से लपके परन्तु किसी को साहस न होता था कि उसके निकट जा सके. कोई चुमकार रहा था कोई फन्दे में फंसाने की फिक्र में था पर कोई उपाय सफल न होता था. वहां सिपाहियों का मेला-सा लगा हुआ था.
तब सारन्धा अपने खेमे से निकली और निर्भय होकर घोड़े के पास चली गई. उसकी आंखों में प्रेम का प्रकाश था छल का नहीं. घोड़े ने सिर झुका दिया. रानी ने उसकी गर्दन पर हाथ रखा और वह उसकी पीठ सहलाने लगी. घोड़े ने उसके अंचल में मुंह छिपा लिया. रानी उसकी रास पकड़ कर खेमे की ओर चली. घोड़ा इस तरह चुपचाप उसके पीछे चला मानो सदैव से उसका सेवक है.
पर बहुत अच्छा होता कि घोड़े ने सारन्धा से भी निष्ठुरता की होती. यह सुन्दर घोड़ा आगे चल कर इस राज-परिवार के निमित्त स्वर्णजटित मृग साबित हुआ.
*****
संसार एक रण-क्षेत्र है. इस मैदान में उसी सेनापति को विजयलाभ होता है जो अवसर को पहचानता है. वह अवसर पर जितने उत्साह से आगे बढ़ता है उतने ही उत्साह से आपत्ति के समय पीछे हट जाता है. वह वीर पुरुष राष्ट्र का निर्माता होता है और इतिहास उसके नाम पर यश के फूलों की वर्षा करता है.
पर इस मैदान में कभी-कभी ऐसे सिपाही भी जाते हैं जो अवसर पर क़दम बढ़ाना जानते हैं लेकिन संकट में पीछे हटाना नहीं जानते. ये रणवीर पुरुष विजय को नीति की भेंट कर देते हैं. वे अपनी सेना का नाम मिटा देंगे किन्तु जहां एक बार पहुंच गए हैं वहां से क़दम पीछे न हटायेंगे. उनमें कोई विरला ही संसार-क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है किंतु प्रायः उसकी हार विजय से भी अधिक गौरवात्मक होती है. अगर अनुभवशील सेनापति राष्ट्रों की नींव डालता है तो आन पर जान देनेवाला मुंह न मोड़नेवाला सिपाही राष्ट्र के भावों को उच्च करता है और उसके हृदय पर नैतिक गौरव को अंकित कर देता है. उसे इस कार्यक्षेत्र में चाहे सफलता न हो किन्तु जब किसी वाक्य या सभा में उसका नाम जबान पर आ जाता है श्रोतागण एक स्वर से उसके कीर्ति-गौरव को प्रतिध्वनित कर देते हैं. सारन्धा आन पर जान देनेवालों में थी.
शाहज़ादा मुहीउद्दीन चम्बल के किनारे से आगरे की ओर चला तो सौभाग्य उसके सिर पर मोर्छल हिलाता था. जब वह आगरे पहुंचा तो विजयदेवी ने उसके लिए सिंहासन सजा दिया!
औरंगजेब गुणज्ञ था. उसने बादशाही अफ़सरों के अपराध क्षमा कर दिए उनके राज्य-पद लौटा दिए और राजा चम्पतराय को उसके बहुमूल्य कृत्यों के उपलक्ष्य में बारह हज़ारी मनसब प्रदान किया. ओरक्षा से बनारस और बनारस से जमुना तक उसकी जागीर नियत की गई. बुन्देला राजा फिर राज-सेवक बना वह फिर सुख-विलास में डूबा और रानी सारन्धा फिर पराधीनता के शोक से घुलने लगी.
वली बहादुर ख़ां बड़ा वाक्य-चतुर मनुष्य था. उसकी मृदुता ने शीघ्र ही उसे बादशाह आलमगीर का विश्वासपात्र बना दिया. उस पर राजसभा में सम्मान की दृष्टि पड़ने लगी.
