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ट्रैवल डायरी: तिब्बत की यह पेंटिंग और इसके गहरे मायने

पर्यटन, केवल घूमना ही नहीं, बल्कि उस जगह को समझना और महसूस करना होता है

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
January 30, 2023
in ज़रूर पढ़ें, ट्रैवल, लाइफ़स्टाइल
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अपनी तिब्बत यात्रा के दौरान जानेमाने पत्रकार, लेखक व कवि चंद्र भूषण की नज़र एक ऐसी पेंटिंग पर पड़ी, जो कई जगह दिखाई दी. चार जीवों की संगति वाली इस पेंटिंग के मायने गहरे हैं, जिन्हें यहां बताया गया है. जब कभी आप तिब्बत जाएं तो इस पेंटिंग पर ग़ौर ज़रूर कीजिएगा. इस पेंटिंग के बारे में जब आपको पहले से जानकारी होगी तो आप ख़ुद को जागरूक महसूस कर सकेंगे, क्योंकि आपको पता होगा कि धर्म को परिवेश से कैसे जोड़ा जाता है.

 

हाथी के ऊपर बंदर और बंदर के ऊपर खरगोश… ऐसी पेंटिंग मुझे तिब्बत में कई जगह दिखी थी. इसे सारनाथ स्थित तिब्बती विश्वविद्यालय में भी देखकर मैंने वहां इतिहास के एक आचार्य से पूछा कि तीन अलग-अलग जानवरों का यह साहचर्य क्या किसी कथा का इलस्ट्रेशन है? उन्होंने कहा, ‘आपके देखने में एक बड़ी चूक हो रही है. ग़ौर से देखेंगे तो चित्र में तीन नहीं, चार जानवर नजर आएंगे. खरगोश के सिर पर एक छोटी सी चिड़िया भी है और ये चारों जीव एक विशाल पेड़ के नीचे हैं.’ मैंने पूछा, इस चित्र की कहानी क्या है?

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उन्होंने कहा, ‘कहानी नहीं, संदेश है कि किसी की महत्ता उसके आकार-प्रकार से नहीं, उसकी दूरदृष्टि से आंकी जानी चाहिए. साथ ही यह भी कि समाज में सबकी अपनी-अपनी जगह है, सभी आपस में मिल-जुलकर रह सकते हैं.’

मुझे यह बात कुछ समझ में नहीं आई. बुद्ध का धर्म इतने हल्के और अमूर्त संदेशों से तो नहीं बना है. बाद में यह चित्र मैंने और जगहों पर देखा और भारत में रह रहे तिब्बती बच्चों की तीसरी क्लास की भाषा पुस्तक में तो इस तरह का एक पाठ ही था- ‘चार जीवों की संगति’ (फ़ोर ऐनिमल्स इन हार्मनी). यह जानकारी भी मिली कि हाथी, बंदर और खरगोश हर जगह मिलने वाले चित्र में एक से हैं, लेकिन चिड़िया की नस्ल अलग-अलग है.

तिब्बती चित्रों में यह ठीक से न पहचान में आने वाली कोई छोटी चिड़िया है, लेकिन बाक़ी जगहों पर कहीं यह तीतर है, कहीं बटेर. नॉर्थ-ईस्ट के इलाकों में यह धनेस है और सिक्किम-भूटान में धनेस से कम मोटी चोंच वाली, लेकिन वैसी ही लंबी पूंछ वाली और आकार में तिब्बती चिड़िया से जरा बड़ी कोई और चिड़िया. तिब्बत में तेरहवें दलाई लामा द्वारा जारी तिब्बती स्वतंत्रता की प्रतीक मुद्रा पर भी यही चित्र विराजमान है. भूटान जाने का मौक़ा मुझे अभी तक नहीं मिला है, लेकिन यह जानकारी ज़रूर हासिल हो गई है कि वहां यह कमोबेश एक राजचिह्न की तरह हर जगह दिखता है.

