उत्तर वैदिक काल के भारतीय समाज को धार्मिक कुरीतियों और रूढ़िवाद ने अपने चंगुल में फंसा रखा था. उस समय दो क्रांतिकारी धर्मों ने दिग्भ्रमित समाज को नई राह दिखाई थी. एक था गौतम बुद्ध द्वारा शुरू किया गया बौद्ध धर्म और दूसरा जैन धर्म. वैसे तो जैन धर्म बौद्ध धर्म से भी प्राचीन था, किंतु उसे आम जनमानस में लोकप्रिय बनाने में उसके चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी का अहम योगदान रहा. पर्यूषण पर्व के शुभ अवसर पर हम जैन स्कॉलर विनोद ओस्तवाल जी से जैन धर्म, सिद्धांत, मान्यताओं, उसके विभिन्न पंथों के बारे में जानकारी देनेवाले नियमित कॉलम ‘जैन दर्शन’ की शुरुआत कर रहे हैं. पहली कड़ी में आज हम जैन धर्म के तेरापंथ शाखा की बात करने जा रहे हैं.
कालांतर में जैन धर्म की दिगंबर और श्वेतांबर ये दो प्रमुख शाखाएं हुईं और इन शाखाओं में कई पंथ हुए. आज हम जिस तेरापंथ की बात करने जा रहे हैं, वह श्वेतांबर शाखा का एक पंथ है. आइए, कुछ सवालों के माध्यम से इस पंथ को समझने का प्रयास करते हैं.
तेरापंथ बनाने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई?
जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है. मूल रूप से सभी महावीर स्वामी के ही शिष्य हैं और रहेंगे. जब भिक्षु नाम के एक संत ने देखा कि जिस उद्देश्य के लिए हमने दीक्षा ली है, उस उद्देश्य की पूर्ति बड़ी ही शिथिलता से हो रही है, तो उन्होंने अपने गुरु से निवेदन किया कि हम साधु बने हैं, हमने घर संसार छोड़ा है तो हमें पूरी मर्यादा से अपने नियमों का पालन करना चाहिए. तो उनके गुरुजी ने कहा,‘यह कलयुग है, यहां जितना हो जाए, वही पर्याप्त है. आप इस बात पर ध्यान मत दो.’ उन्होंने एक बार और निवेदन किया. गुरु से फिर उसी तरह का उत्तर सुनकर उन्होंने कहा,‘अगर ऐसा है तो मुझे आज्ञा दीजिए, मैं कुछ अलग करना चाहता हूं.’ इसके पीछे मूल भावना यह नहीं थी कि हमें अलग पंथ बनाना है. बस उन्हें साधना का मार्ग थोड़ा और बेहतर बनाना था.
इस अलग पंथ को तेरापंथ यह नाम कैसे मिला?
यह सन 1760 की बात है. मुनि भिखण के नेतृत्व में एक नए पंथ की स्थापना हुई. मुनि भिखण आगे चलकर इसके प्रथम आचार्य मनोनित किए गए. उन्हें नाम मिला भिक्षु स्वामी. शुरुआत भिक्षु स्वामी समेत इसमें कुल छह साधु और सात श्रावक थे. जिससे तेरह लोगों का समूह बना. जोधपुर के बाज़ार में एक बार ये सभी सामयिक कर रहे थे. जब जोधपुर के दरबार के एक कवि ने इस समूह को सामयिक करते देखा, पूछने पर पता चला कि यह जैन धर्म का ही एक समूह है, जिसने कुछ मतभेद होने के कारण अपने कुछ अलग नियम बना लिए हैं. उस कवि ने तेरह लोगों की संख्या को देखते हुए कहा,‘यह तेरह पंथ है.’ भिक्षु स्वामी ने जब यह बात सुनी तो उन्होंने आसमान की ओर हाथ उठाकर कहा,‘हे प्रभो, यह तेरापंथ है!’
ऐसा नहीं था कि जैन धर्म के अनुयायियों ने भिखण स्वामी के इस नए समूह को हाथोंहाथ लिया. तेरापंथ के लोगों को शुरुआत में काफ़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. जैसे ही कोई व्यक्ति किसी बड़े समूह या संस्थान से अलग होकर नई राह पर चलने का फ़ैसला करता है, उसको जज करने के लिए अलग-अलग तरह के लोग आ जाते हैं. आचार्य भिक्षु जी का बड़ा विरोध हुआ. उनके बारे में बातें बनाई जाने लगीं कि इन्हें ख़ुद आचार्य बनना था इसलिए नया पंथ बना लिया. हर जगह मुनादी करा दी गई कि जब यह संत आएं, तो इन्हें कोई गोचरी यानी खानपान और स्थान (ठहरने की जगह) न दे. चूंकि जैन संतों के पास अपना कुछ नहीं होता, सबकुछ समाज से ही मिलता है. ऐसे में भिक्षु स्वामी के सामाजिक विरोध का आह्वान करके उन्हें परेशान करने और हतोत्साहित करने का पूरा प्रयास किया गया.