ख़ां साहब के मन में अपने घोड़े के हाथ से निकल जाने का बड़ा शोक था. एक दिन कुंवर छत्रसाल उसी घोड़े पर सवार होकर सैर को गया था. वह ख़ां साहब के महल की तरफ़ जा निकला. वली बहादुर ऐसे ही अवसर की ताक में था. उसने तुरन्त अपने सेवकों को इशारा किया. राजकुमार अकेला क्या करता पांव-पांव घर आया और उसने सारन्धा से सब समाचार बयान किया. रानी का चेहरा तमतमा गया. बोली मुझे इसका शोक नहीं कि घोड़ा हाथ से गया शोक इसका है कि तू उसे खो कर जीता क्यों लौटा क्या तेरे शरीर में बुंदेलों का रक्त नहीं है घोड़ा न मिलता न सही किन्तु तुझे दिखा देना चाहिए था कि एक बुन्देला बालक से उसका घोड़ा छीन लेना हंसी नहीं है.
यह कह कर उसने अपने पच्चीस योद्धाओं को तैयार होने की आज्ञा दी. स्वयं अस्त्रा धारण किए और योद्धाओं के साथ वली बहादुर ख़ां के निवास-स्थान पर जा पहुंची. ख़ां साहब उसी घोड़े पर सवार हो कर दरबार चले गए थे सारन्धा दरबार की तरफ चली और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के सदृश बादशाही दरबार के सामने जा पहुंची यह कैफ़ियत देखते ही दरबार में हलचल मच गई. अधिकारी वर्ग इधर-उधर से आ कर जमा हो गए. आलमगीर भी सहन में निकल आए. लोग अपनी-अपनी तलवारें संभालने लगे और चारों तरफ़ शोर मच गया. कितने ही नेत्रों ने इसी दरबार में अमरसिंह की तलवार की चमक देखी थी. उन्हें वही घटना फिर याद आ गई.
सारन्धा ने उच्च स्वर से कहा-ख़ां साहब बड़ी लज्जा की बात है आपने वही वीरता जो चम्बल के तट पर दिखानी चाहिए थी आज एक अबोध बालक के सम्मुख दिखाई है. क्या यह उचित था कि आप उससे घोड़ा छीन लेते?
वली बहादुर ख़ां की आंखों से अग्नि-ज्वाला निकल रही थी. वे कड़ी आवाज़ से बोले-किसी ग़ैर को क्या मजाल है कि मेरी चीज़ अपने काम में लाए?
रानी-वह आपकी चीज़ नहीं मेरी है. मैंने उसे रणभूमि में पाया है और उस पर मेरा अधिकार है. क्या रणनीति की इतनी मोटी बात भी आप नहीं जानते?
ख़ां साहब-वह घोड़ा मैं नहीं दे सकता उसके बदले में सारा अस्तबल आपकी नज़र है.
रानी-मैं अपना घोड़ा लूंगी.
ख़ां साहब-मैं उसके बराबर जवाहरात दे सकता हूं परन्तु घोड़ा नहीं दे सकता!
रानी-तो फिर इसका निश्चय तलवार से होगा बुन्देला योद्धाओं ने तलवारें सौंत लीं और निकट था कि दरबार की भूमि रक्त से प्लावित हो जाय बादशाह आलमगीर ने बीच में आ कर कहा-रानी साहबा आप सिपाहियों को रोकें. घोड़ा आपको मिल जाएगा परन्तु इसका मूल्य बहुत देना पड़ेगा.
रानी-मैं उसके लिए अपना सर्वस्व खोने को तैयार हूं.
बादशाह-जागीर और मनसब भी!
रानी-जागीर और मनसब कोई चीज़ नहीं.
बादशाह-अपना राज्य भी.
रानी-हां राज्य भी.
बादशाह-एक घोड़े के लिए.
रानी-नहीं उस पदार्थ के लिए जो संसार में सबसे अधिक मूल्यवान है.
बादशाह-वह क्या है?
रानी-अपनी आन.
