दहेज के लिए एक लड़की की हत्या पर लिखी शिवानी की यह कहानी दिल दहला देती है.
आरम्भ में ही स्पष्ट कर दूं यह कहानी नहीं है. कल, मैंने उसे सपने में न देखा होता तो शायद मेरी लेखनी गतिशील भी न होती.
हठात् कल रात वह चुपचाप आकर, मेरे पायताने बैठ गई थी, उसी वधू वेश में, जिसमें उसे आज से दस वर्ष पूर्व, इसी फ़्लैट में देखा था. न उसने कुछ कहा, न हिली, न डुली, फिर अपनी दोनों मेहंदी लगी गोरी हथेलियां, मेरे सामने फैलाकर वह फिक-से हंस दी. मैं हड़बड़ाकर उठ बैठी, सपना टूट गया, किन्तु सपने का आतंक नहीं गया.
दस वर्ष पूर्व भी मैं इसी फ़्लैट में रहती थी. नीचे के फ़्लैट की गृहस्वामिनी एक दिन अचानक मेरे पास एक छोटी-सी याचना लेकर उपस्थित हुईं. उनकी बड़ी बहन एवं भगिनीपति अपनी पुत्री का विवाह करने उनके फ़्लैट में आ रहे थे. क्या मैं उन्हें कुछ दिनों के लिए, अपने दो कमरे दे सकूंगी? वैसे अपने एकाकी जीवन में, मुझे किसी प्रकार का व्याघात अच्छा नहीं लगता, किन्तु प्रतिवेशियों के प्रति सामाजिक कर्तव्यबोध ने, साथ-साथ किसी की भी कन्या के विवाह में यह सामान्य-सा सहयोग देने की बलवती इच्छा ने स्वयं मेरी सुविधा, असुविधा को पीछे ढकेल दिया. मैंने स्वीकृति दे दी. विवाह तिथि आसन्न थी, इसी से देखते ही देखते अतिथियों की भीड़ जुटने लगी.
मुझे दो अत्यंत निरीह शान्त अतिथियों की मेज़बानी निभानी थी, कन्या के सौम्य पिता एवं वृद्ध पितामह! बड़े संकोच से, दोनों ही ने कृतज्ञतापूर्वक मेरा आभार प्रदर्शन किया,‘‘क्षमा कीजिएगा, आप ही को कष्ट देना पड़ा, पर हम आपको कोई भी कष्ट नहीं होने देंगे, केवल रात सोने के लिए आएंगे.’’ और सचमुच ही मुझे यह पता नहीं लगा कि मेरे यहां सर्वथा अपरिचित अतिथि आए हैं. उनके रहने से मुझे रंचमात्र भी असुविधा नहीं हुई. यही नहीं उनके जलपान, भोजन, चाय के साथ-साथ, मेरे लिए भी थाल लगकर आने लगा. शामियाना लग गया था, दरियों पर बीसियों दर्जन बच्चे नए-नए कपड़े पहन गुलांठें खाने लगे थे. हलवाई ने चूल्हे का विधिवत् पूजन कर कड़ाही चढ़ा दी थी. मैली बनियान को छाती पर चढ़ा, उन्नत उदर खुजाता हृष्ट-पुष्ट हलवाई बमगोले-से बूंदी के लड्डू और ढाल-सी मठरियां बनाता, बड़े-से टोकरे में रख रहा था कि सहसा शोर मचा,‘‘अशर्फी देवी जल गई!’’
मैंने भागकर बरामदे से झांका कि देखूं कौन जल गया. हलवाई बड़बड़ा रहा था,‘‘सब हरामखोर हैं, अब देखिए भाई साहब, दो मिनट के लिए इन्हें कड़ाही सौंपकर सुर्ती-खैनी खाने गया कि जलाकर राख कर दी.’’ फिर उसने एक जली स्याह मठरी को निकालकर पास खड़े कारीगर को डांटा,‘‘अब खड़ा मुंह क्या ताक रहा है, ज़रा-सी राख ला तो, कोयलों पर डाल, आंच मन्दी करूं.’’
‘‘कौन अशर्फी देवी जली कृष्णा?’’ मैं अपना कौतूहल रोक नहीं पाई और मैंने गृहस्वामिनी से पूछ लिया.