खोजबीन से पता चला कि यह कथा सुत्तपिटक और विनय पिटक, दोनों जगह भिन्न व्याख्याओं के साथ मौजूद है. जातक कथाओं के संकलन में इसपर मोहर सी लगाई गई है. सूत्ररूप में गौतम बुद्ध ने इसे एक कथा की तरह सुनाया है जबकि ‘तित्तिर जातक’ नाम की जातक कथा के अंत में ऐसी हर कथा की तरह यह बुद्ध वाक्य आता है- ‘वह चिड़िया मैं था.’ तित्तिर जातक नाम से जाहिर है कि मूल कथा में चिड़िया तीतर रही होगी, जिसकी पहचान उड़ने से ज़्यादा दौड़ने से जुड़ी है.

बहरहाल, आधुनिक व्याख्याकार चारों जीवों की जगह तय करने में लंबा वितान तानते हैं- चिड़िया आकाश में, बंदर पेड़ पर, हाथी ज़मीन पर और खरगोश ज़मीन के नीचे. कुल मिलाकर चार जीवों में पूरी सृष्टि! वास्तव में इस कथा की ज़मीन यह है कि बुद्ध एक बार अपना दायां हाथ कहलाने वाले सारिपुत्त को नए भिक्षुओं द्वारा पर्याप्त सम्मान न दिए जाने को लेकर कुछ क्षुब्ध हो गए और उन्हें यह क़िस्सा सुनाया.

चार मित्रों हाथी, बंदर, खरगोश और चिड़िया में एक बार यह बताने की होड़ लग गई कि उनमें किसने ज़्यादा दुनिया देख रखी है. हाथी ने कहा कि जब वह जवान हुआ तब इस विशाल पेड़ की ऊंचाई उससे थोड़ी ही ज़्यादा हुआ करती थी. बंदर ने कहा कि इस पेड़ को उसने उस हाल में देखा है जब इसकी शाखाएं उछलने लायक भी नहीं थीं. खरगोश ने बताया कि उसने तो इसको छोटे पौधे की दशा में देख रखा है. फिर अंत में पंछी बोला कि यह पेड़ उसी की बीट से जन्मा है.

कहानी का उद्देश्य भिक्षुओं को यह समझाना था कि सारिपुत्त जैसे कम बोलने वाले चिंतकों को ज़्यादा ध्यान से सुनें. किसी बड़ी बात तक पहुंचने के लिए भारी-भरकम दिखने वाले बड़बोले, चमत्कारी लोगों के आगे-पीछे ही न डोलते रहें.

ख़ैर, पता नहीं कैसे इस कहानी के कई रूप बौद्ध दायरों की चर्चा में आते गए और इससे अलग-अलग संदेश ग्रहण किए जाने लगे. तिब्बती परिवेश में इसको चार जीवों की लयदार संगत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. चिड़िया ने बीज रोपा, बंदर ने खाद डाली, खरगोश ने पानी दिया और पौधा खड़ा हो गया तो हाथी ने उसकी रक्षा करके विशाल पेड़ में बदल दिया. इसे धर्म और संस्कृति के संरक्षण में हर किसी के अलग योगदान की संभावना की तरह भी देखा जा सकता है.

कहानी किन-किन रूपों में मौजूद है, कहां-कहां किस-किस तरह इसे ग्रहण किया गया, यह स्वयं में बौद्ध धर्म के सभ्यतागत वैविध्य का एक उदाहरण है. थेरवाद, महायान, वज्रयान, और तीनों के न जाने कितने पंथ. फिर भी नेपाल, तिब्बत, चीन, मंगोलिया, कोरिया, जापान, थाईलैंड, बर्मा, लाओस, श्रीलंका और अन्य बौद्ध देशों में भी मठों से लेकर महलों तक जगह-जगह चटख-चमकीले रंगों में बना हुआ यह चित्र आपको देखने को ज़रूर मिल जाएगा. एक छतनार पेड़ के नीचे खड़ा हाथी, उसकी पीठ पर बैठा बंदर, उसके कंधों पर खरगोश, जिसके सिर पर कोई सुंदर स्थानीय चिड़िया. धर्म को वहां के परिवेश से जोड़ने वाला एक पुराना प्रतीक.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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