इस भांति रानी ने अपने घोड़े के लिए अपनी विस्तृत जागीर उच्च राज और राज-सम्मान सब हाथ से खोया और केवल इतना ही नहीं भविष्य के लिए कांटे बोए इस घड़ी से अन्त दशा तक चम्पतराय को शान्ति न मिली.
******
राजा चम्पतराय ने फिर ओरछे के क़िले में पदार्पण किया. उन्हें मनसब और जागीर के हाथ से निकल जाने का अत्यन्त शोक हुआ किन्तु उन्होंने अपने मुंह से शिकायत का एक शब्द भी नहीं निकाला वे सारन्धा के स्वभाव को भली-भांति जानते थे. शिकायत इस समय उसके आत्म-गौरव पर कुठार का काम करती.
कुछ दिन यहां शान्तिपूर्वक व्यतीत हुए लेकिन बादशाह सारन्धा की कठोर बात भूला न था. वह क्षमा करना जानता ही न था. ज्यों ही भाइयों की ओर से निश्चिन्त हुआ उसने एक बड़ी सेना चम्पतराय का गर्व चूर्ण करने के लिए भेजी और बाईस अनुभवशील सरदार इस मुहीम पर नियुक्त किए. शुभकरण बुन्देला बादशाह का सूबेदार था. वह चम्पतराय का बचपन का मित्र और सहपाठी था. उसने चम्पतराय को परास्त करने का बीड़ा उठाया. और भी कितने ही बुन्देला सरदार राजा से विमुख हो कर बादशाही सूबेदार से आ मिले. एक घोर संग्राम हुआ. भाइयों की तलवारें रक्त से लाल हुईं. यद्यपि इस समर में राजा को विजय प्राप्त हुई लेकिन उसकी शक्ति सदा के लिए क्षीण हो गई. निकटवर्ती बुन्देला राजा जो चम्पतराय के बाहुबल थे बादशाह के कृपाकांक्षी बन बैठे. साथियों में कुछ तो काम आए कुछ दगा कर गए. यहां तक कि निज सम्बन्धियों ने भी आंखें चुरा लीं परन्तु इन कठिनाइयों में भी चम्पतराय ने हिम्मत नहीं हारी धीरज को न छोड़ा. उन्होंने ओरछा छोड़ दिया और वह तीन वर्ष तक बुंदेलखंड के सघन पर्वतों पर छिपे फिरते रहे. बादशाही सेनाएं शिकारी जानवरों की भांति सारे देश में मंडरा रही थीं. आए-दिन राजा का किसी न किसी से सामना हो जाता था. सारन्धा सदैव उनके साथ रहती और उनका साहस बढ़ाया करती. बड़ी-बड़ी आपत्तियों में जब कि धैर्य लुप्त हो जाता और आशा साथ छोड़ देती-आत्मरक्षा का धर्म उसे संभाले रहता है. तीन साल के बाद अंत में बादशाह के सूबेदारों ने आलमगीर को सूचना दी कि इस शेर का शिकार आपके सिवाय और किसी से न होगा. उत्तर आया कि सेना को हटा लो और घेरा उठा लो. राजा ने समझा संकट से निवृत्ति हुई पर वह बात शीघ्र ही भ्रमात्मक सिद्ध हो गई.
तीन सप्ताह से बादशाही सेना ने ओरछा घेर रखा है. जिस तरह कठोर वचन हृदय को छेद डालते हैं उसी तरह तोपों के गोलों ने दीवारों को छेद डाला है. क़िले में 20 हजार आदमी घिरे हुए हैं लेकिन उनमें आधे से अधिक स्त्रियां और उनसे कुछ ही कम बालक हैं. मर्दों की संख्या दिनों दिन न्यून होती जाती है. आने-जाने के मार्ग चारों तरफ़ से बंद हैं. हवा का भी गुजर नहीं. रसद का सामान बहुत कम रह गया है. स्त्रियां पुरुषों और बालकों को जीवित रखने के लिए आप उपवास करती हैं. लोग बहुत हताश हो रहे हैं. औरतें सूर्य नारायण की ओर हाथ उठा-उठा कर शत्रु को कोसती हैं. बालकवृन्द मारे क्रोध के दीवार की आड़ से उन पर पत्थर फेंकते हैं जो मुश्क़िल से दीवार के उस पार जा पाते हैं. राजा चम्पतराय स्वयं ज्वर से पीड़ित हैं. उन्होंने कई दिन से चारपाई नहीं छोड़ी. उन्हें देखकर लोगों को कुछ ढाढ़स होता था लेकिन उनकी बीमारी से सारे क़िले में नैराश्य छाया हुआ है.