‘‘अरे मट्ठी जल गई,’’ उसने हंसकर कहा,‘‘हमारे यहां लड़की की ससुराल को ऐसे सवा सौ लड्डू और इक्यावन मट्ठियां भेजी जाती हैं, हर मट्ठी पर घर की बड़ी-बूढ़ियों का नाम लिखा जाता है, अशर्फी देवी बिट्टी की होनेवाली ददिया सास हैं; उन्हीं की नाम लिखी मट्ठी जल गई.’’ मुझे हंसी आ गई, अपने पीछे खड़े कन्या के पिता को मैं देख नहीं पाई थी.
‘‘अब देखिए ना,’’ वे खिसियाए स्वर में बोले,‘‘कैसे बेकार के रिवाज़ हैं पर एक हम हैं कि इन्हें मनाए जा रहे हैं, पर मजबूरी है, न करें तो सोचेंगे हम पैसा बचा रहे हैं.’’ कन्या के पितामह सारा दिन ही सड़क पर टहलते रहते. मैंने एक दिन देखा, इधर-इधर देखकर उन्होंने एक ठेलेवाले को रोककर चार केले ख़रीदे और जल्दी-जल्दी खा गए. घर का आंगन तो मिष्टान्न-पकवानों की सुगंध से सुवासित हो रहा था. फिर ये बेचारे भूखे कैसे रह गए? कन्या के पिता को नीचे जाने में ज़रा भी विलम्ब होता तो नीचे से कर्कश स्वर में कन्या की मां अधैर्य से पुकारने लगतीं,‘‘सोते ही रहोगे क्या? अमीनाबाद से रजाई का बक्सा कौन लाएगा, मेरा बाप?’’
मैं स्तब्ध रह गई थी, यह जानकर भी कि पति एक सर्वथा अपरिचित गृह का अतिथि है और मेज़बान भी बरामदे में खड़ी है, ऐसी औद्धत्यपूर्ण-अशालीन भाषा का प्रयोग!
‘‘असल में, अचानक ही विवाह तिथि निश्चित हुई, उस पर वर पक्ष का आग्रह था कि हम लखनऊ आकर ही विवाह करें, इसी से बेचारी कुछ घबड़ा गई है, उस पर हाई ब्लड प्रेशर है, आप अन्यथा न लें.’’ कन्या के पिता ने पत्नी की अशिष्टता की कैफ़ियत दी तो मैंने हंसकर कहा,‘‘कन्या के विवाह में किस मां का पारा नहीं चढ़ता? कौन पत्नी पति पर नहीं बरसती? मैंने भी तीन-तीन कन्यादान किए हैं.’’
आश्वस्त होकर वे चले गए, किन्तु जिस दिशा को जाते, बेचारे पत्नी के शब्दबेधी वाणों से निरन्तर शरविद्ध होते रहते.
‘‘हद है, सौ बार कह चुकी हूं कि बैंक से रेजगारी लानी है, नए नोट लाने हैं, अरे आख़िर कब नोट आएंगे और कब उनकी माला बनेगी! पर कोई सुने तब ना न अभी तक हलवाई को बयाना दिया गया है, न सकोरे-पत्तलों का इन्तज़ाम हुआ है, आख़िर आप कर क्या रहे थे अब तक?’’ जितना ही कर्कश स्वर पत्नी का था, उतनी ही कोमल स्वर पति का था. गुनगुनाकर न जाने क्या कहते कि उत्तर सुन नहीं पाती. रवीन्द्रनाथ ने नारी के दो रूपों का वैशिष्ट्य बताया है ‘जननी या प्रिया’. मेरी धारणा है कि पुरुष के भी दो ही रूप हैं स्वामी या सेवक. बेचारे मेरे अतिथि दूसरी श्रेणी में आते थे. लगता था उनका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है. उस दबंग स्वर की गरीयसी स्वामिनी को देखने का कौतूहल ही मुझे वहां खींच ले गया. उनके दीर्घांगी मेद-बहुल शरीर को देखकर मुझे लगा कि उस व्यक्तित्व के चैखटे में, वह रोबीला कंठ-स्वर एकदम ठीक ही बिठाया है विधाता ने.
‘‘आपने बड़ी कृपा की,’’ कन्या की मां ने बड़े आदर से मुझे बिठाया,
‘‘वहां तो हमारी इत्ती बड़ी कोठी है कि सौ मेहमान भी आ जाएं तो पता न लगे, पर लड़केवालों की ज़िद थी कि हम यहीं आकर शादी करें. अरी दिव्या, क्या कर रही है, यहां आकर देख कौन आया है.’’ फिर मेरी ओर देख वे हंसकर बोलीं,‘‘अजी आपकी किताबों के पीछे तो यह दीवानी है. एक कहानी नहीं छोड़ती.’’ बेचारी! तब क्या वह जानती थी कि एक दिन उसे भी मेरी कहानी नहीं छोड़ेगी!