कब और कैसे, इस नए पंथ से लोगों ने जुड़ना शुरू किया?
भिक्षु स्वामी विचरण करते-करते राजस्थान के राजसमंद ज़िले के केलवा नामक स्थान पहुंचे. लोगों ने उनके ठहरने की व्यवस्था की, पर उसके पीछे भावना अलग थी. दरअसल, आचार्य जी को जिस जगह ठहराया गया, कहते थे कि वहां यक्ष रहते थे. जो भी व्यक्ति वहां रात को ठहरता, जीवित नहीं बचता. इस तरह आचार्य भिक्षु को वहां ठहराने से दो काम हो जाते. एक तो यक्ष उन्हें रात को ख़तम कर देते, जैसा कि ज़्यादातर लोग चाहते थे और दूसरा काम यह कि साधु हत्या का पाप किसी को नहीं लगता.
रात को एक सहायक संत भारमल जी को लघु शंका के लिए जाना था. जैन धर्म में जब संतों को रात को लघु शंका का निवारण करना हो तो वे एक बर्तन में लघुशंका कर लेते हैं और उसके बाद उसे किसी सूखी ज़मीन पर त्याग देते हैं, ताकि इससे किसी जीव-जंतु को नुक़सान ना हो. भारमल जी जब लघु शंका का विसर्जन सूखी ज़मीन पर करने के लिए गए तो उनके पैरों में एक सांप लिपट गया. भिक्षु जी को जब इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने सर्प से प्रार्थना की,‘हम जानते हैं कि यह आपका क्षेत्र है. हम यहां रात्रि में साधना करने के पश्चात सुबह चले जाएंगे, कृपया हमें इसकी अनुमति दें.’ सर्प ने उनकी बात मान ली. जब समूह के लोगों ने साधना शुरू की तो यक्ष भी प्रकट हुआ और उसने कहा,‘मुझे आप लोगों से कोई समस्या नहीं है. आप यहां आराम से साधना कीजिए, पर यहां मेरा एक चबूतरा है, सिर्फ़ उसपर मत बैठना.’ भिक्षु स्वामी ने उसकी बात मान ली. यक्ष ने जब साधना देखी तो उसे विश्वास हुआ कि यह काफ़ी पहुंचे हुए संत हैं. वह भी प्रवचन सुनने बैठ गया. उसका भी मन बदल गया. साधु-संतों की रात बड़े अच्छे से बीत गई.
सुबह जब गांव वाले यह सोचकर आए कि सभी लोग मर गए होंगे. चलो उनका दाह-संस्कार करके आते हैं. उन्होंने देखा कि सभी साधु-संत अपने-अपने काम में लगे, अपनी-अपनी साधना कर रहे हैं. उन्हें आश्चर्य हुआ और यह समझ भी आया कि ये कोई सामान्य साधु नहीं हैं. हमें इन्हें अन्यथा नहीं लेना है. उस गांव के लोगों ने भिक्षु स्वामी को गुरु मान लिया और सबसे पहले केलवा गांव के लोगों ने भिक्षु स्वामी से दीक्षा ली. इस प्रकार तेरापंथ की लोकप्रियता बढ़ती गई.
केलवा में वह स्थान आज भी है. उसे ‘अंधेरी ओवरी’ अर्थात अंधेरा कमरा कहा जाता है. वहां अंधेरा रहता था, इसलिए कमरे का यह नाम रखा गया. वह स्थान तेरापंथ का तीर्थस्थान है. तेरापंथ के अनुयायी वहां जाते हैं और अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं.
तेरापंथ के लोकप्रिय होने के क्या कारण रहे?