राजा ने सारन्धा से कहा-आज शत्रु ज़रूर क़िले में घुस आएंगे.
सारन्धा-ईश्वर न करे कि इन आंखों से वह दिन देखना पड़े.
राजा-मुझे बड़ी चिंता इन अनाथ स्त्रियों और बालकों की है. गेहूं के साथ यह घुन भी पिस जाएंगे.
सारन्धा-हम लोग यहां से निकल जाएं तो कैसा रहेगा?
राजा-इन अनाथों को छोड़ कर?
सारन्धा-इस समय इन्हें छोड़ देने में ही कुशल है. हम न होंगे तो शत्रु इन पर कुछ दया ही करेंगे.
राजा-नहीं यह लोग मुझसे न छोड़े जाएंगे. मर्दों ने अपनी जान हमारी सेवा में अर्पण कर दी है उनकी स्त्रियों और बच्चों को मैं कदापि नहीं छोड़ सकता.
सारन्धा-लेकिन यहां रह कर हम उनकी कुछ मदद भी तो नहीं कर सकते.
राजा-उनके साथ प्राण तो दे सकते हैं. मैं उनकी रक्षा में अपनी जान लड़ा दूंगा. उनके लिए बादशाही सेना की ख़ुशामद करूंगा कारावास की कठिनाइयां सहूंगा किन्तु इस संकट में उन्हें छोड़ नहीं सकता.
सारन्धा ने लज्जित हो कर सिर झुका लिया और सोचने लगी निस्संदेह प्रिय साथियों को आग की आंच में छोड़ कर अपनी जान बचाना घोर नीचता है! मैं ऐसी स्वार्थान्ध क्यों हो गई हूं लेकिन एकाएक विचार उत्पन्न हुआ. बोली-यदि आपको विश्वास हो जाय कि इन आदमियों के साथ कोई अन्याय न किया जायगा तब तो आपको चलने में कोई बाधा न होगी.
राजा-(सोच कर) कौन विश्वास दिलाएगा.
सारन्धा-बादशाह के सेनापति का प्रतिज्ञा-पत्र.
राजा-हां तब मैं सानन्द चलूंगा.
सारन्धा विचार-सागर में डूबी. बादशाह के सेनापति से क्योंकर यह प्रतिज्ञा कराऊं कौन यह प्रस्ताव ले कर वहां जाएगा और निर्दयी ऐसी प्रतिज्ञा करने ही क्यों लगे उन्हें तो अपनी विजय की पूरी आशा है. मेरे यहां ऐसा नीति-कुशल वाक्पटु चतुर कौन है जो इस दुस्तर कार्य को सिद्ध करे? छत्रसाल चाहे तो कर सकता है. उसमें ये सब गुण मौजूद हैं.
इस तरह मन में निश्चय करके रानी ने छत्रसाल को बुलाया. यह उसके चारों पुत्रों में बुद्धिमान और साहसी था. रानी उससे सबसे अधिक प्यार करती थीं. जब छत्रसाल ने आ कर रानी को प्रणाम किया तो उनके कमल-नेत्र सजल हो गए और हृदय से दीर्घ निःश्वास निकल गया.
छत्रसाल-माता मेरे लिए क्या आज्ञा है?
रानी-आज लड़ाई का क्या ढंग है?
छत्रसाल-हमारे पचास योद्धा अब तक काम आ चुके हैं.
रानी-बुन्देलों की लाज अब ईश्वर के हाथ है.