एक गोरी दुबली-पतली किशोरी, लज्जावनता मेरे सम्मुख खड़ी थी. चेहरे पर वही अद्भुत लुनाई आ गई थी, जो विवाह-तिथि निश्चित होने पर साधारण नैन-नक्शवाले चेहरे को भी असाधारण बना देती है. जिसने भी उसका नाम रक्खा था वह निश्चय ही साहित्य-रसिक रहा होगा. मेरा अनुमान ठीक था. ‘‘एक बार सुमित्रानन्दन पन्तजी हमारे यहां आए थे, तब यह तीन साल की ही थी, हम इसे टुंइया कहकर पुकारते थे, बोले, ‘‘यह भी भला कोई नाम है, दिव्या कहकर पुकारो’, बस तभी से यह दिव्या हो गई.’’
‘‘यह तो अभी बहुत छोटी है, आप अभी से इसकी शादी किए दे रही हैं.’’ मैंने कहा.
‘‘अजी छोटी काहे की, अठारहवें में पड़ेगी, देखने की है बजरबौनी. इसकी उमर में तो हमारी दो बेटियां हो गई थीं.’’
उसी दिन दिव्या के पिता ने मुझे बताया कि उनकी भी इच्छा अभी दिव्या का विवाह करने की नहीं थी, पर लड़का अच्छा मिल गया, उनकी इस साली ने ही रिश्ता पक्का किया था.
‘‘आप तो जानती हैं, हम लोगों में अच्छे लड़के के लिए अच्छी-ख़ासी रकम देनी पड़ती है. दुर्भाग्य से हम कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं, हमारे यहां एक प्रकार से रेट बंधे हैं, आई.ए.एस. लड़का है तो सवा लाख, आई.पी.एस. तो एक लाख, इंजीनियर है तो अस्सी हजार और फिर साधारण नौकरीवाले के लिए भी कम-से-कम बीस हजार, उस पर दहेज अलग, डॉक्टर लड़के तो कन्धे पर हाथ नहीं धरने देते. यानी जैसा दाम ख़र्च कर सको वैसी ही चीज़ लो. कभी-कभी तो सोचता हूं बहनजी, बिहार में जो कन्या के पिता, सुपात्रों का अपहरण कर ज़बरन दामाद बना रहे हैं उसमें भी उनकी मजबूरी ही रहती होगी…’’
‘‘तो आपको इस रिश्ते में भी रकम भरनी होगी?’’ मैंने पूछा.
‘‘और नहीं तो क्या? पर ये लोग शरीफ़ हैं, इन्हें लड़की पसन्द है, कहा है कुछ नहीं मांगेंगे, हम अपनी बिटिया को जो देना चाहें दे दें.’’ बड़े गर्वजन्य सन्तोष से उनका शान्त चेहरा दमक उठा. बेचारे शायद इस कटु सत्य से अनभिज्ञ थे कि मुंह से कुछ न मांगनेवाले ही कभी-कभी मुंह खोलकर सब कुछ मांगनेवालों से भी अधिक ख़तरनाक होते हैं!
लड़का चार्टर्ड एकाउंटैंट था. अपनी दो-दो कोठियां थीं, बड़ा भाई पुलिस का ऊंचा अफ़सर था, छोटा डॉक्टर. जैसे-जैसे विवाह-तिथि निकट आ रही थी, छोटे-से फ़्लैट में रौनक की गहमागहमी बढ़ती जा रही थी. कभी ठेलों से सोफ़ासेट, पलंगों का जोड़ा उतारा जा रहा था, कभी स्टील की अलमारी और फ्रिज. उधर घरातियों के बीसियों नखरे, कोई ठंडाई की फरमाइश कर रहा था, कोई लस्सी की, आंगन में पड़े कुर्सियों के स्तूप का शिखर, मेरे फ़्लैट की सरहद से सट गया था. बच्चों की चें-चें, पें-पें, स्त्रियों का कलरव, सन्ध्या होते ही और घनीभूत हो उठता. उधर कन्या के ताऊ-ताई बुलन्दशहर से अचानक उस समय आ टपके थे जब उनके आने की आशा त्याग दी गई थी. कभी-कभी नीचे चल रहे दो बहनों के वार्तालाप का स्वर बड़े दुःसाहस से मेरे कमरे की दीवालों को भेदकर चला आता. स्पष्ट था कि कन्या की जननी एवं ताई के सम्बन्ध बहुत सुविधाजनक नहीं थे.
