ख़ुश रहना या दुखी रहना हमारे माइंडसेट पर निर्भर करता है. आप ख़ुश रहना चाहें तो हर स्थिति में ख़ुश रह सकते हैं, लेखिका मीनाक्षी विजयवर्गीय की प्यारी-सी कहानी ‘रोज़ नई-सी’ में एक छोटी लड़की यही बड़ा पाठ पढ़ाती है.
आज कुछ ऐसा समझ आया जिसे समझने में कभी-कभी ज़िंदगी पूरी हो जाती है. हम दिखावे की दुनिया में किसे ख़ुश करने चल पड़े हैं, कोई ख़ुश नहीं अपनी ज़िंदगी से. पर सच में ज़िंदगी को रोज़ नई-सी जिओ, तो बहुत ख़ुश रहोगे. रोज़ नई ना मान सको तो कोई बात नहीं, हफ़्ते 15 दिन में ही मान लो, पर जो मिला उसी में ख़ुश रहो, यह बात जितनी जल्दी हम समझ जाए उतना ही अच्छा. यह बात मुझे बस थोड़े समय पहले समझ में आई, जब एक छोटी-सी लड़की ने अपने हमेशा ख़ुश रहने का कारण बताया.
मैं जब दूसरी बार पिता बना, तब भी मेरे यहां पर बेटा हुआ. ख़ुशी भी थी और बेटी ना होने का ग़म भी. बेटे के जन्म के थोड़े समय बाद ही हमारे यहां बरसों से काम करने वाले सेवादार दादा के यहां पर पोती का जन्म हुआ, उसके जन्म से ही मेरा उसके प्रति लगाव रहा. शायद मेरे यहां बेटी ना होने की वजह से. जब भी मैं अपने बेटे के लिए कोई खिलौना या कपड़े लेकर आता तो उसके लिए भी लेकर आता. बेटे के 10वें जन्मदिन पर मैं कपड़े ख़रीदने के लिए गया. बेटे के लिए बढ़िया कपड़े लिए तो अचानक एक सुंदर सी फ्रॉक दिखी तो मैं उसे नन्ही शुभिका के लिए भी लेकर आ गया. और फ्रॉक देने मैं दादा के यहां पहुंचा. उसको फ्रॉक दिखाई तो वह बहुत ख़ुश हुई. उसकी ख़ुशी मेरी ख़ुशी बन गई… बेटे ने जन्मदिन पर नए कपड़े पहने, वह भी नई फ्रॉक पहन कर आई, मुझे दिखा कर बोली,‘‘कैसी लगी मेरी नई फ्रॉक?’’ गोद में उठाकर मैंने उससे कहा,‘‘बिल्कुल परी की तरह लग रही हमारी गुड़िया रानी.’’
थोड़े दिन बाद दिवाली आई. बेटे ने फिर नए कपड़े ख़रीदे. मैंने देखा दिवाली के दिन भी शुभिका ने वही फ्रॉक पहना, बहुत सुंदर लग रही थी. उस दिन वह सबसे कह रही थी,‘‘मेरे चाचा लाए हैं नई फ्रॉक.’’ थोड़े दिनों बाद वह एक शादी में जा रही थी, तब भी उसने वही फ्रॉक पहना, मुझे दिखाने के लिए आई और बोला,‘‘आज मैं कैसी लग रही हूं, मेरी नई फ्रॉक में?’’ मैंने बोला,‘‘एकदम राजकुमारी!’’
इधर बेटे के तो हर महीने ही नए कपड़े आ रहे थे. अगर कहते कि जन्मदिन वाले पहन लो तो, जवाब मिलता,‘‘वो तो सभी ने देख रखे हैं. फ़ोटोज़ सबको भेजे थे, सभी ने देखे होंगे, बार-बार वही नहीं पहनना.’’
कुछ महीनों बाद एक दिन वह उसी फ्रॉक को पहन कर आई. उसे उस दिन अपनी सहेली के जन्मदिन पर जाना था. फिर उसने मुझसे पूछा,‘‘आज कैसी लग रही हूं मैं नई फ्रॉक में?’’ मैंने कहा,‘‘बहुत ही प्यारी.’’ फिर मैंने कहा,‘‘अब यह नई कहां रही, पुरानी हो गई है.’’ उसने तुरंत कहा,‘‘किसने कहा, नई तो है.’’ मैंने बोला,‘‘दो-चार महीनों में तो सालभर पुरानी हो जाएगी. इतनी बार तो पहन लिया अब कैसे नई?’’
उसने बड़े ही सरल शब्दों में अपनी बात कह दी,‘‘अरे चाचा यह तो आपके मानने पर होता है कि नई है या पुरानी. अगर नई मानोगे तो रोज़ नई है वरना तो आज-कल में ही पुरानी हो जाएगी.’’ इतनी बड़ी बात इतने छोटे मुंह से, सुनकर मैं दंग रह गया.
दिल को छू गई उसकी बात़. कितना सही कहा मेरी गुड़िया ने! ऐसा कहकर मैंने उसे गले लगा लिया. उस दिन मैं जान गया कि कपड़े हों या ज़िंदगी, दोनों पर यह नियम बराबर लागू होता है. रोज़ नई मानकर ख़ुश हो जाना चाहिए. वास्तव में ज़िंदगी को रोज़ नई-सी मानकर ही जीना चाहिए. हर बार के नए कपड़े, नई-नई चीजों से ना तो हम ख़ुश रह सकते हैं, ना ही किसी को ख़ुश कर सकते हैं.
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