छत्रसाल-हम आज रात को छापा मारेंगे.
रानी ने संक्षेप में अपना प्रस्ताव छत्रसाल के सामने उपस्थित किया और कहा-यह काम किसे सौंपा जाए?
छत्रसाल-मुझको.
रानी-तुम इसे पूरा कर दिखाओगे?
छत्रसाल-हां मुझे पूर्ण विश्वास है.
अच्छा जाओ परमात्मा तुम्हारा मनोरथ पूरा करे.
छत्रसाल जब चला तो रानी ने उसे हृदय से लगा लिया और तब आकाश की ओर दोनों हाथ उठा कर कहा-दयानिधि मैंने अपना तरुण और होनहार पुत्र बुन्देलों की आन के आगे भेंट कर दिया. अब इस आन को निभाना तुम्हारा काम है. मैंने बड़ी मूल्यवान वस्तु अर्पित की है इसे स्वीकार करो.
*****
दूसरे दिन प्रातःकाल सारन्धा स्नान करके थाल में पूजा की सामग्री लिए मन्दिर को चली. उसका चेहरा पीला पड़ गया था और आंखों तले अंधेरा छाया जाता था. वह मंदिर के द्वार पर पहुंची थी कि उसके थाल में बाहर से आ कर एक तीर गिरा. तीर की नोक पर एक कागज़ का पुरजा लिपटा हुआ था. सारन्धा ने थाल मंदिर के चबूतरे पर रख दिया और पुर्जे को खोलकर देखा तो आनन्द से चेहरा खिल गया लेकिन यह आनन्द क्षण-भर का था. हाय! इस पुर्जे के लिए मैंने अपना प्रिय पुत्र हाथ से खो दिया है. काग़ज़ के टुकड़े को इतने महंगे दामों किसने लिया होगा
मन्दिर से लौटकर सारन्धा राजा चम्पतराय के पास गई और बोली-प्राणनाथ आपने जो वचन दिया था उसे पूरा कीजिए. राजा ने चौंक कर पूछा तुमने अपना वादा पूरा कर दिया रानी ने वह प्रतिज्ञा-पत्र राजा को दे दिया. चम्पतराय ने उसे ग़ौर से देखा फिर बोले-अब मैं चलूंगा और ईश्वर ने चाहा तो एक बार फिर शत्रुओं की ख़बर लूंगा. लेकिन सारन सच बताओ इस पत्र के लिए क्या देना पड़ा है?
रानी ने कुंठित स्वर से कहा-बहुत कुछ.
राजा-सुनूं…
रानी-एक जवान पुत्र.
राजा को बाण-सा लग गया. पूछा-कौन अंगदराय?
रानी-नहीं.
राजा-रतनसाह?
रानी-नहीं.
राजा-छत्रसाल?
रानी-हां.
जैसे कोई पक्षी गोली खाकर परों को फड़फड़ाता है और तब बेदम हो कर गिर पड़ता है उसी भांति चम्पतराय पलंग से उछले और फिर अचेत होकर गिर पड़े. छत्रसाल उनका परम प्रिय पुत्र था. उनके भविष्य की सारी कामनाएं उसी पर अवलम्बित थीं. जब चेत हुआ तब बोले सारन तुमने बुरा किया.
अंधेरी रात थी. रानी सारन्धा घोड़े पर सवार चम्पतराय को पालकी में बैठाए क़िले के गुप्त मार्ग से निकली जाती थी. आज से बहुत काल पहले एक दिन ऐसी ही अंधेरी दुःखमयी रात्रि थी. तब सारन्धा ने शीतलादेवी को कुछ कठोर वचन कहे थे. शीतलादेवी ने उस समय जो भविष्यवाणी की थी वह आज पूरी हुई. क्या सारन्धा ने उसका जो उत्तर दिया था वह भी पूरा होकर रहेगा?