‘‘अरी आज तक कोई जिठानी देवरानी का सुख देख सुखी हुई जो हमारी महारानी होगी?’’ कन्या की मां एक दिन कह रही थी,‘‘बोलेंगी तो लगेगा शहद घोल रही हैं, पर बस चले तो हमारा कलेजा निकाल चबाय डारे.’’
मैं सोचती हूं नारी स्वभाव की जितनी अभिज्ञता विवाहादि अनुष्ठानों में बटोरी जा सकती है उतनी शायद जीवन-भर इधर-उधर विभिन्न गृहों के अन्तरंग कक्षों में झांक-झूंककर नहीं बटोरी जा सकती. मैं देख रही थी कि जहां आमोद-प्रमोद, खिलाने-पिलाने, नाचने-गाने की भूमिका संजोई जाती, झट से मुंह लटकाकर कन्या की ताई छत की मुंडेर पकड़ ऐसे खड़ी हो जाती जैसे वह किसी अपरिचित परिवार की भूल से न्योती गई अतिथि हो. कोई भी देखकर बता सकता था कि गृह की वह साज-सज्जा, बृहत् सुनियोजित आयोजन, बिजली की जगमगाहट कन्या के चढ़ावे में आनेवाले गहनों का सुना-सुनाया लेखा-जोखा ताई की छाती पर बीसियों विषधरों को लोटा रहा है. उधर कन्या की मां कमर में आंचल खोंसे विवाह के कर्मक्षेत्र में अकेली डटी थी. कभी पति पर चिंघाड़तीं, कभी हलवाइयों पर और सन्ध्या होते ही ढोलक लेकर बैठ जातीं, यही नहीं, एक बार नाचने को कहा गया तो चट घुंघरू बांध ऐसा थिरकीं कि क्या कोई बाईजी नाचेगी:
कहना तो मेरा मान ले,
मेरे शहज़ादे.
विवाह का एक ही दिन रह गया था, अचानक मेरे लिए नीचे से बुलौआ आ गया, मैं जल्दी नीचे चली आऊं, वरपक्ष के अतिथि दहेज सामग्री का अवलोकन करने आ रहे हैं. यह भी उनके यहां की एक विशिष्ट अनिवार्यता थी. देखकर, यदि कुछ फेरबदल करना हो तो कन्या के पिता को वही करना होगा.
मैं नीचे गई और करीने से सजे विभिन्न उपकरणों को देखती ही रह गई. कौन-सी ऐसी वस्तु थी जो बेचारे निरीह पिता ने नहीं जुटाई थी. साड़ियों का स्तूप, टेलीविजन, फ्रिज, इस्तरी, बर्तन, रेशमी रजाइयां, लट्ठे-मलमल के थान, गैस का चूल्हा, सिलिंडर, बिजली के पंखे, आदि. इतने ही में अचानक स्त्रियों की भीड़ में भगदड़ मच गई. ‘आ गए, आ गए’ कहती कन्या की मां सिर पर आंचल खींच, द्वारपाल की मुद्रा में सतर्क खड़ी हो गई. कहां गई वह तेजस्वी मुखमुद्रा और थानेदार का-सा वह रौबीला कंठस्वर!
‘‘वह है नीली कमीजवाला.’’
‘‘अरे नहीं वह तो छोटा भाई है.’’
‘‘तब कौन?’’
‘‘अजी वह है चेचकरू दागवाला…’’
‘‘हाय राम, यह तो दो बच्चों का बाप लग रहा है?’’ विभिन्न फुसफुसाहटों के सूत्र से मैंने भी दूल्हे को पहचान लिया. तब क्या सचमुच इसी अन्धे के हाथ बटेर लगी थी? कहां दिव्या और कहां यह! किसी मांसहीन कंकाल को ही जैसे किसी ने पहना-ओढ़ा के भेज दिया था. हाथ में छड़ी लिए, पगड़ी बांधे ससुर, ऐसे चले आ रहे थे जैसे कोई राजप्रमुख प्रजा के बीच से गुजर रहा हो.
