छोटी कविताएं अक्सर सोचने के लिए बड़ा कैनवास दे जाती हैं. जब कविता ओमप्रकाश वाल्मीकि की हो तो यह कैनवास थोड़ा और बड़ा हो जाता है. कविता ‘ठाकुर का कुआं’ उस वंचित तबके के दर्द की नुमाइंदगी करती है, जो खेत, गांव, शहर और देश में वह चीज़ तलाश रहा है, जिसे वह अधिकार और गर्व के साथ अपनी कह सके.
चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुआं ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
गांव?
शहर?
देश?
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