*****
मध्याह्न था. सूर्यनारायण सिर पर आकर अग्नि की वर्षा कर रहे थे. शरीर को झुलसाने वाली प्रचण्ड प्रखर वायु वन और पर्वत में आग लगाती फिरती थी. ऐसा विदित होता था मानो अग्निदेव की समस्त सेना गरजती हुई चली आ रही है. गगनमण्डल इस भय से कांप रहा था. रानी सारन्धा घोड़े पर सवार चम्पतराय को लिए पश्चिम की तरफ़ चली जाती थी. ओरछा दस कोस पीछे छूट चुका था और प्रतिक्षण यह अनुमान स्थिर होता जाता था कि अब हम भय के क्षेत्र से बाहर निकल आए. राजा पालकी में अचेत पड़े हुए थे और कहार पसीने में सराबोर थे. पालकी के पीछे पांच सवार घोड़ा बढ़ाए चले आते थे प्यास के मारे सबका बुरा हाल था. तालू सूखा जाता था. किसी वृक्ष की छांह और कुएं की तलाश में आंखें चारों ओर दौड़ रही थीं.
अचानक सारन्धा ने पीछे की तरफ़ फिर कर देखा तो उसे सवारों का एक दल आता हुआ दिखाई दिया. उसका माथा ठनका कि अब कुशल नहीं है. यह लोग अवश्य हमारे शत्रु हैं. फिर विचार हुआ कि शायद मेरे राजकुमार अपने आदमियों को लिए हमारी सहायता को आ रहे हैं. नैराश्य में भी आशा साथ नहीं छोड़ती. कई मिनट तक वह इसी आशा और भय की अवस्था में रही. यहां तक कि वह दल निकट आ गया और सिपाहियों के वस्त्र साफ़ नज़र आने लगे. रानी ने एक ठण्डी सांस ली उसका शरीर तृणवत् कांपने लगा. यह बादशाही सेना के लोग थे.
सारन्धा ने कहारों से कहा-डोली रोक लो. बुन्देला सिपाहियों ने भी तलवारें खींच लीं. राजा की अवस्था बहुत शोचनीय थी किन्तु जैसे दबी हुई आग हवा लगते ही प्रदीप्त हो जाती है उसी प्रकार इस संकट का ज्ञान होते ही उनके जर्जर शरीर में वीरात्मा चमक उठी. वे पालकी का पर्दा उठा कर बाहर निकल आए. धनुष-बाण हाथ में ले लिया किन्तु वह धनुष जो उनके हाथ में इन्द्र का वज्र बन जाता था इस समय ज़रा भी न झुका. सिर में चक्कर आया पैर थर्राए और वे धरती पर गिर पड़े. भावी अमंगल की सूचना मिल गई. उस पंखरहित पक्षी के सदृश जो सांप को अपनी तरफ़ आते देख कर ऊपर को उचकता और फिर गिर पड़ता है राजा चम्पतराय फिर संभल उठे और फिर गिर पड़े. सारन्धा ने उन्हें संभालकर बैठाया और रो कर बोलने की चेष्टा की परन्तु मुंह से केवल इतना निकला-प्राणनाथ! इसके आगे मुंह से एक शब्द भी न निकल सका. आन पर मरने वाली सारन्धा इस समय साधारण स्त्रियों की भांति शक्तिहीन हो गई लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्रीजाति की शोभा है.
चम्पतराय बोले-सारन देखो हमारा एक वीर जमीन पर गिरा. शोक! जिस आपत्ति से यावज्जीवन डरता रहा उसने इस अन्तिम समय में आ घेरा. मेरी आंखों के सामने शत्रु तुम्हारे कोमल शरीर में हाथ लगाएंगे और मैं जगह से हिल भी न सकूंगा. हाय! मृत्यु तू कब आएगी! यह कहते-कहते उन्हें एक विचार आया. तलवार की तरफ़ हाथ बढ़ाया मगर हाथों में दम न था. तब सारन्धा से बोले-प्रिये तुमने कितने ही अवसरों पर मेरी आन निभाई है.