‘‘देखिए समधीजी,’’ साड़ियों के स्तूप की ओर वर के पिता ने छड़ी घुमाई, हमारे घर की रुचि ज़रा सोफ़ियानी है, वे ये सब तड़क-भड़क की बनारसी कभी नहीं पहनेंगी ये सब हटाकर कांजीवरम् और चंदेरी गढ़वाल रखवा दें. यही फ़रमाइश मेरी लड़कियों ने भी की है.’’ छड़ी से उन्होंने साड़ियों को ऐसे उथल-पुथल दिया जैसे कोई स्वास्थ्य निरीक्षक, सड़क की पटरी पर सड़ी-गली सब्ज़ी या खुले-कटे तरबूज का ठेला उलट देता है. मुझे बहुत बुरा लगा, यह भी कोई तरीक़ा है. कन्या पक्ष के इतने अतिथियों के सामने कन्या के पिता का ऐसा अपमान! अलग ले जाकर भी तो कह सकते थे. कन्या के पिता अन्त तक हाथ जोड़े, ऐसी व्यर्थ कृतज्ञ मुस्कानें बिखेरते रहे जैसे कह रहे हों, आपकी जूती मेरा सिर! चलते-चलते सहसा वर के पिता मुड़े,‘‘हमने तो आपसे कह ही दिया है, हम कुछ नहीं लेंगे. द्वाराचार में हमारा और हमारे अतिथियों का स्वागत ठीकठाक रहे, बस इसी का ध्यान रखिएगा.’’
बस, इसी आदेश के गूढ़ार्थ को बेचारा कन्या का पिता ग्रहण नहीं कर पाया. स्वागत तो अच्छा ही किया, अतिथियों के कंठ में अजगर-से पृथुल फूलों के हार भी पड़े. गुलाबजल का छिड़काव भी हुआ. वर के लिए कहीं से मर्सिडीज भी मांगकर फूलों से भरपूर सजाई गई. आमिश, निरामिष व्यंजन, विदेशी सुरा के क्रेट के क्रेट, क्या नहीं किया बेचारे ने. लड़की विदा होने लगी तो मां और मौसी को रोते-रोते गश आ गया, पर पिता हाथ बांधे समधी के सामने ऐसे खड़े हो गए जैसे दीनहीन चोबदार हों. एक ही रात में उनका दमकता चेहरा स्याह पड़ गया था. ‘‘आप लोगों के स्वागत में कोई त्रुटि हुई तो क्षमा करें’’ उन्होंने धीमे स्वर में कहा. समधी की आंखों से अभी तक रात की खुमारी नहीं उतरी थी. काले चेहरे पर आरक्त आंखें, इंजन के अग्नि स्तूप-सी चमक रही थीं. एक ही आनन को, दशानन की अहंकारी मुद्रा में हिलाते वे बोले, ‘‘क्या त्रुटि रह गई है, यह भला हम अपने मुंह से क्या कहें, हम तो आपके मेहमान हैं. पर हां, यह जो 500 आपने द्वाराचार में रखे हैं, यह लीजिए, इन्हें आप हमारी ओर से नाई, धोबी, महरी और सालियों को बांट दें.’’
अपमान से कन्या के पिता का चेहरा स्याह पड़ गया. मैं वहीं खड़ी थी, एक क्षण को उस निरीह व्यक्ति का अपमान स्वयं मेरा अपमान बन गया. जी में आया, नोटों की गड्डी, जिसे वर के पिता बरबस उनके हाथों में ठूंस रहे थे, छीनकर उन्हीं के मुंह पर दे मारूं! पर मुझे किसी के व्यक्तिगत कर्मक्षेत्र में कूदने का अधिकार ही क्या था!
रात को वे नित्य की भांति, चुपचाप अपने कमरे का ताला खोल रहे थे कि मैं टेलीफ़ोन की घंटी सुनने आई, उन्होंने निरीह दृष्टि से मुझे देखा और सिर झुका दिया जैसे दोपहर की उस भद्दी घटना का समग्र उत्तरदायित्व उन्हीं का हो.
‘‘चलिए सबकुछ निर्विघ्न सम्पन्न हो गया आपको बधाई भी नहीं दे पाई.’’