जैन धर्म के इस पंथ की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि भिक्षु स्वामी ने रूढ़िवाद का अंत किया. उन्होंने पूरे अनुशासन से धर्म पालना सिखाया. उसी प्रकार आनेवाले आचार्यों ने भी समय-समय पर अपने अवदान से तेरापंथ को चमकाया. महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए तेरापंथ में विशेष काम किए गए. उदाहरण के लिए पहले कोई महिला विधवा हो जाती थी तो वह बारह महीने तक घर से बाहर नहीं निकल पाती थी. उसे घर के एक कोने में रहना होता था. नौंवे आचार्य तुलसी स्वामी ने समझाया कि हमें ऐसा नहीं करना है. विधवा होने में उस महिला की क्या ग़लती है? उन्होंने विधवाओं को सम्मान देना शुरू कराया. विधवाओं का मुंडन कराने की परंपरा भी उन्होंने ही बंद कराई. लोगों के मन से यह भ्रांति भी उन्होंने ख़त्म की कि किसी भी शुभ काम में विधवाओं को शामिल नहीं कराना है. दूसरी कुप्रथा की बात करें तो किसी की मृत्यु के बाद बड़े-बड़े मृत्यु भोज के आयोजनों को उन्होंने बंद करवाया. उनका मानना था कि कर्ज़ लेकर आयोजन करने के बजाय मृतक की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना ज़रूरी है. आचार्य तुलसी ने अणुव्रत का अवदान दिया. वहीं 10वें आचार्य महाप्रज्ञ जी ने अहिंसा यात्रा व प्रेक्षा ध्यान का अवदान दिया. तेरापंथ के आचार्यों ने लोगों के जीवन को सरल और आडंबररहित बनाने की कोशिश की. यह काम उन्होंने ज़ोर-ज़बर्दस्ती से नहीं, बल्कि अपने प्रवचनों के माध्यम से किया. इस प्रकार अपनी सरलता और लोकहित की भावना के चलते तेरापंथ की लोकप्रियता बढ़ती गई.
जैन धर्म के दूसरे पंथों से तेरापंथ अलग कैसे है?
जैन धर्म में अनेकों पंथ हैं, पर मूल रूप से इसकी दो शाखाएं हैं-दिगंबर और श्वेतांबर. दिगंबर पंथ में मूर्ति पूजा का प्रचलन है. लोग मंदिरों में जाते हैं, मूर्तियां पूजते हैं. श्वेतांबर में मूर्ति का संबल लेकर कोई आराधना नहीं करते. किसी भी स्थान पर बैठकर भगवान की आराधना कर लेते हैं. दिगंबर मुनि बिना कपड़ों के रहते हैं. वहीं श्वेतांबर सफ़ेद वस्त्र धारण करते हैं. तेरापंथ श्वेतांबर का ही एक पंथ है. तेरापंथ के अलावा श्वेताबंर के जो दूसरे पंथ हैं, उसमें कोई साधु, किसी को भी दीक्षा देकर उसे अपना शिष्य बना सकता है. उनमें अनेक प्रकार के गुरु और अनेक प्रकार के शिष्य हैं. उनका आपस में थोड़ा-बहुत मतभेद चलता रहता है. लेकिन तेरापंथ में एक ही गुरु हैं. इसमें एक स्लोगन चलता है,‘एक गुरु और एक विधान’. अर्थात हमारे गुरु एक ही होंगे और नियम भी सबके लिए एक ही होगा. 1760 से, जब से तेरापंथ शुरू हुआ, इस परंपरा का निर्वाह हो रहा है. इसमें कभी कोई व्यवधान नहीं आया.
भिक्षु स्वामी ने तेरापंथ के लिए एक मर्यादा पत्र बनाया था. जिसे हम तेरापंथ का संविधान कह सकते हैं. उस मर्यादा पर चलना सभी साधु-संतों के लिए अनिवार्य है. दो सौ से अधिक वर्ष बीत गए, पर आपको जानकर आश्चर्य होगा पिछले सत्तर सालों में देश के संविधान में कई बार बदलाव किए गए, पर मर्यादा पत्र आज भी विधिवत उसी तरह चल रहा है. इसका प्रमुख कारण यह है कि उन्होंने जब मर्यादा पत्र बनाया था तो काफ़ी सोच-समझकर बनाया था. भविष्य में आनेवाले बदलावों का ध्यान रखा था. जिस दिन मर्यादा पत्र बनाया गया, उसकी याद में आज भी तेरापंथ के अनुयायी हर वर्ष मर्यादा महोत्सव मनाते हैं. साधु-संत श्रावकों को मर्यादा की याद दिलाते हैं.
वहीं श्वेताबंर के दूसरे पंथों में ऐसा कोई एक मर्यादा पत्र नहीं है. अलग-अलग साधु-संतों के अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार अपने नियम-क़ानून होते हैं, जिनका पालन उनके अनुयायिकों को करना पड़ता है. जबकि तेरापंथ में गुरु आज्ञा के बिना कोई साधु कुछ नहीं कर सकता. गुरु अर्थात अगला आचार्य चुनने की परंपरा भी यहां मर्यादा के अनुसार निभाई जाती है. मौजूदा आचार्य कुछ साधु-संतों के साथ या कभी अकेले भी अपने उत्तराधिकारी का चुनाव करते हैं. उनकी मृत्यु के पश्चात सभी साधु-संतों को बिना किसी विवाद के दिवंगत गुरु द्वारा चुने व्यक्ति को आचार्य स्वीकार करना होता है. ऐसे ही अब तक दस आचार्य हो चुके हैं. वर्तमान में ग्यारहवें आचार्य महाश्रमण जी हैं. उनकी देखरेख और मार्गदर्शन में तेरापंथ दिनों-दिन प्रगति कर रहा है.