इतना सुनते ही सारन्धा के मुरझाए हुए मुख पर लाली दौड़ गई. आंसू सूख गए. इस आशा में कि मैं पति के कुछ काम आ सकती हूं उसके हृदय में बल का संचार कर दिया. वह राजा की ओर विश्वासोत्पादक भाव से देख कर बोली-ईश्वर ने चाहा तो मरते दम तक निभाऊंगी.
रानी ने समझा राजा मुझे प्राण देने का संकेत कर रहे हैं.
चम्पतराय-तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली.
सारन्धा-मरते दम तक न टालूंगी.
राजा-यह मेरी अन्तिम याचना है. इसे अस्वीकार न करना.
सारन्धा ने तलवार को निकाल कर अपने वक्षस्थल पर रख लिया और कहा-यह आपकी आज्ञा नहीं है. मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मरूं तो यह मस्तक आपके पद-कमलों पर हो.
चम्पतराय-तुमने मेरा मतलब नहीं समझा. क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओं के हाथ में छोड़ जाओगी कि मैं बेड़ियां पहने हुए दिल्ली की गलियों में निन्दा का पात्र बनूं?
रानी ने जिज्ञासा की दृष्टि से राजा को देखा. वह उनका मतलब न समझी.
राजा-मैं तुमसे एक वरदान मांगता हूं.
रानी-सहर्ष मांगिए.
राजा-यह मेरी अन्तिम प्रार्थना है. जो कुछ कहूंगा करोगी?
रानी-सिर के बल करूंगी.
राजा-देखो तुमने वचन दिया है. इनकार न करना.
रानी-(कांप कर) आपके कहने की देर है.
राजा-अपनी तलवार मेरी छाती में चुभा दो.
रानी के हृदय पर वज्रपात-सा हो गया. बोली-जीवननाथ! इसके आगे वह और कुछ न बोल सकी. आंखों में नैराश्य छा गया.
राजा-मैं बेड़ियां पहनने के लिए जीवित रहना नहीं चाहता.
रानी-मुझसे यह कैसे होगा?
पांचवां और अन्तिम सिपाही धरती पर गिरा. राजा ने झुंझला कर कहा-इसी जीवन पर आन निभाने का गर्व था?
बादशाह के सिपाही राजा की तरफ़ लपके. राजा ने नैराश्यपूर्ण भाव से रानी की ओर देखा. रानी क्षण भर अनिश्चित रूप से खड़ी रही लेकिन संकट में हमारी निश्चयात्मक शक्ति बलवान हो जाती है. निकट था कि सिपाही लोग राजा को पकड़ लें कि सारन्धा ने दामिनी की भांति लपक कर तलवार राजा के हृदय में चुभा दी.
प्रेम की नाव प्रेम के सागर में डूब गई. राजा के हृदय से रुधिर की धारा निकल रही थी पर चेहरे पर शान्ति छाई हुई थी.
कैसा हृदय है! वह स्त्री जो अपने पति पर प्राण देती थी आज उसकी प्राणघातिका है! जिस हृदय से आलिंगित होकर उसने यौवनसुख लूटा जो हृदय उसकी अभिलाषाओं का केन्द्र था जो हृदय उसके अभिमान का पोषक था उसी हृदय को सारन्धा की तलवार छेद रही है. किसी स्त्री की तलवार से ऐसा काम हुआ है?
आह! आत्माभिमान का कैसा विषादमय अंत है. उदयपुर और मारवाड़ के इतिहास में भी आत्म-गौरव की ऐसी घटनाएं नहीं मिलतीं.
बादशाही सिपाही सारन्धा का यह साहस और धैर्य देखकर दंग रह गए.
सरदार ने आगे बढ़कर कहा रानी साहिबा ख़ुदा गवाह है हम सब आपके ग़ुलाम हैं. आपका जो हुक़्म हो उसे ब-सरो-चश्म बजा लाएंगे.
सारन्धा ने कहा-अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना.
यह कह कर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली. जब वह अचेत हो कर धरती पर गिरी तो उसका सिर राजा चम्पतराय की छाती पर था.

 

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