वे एक पल को चुप खड़े रहे फिर रुंधे गले से बोले,‘‘आप तो सब सुन ही रही थीं. कैसे विचित्र लोग हैं, पहले स्वयं कहा कि कुछ नहीं लेंगे, केवल कन्या के हाथ पीले कर, उन्हें सौंप दें. अब चलते-चलते पैंतरा बदल लिया. मुंह खोलकर कहते तो हम उनकी वह मांग भी पूरी कर देते. अब दिव्या की चिन्ता लगी रहेगी बहुत भोली है.
‘‘आज पिताजी ने वह सब नाटक देखा तो नाराज़ होकर कानपुर लौट गए, बोले कसाई को गाय थमाना हमने नहीं सीखा तुम और बहू ही यह लेन-देन निभाते रहो, हम चले.’’
‘‘आप चिन्ता न करें, सब ठीक हो जाएगा, ऐसी सुन्दर लड़की है आपकी, गुण-रूप देखकर अपनी सब मांगें भूल जाएंगे.’’
अब कभी-कभी सोचती हूं, नारी होकर भी मैं उन्हें एक नारी के प्रति हो रहे अन्याय का विरोध करने को क्यों नहीं उकसा पाई. क्यों नहीं कह सकी कि जो सगाई में ही ऐसे नीच लोलुप स्वभाव का परिचय दे गया, उसे क्यों अपनी कन्या सौंप रहे हैं आप? अभी क्या बिगड़ा है, तोड़ दीजिए यह सगाई.
विवाह हुआ था और बड़ी धूम से हुआ था, इसी से थकान उतारने में भी कन्या पक्ष को तीन-चार दिन लगे, फिर अचानक एक दिन कन्या के पिता मुझसे विदा लेने आए. उसी दिन, साली के यहां से डेरा-डंडा उखाड़ वह प्रवासी परिवार चला गया. मैं उन्हें पहुंचाने बाहर तक जाकर लौट रही थी कि देखा, उनकी दीवार पर, दो दुबली-पतली हल्दी सनी हथेलियों की छाप बनी है.
‘‘हमारे यहां ससुराल जाने से पहले लड़की यही छाप मायके की दीवाल पर लगा जाती है,’’ दिव्या की मौसी ने कहा. मन न जाने कैसा हो गया क्या पुत्री का यह स्मृति-चिद्द सदा अम्लान रह पाएगा?
धीरे-धीरे, प्रत्येक वर्ष की पुताई के साथ-साथ वह छाप धुंधली पड़ती-पड़ती, रेखा मात्र रह गई थी. दिव्या के मौसा की बदली हुई, वहां दूसरा परिवार आ गया, उन्होंने दीवाल पर डिस्टैम्पर करवाया और पूरे फ़्लैट का नक्शा ही बदल दिया.
एक दिन दिव्या की मौसी मिल गई,‘‘दिव्या कैसी है?’’ मैंने पूछा, उस मासूम चेहरे को मैं भूल नहीं पाई थी.
‘‘वह अब कहां है!’’ एक लम्बा सांस खींचकर उन्होंने कहा.
‘‘क्या?’’
‘‘विवाह के चार ही महीने बाद गैस पर खाना बना रही थी, नायलॉन की साड़ी पहने थी, आंचल में आग लगी मिनटों में ही झुलस गई, दूसरे ही दिन खतम हो गई.’’ भारी मन से मैं घर लौटी, दीवार देखते ही वे धूमिल हथेलियां जैसे वह खोलकर मेरे सामने खड़ी हो गई.
पर क्या सचमुच ही उसका आंचल अनजाने में आग पकड़ बैठा था.
उसकी विदा के क्षण, उसके ससुर का उग्र कंठस्वर, फिर कानों में गूंज उठा,‘क्या त्रुटि रह गई है, यह भला हम क्या बताएं’ उसी त्रुटि को बताने तो कहीं उस दशानन ने उस फूल-सी सुकुमार लड़की की हल्दी लगी हथेलियों की छाप सदा-सदा के लिए मायके की दीवार से नहीं मिटा दी? पर ऐसा कुछ हुआ होता तो उसकी मौसी कुछ तो बताती. पर जो मौसी नहीं कह पाई वह स्वयं उसकी मां आकर बता गई. किसी वक़ील की राय लेने लखनऊ आई थी, मुझसे मिलने भी चली आई. मुझे देखते ही रोने लगीं,‘‘आपके ऑटोग्राफ़ लेगी, कहती रही, शादी के भभ्भड़ में सब भूल गई. मार डाला कसाइयों ने, मैं भी नहीं छोड़ंईगी. मेरी कोख बलबला रही है बहन. ख़बर पाते ही मैं अस्पताल भागी, लड़की तड़प रही थी. बहन ने कहा,‘जीजी, तुम मत जाओ, देखा नहीं जा रहा है.’ पर मैंने उसे धकेल दिया. ओफ, मेरी सोने की छड़ी जलकर कोयला बन गई थी. थोड़ा-थोड़ा होश था. मैंने पूछा,‘बेटी, कैसे हुआ यह?’ बोली,‘अम्मा हुआ नहीं, किया गया,’ बस, आंखें पलट दीं.
‘‘न वहां उस बयान का साक्षी था, न नर्स, न डॉक्टर हां, एक साक्षी थी, स्वयं मेरी सगी बहन, वह मुकर गई.
‘‘मैंने चीख-चीखकर कहा,‘मेरी बेटी जली नहीं, उसे जलाया गया है, मुझसे स्वयं कह रही है.’
‘‘पर मेरी ही सगी बहन ने मेरा मुंह दाब दिया,‘क्या कह रही हो जीजी! दिव्या खाना बनाने में जली है, उसे किसी ने नहीं जलाया.’
‘‘‘तू झूठी है, तेरे पति भी पुलिस के अफ़सर हैं और दिव्या का जेठ भी, तुम्हारी बिरादरी हमेशा अपने पेशेवर को ही बचाती है. तूने ही यह रिश्ता इन कसाइयों से पक्का किया था.’ पर बहन, मेरी सगी बहन ही मुझसे नाराज़ होकर घर चली गई तब से दर-दर भटक रही हूं, कहीं तो न्याय की भीख मिलेगी. हत्यारा अभी भी मूंछों पर ताव देता घूम रहा है, सुना है दूसरी जगह रिश्ते की बात चल रही है.’’
मैं स्तब्ध थी. वह आंखें पोंछती उठ गईं,‘‘इसी से मैं आपके पास आई हूं कृष्णा के यहां नहीं गई, फ़ोन किया तो बोली,‘जीजी, तुमने पुलिस केस किया तो हम तुम्हारी मदद नहीं कर पाएंगे, जो हुआ उसे भूल जाओ.’ भूल जाऊं? दस महीने जिसे गर्भ में रखा, पाला-पोसा, जिस अनजान खूंटे से बांधा वहीं गाय-सी जो बंध गई, उसे भूल जाऊं? मैंने भी श्राप दिया है बहन, जैसे उस कसाई ने मेरी बेटी को जलाया है वैसे ही वह भी तिल-तिलकर जले!’’ उनकी आंखों से जैसे आग की लपटें निकल रही थीं.
सच्चे हृदय से निकली बद्दुआ कभी व्यर्थ नहीं जाती. वर्षों पूर्व ऐसे ही श्राप को फलीभूत होते मैंने स्वयं देखा है अल्मोड़ा के ही एक ऐसे सच्चे ब्राह्मण के श्राप ने क्या तत्कालीन जेलर को रात बीतते-न-बीतते चुटकियों में निष्प्राण नहीं कर दिया था? कुमाऊं केसरी बद्रीदत्तजी तब स्वतन्त्रता संग्राम में जेल में बंदी थे, क्रूर जेलर के अमानुषिक अत्याचार से क्रुद्ध पांडेयजी ने नहा-धोकर हाथ में जल लेकर कहा था,‘‘अरे दुष्ट, ले मैं कुमाऊं का ब्राह्मण तुझे श्राप देता हूं, जैसे तू हमें मार रहा है, भगवान तुझे मारे.’’ और भोर होते ही दिल के दौरे ने उस हृष्ट-पुष्ट जेलर को जेल से ही नहीं संसार से हटा दिया था. फिर तो जहां पांडेयजी जल हाथ में लेते, सुना है कि बड़े-से-बड़े अफ़सर भी उनके चरण पकड़ लेते थे. किन्तु अब कहां हैं वैसे सच्चे ब्राह्मण और कहां है वह ब्रह्मतेज. इतने वर्ष बीत गए, फिर दिव्या की मां मुझे कभी नहीं मिली, पता नहीं उनके दग्ध हृदय से निकला वह श्राप, फलीभूत हुआ या नहीं किन्तु मेरे फ़्लैट की निचली दीवार से, हल्दी लगी उन हथेलियों की छाप अब एकदम ही विलीन हो चुकी है.
Illustration: Pinterest