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एक दिवाली ऐसी भी: डॉ संगीता झा की कहानी

डॉ संगीता झा by डॉ संगीता झा
November 6, 2021
in ज़रूर पढ़ें, नई कहानियां, बुक क्लब
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एक दिवाली ऐसी भी: डॉ संगीता झा की कहानी
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समय के साथ रिश्ते बदल जाते हैं. तीज-त्यौहार तो वही रहते हैं, पर उन्हें मनाने का रंग-ढंग बदल जाता है. लेखिका डॉ संगीता झा कहानी ‘एक दिवाली ऐसी भी’ में इन्हीं बदलावों को रेखांकित कर रही हैं.

“बच्चों जल्दी-जल्दी दीपक वाली थालियां हाथ में ले हर दरवाजे पर दीपक लगाते जाओ. अरे दिवाली है, आज ही के दिन तो मेरे राम जी अयोध्या पहुंचे थे. तुम लोग भी ना!”
दादी अम्मा दो घंटे से गुहार लगाए जा रही थी. पांच बड़ी-बड़ी थालियां ले सबमें बीस और एक आख़िरी थाली में इक्कीस दिए जला कर रखे थे. वो कम से कम इस दिवाली में एक सौ एक दिए जलाना चाहती थी. लॉकडाउन की वजह से उनके दोनों बेटे, तीनों नाती और इकलौती नकचढ़ी नातिन उनके पास है. सारा संसार कोरोना महामारी से परेशान और ये बूढ़ी दादी अम्मा तो जय लक्ष्मी मैय्या के बदले जय कोरोनाा मैय्या करने के लिए भी राज़ी है.
इस बार अब कोरोना के केसेस कम होने से सबके अलग-अलग प्लान बन गए थे. बच्चों का दोस्तों के साथ ताश और कुछ अलग-सी पार्टी का प्लान था. दोनो बेटों और बहुओं ने भी अपने अपने सर्कल में कुछ प्लान कर लिया था. दादी अम्मा की दिवाली घर की शीला और हरिपाल के साथ ही बीतने वाली थी. वो तो भला हो उनके स्वर्गवासी पति का इतनी बड़ी कोठी का निर्माण करते समय पीछे दो बेडरूम, एक हाल और रसोई घर के साथ एक यूनिट भी बना दिया था. उस समय लगा शायद पीछे किराएदार रखना चाहते हैं. पर नहीं वो तो अपना भविष्य सुखमय करना चाह रहे थे. वो निर्माण घर के काम सहायक शीला और हरिपाल के लिए था, जिन्हें उन्होंने अपने ही गांव से लाकर पाला पोसा, कुछ हद तक पढ़ाया-लिखाया और फिर अपने साथ बसाया भी. उन दोनों की शादी भी करा दी. हरिपाल को अनुसूचित जाति की वजह से सरकारी बैंक में नौकरी भी मिल गई. क्या मजाल कि सरकारी नौकरी मिलने के बाद भी उनकी स्वामी भक्ति में ज़रा भी कमी आई हो. हरिपाल ऑफ़िस के बाद अम्मा जी का ड्राइवर, हेल्पर और कभी-कभी शीला के बीमार पड़ने पर बावर्ची भी था. लोगों ने हंसी भी उड़ाई कि दो-दो बेटों के होते हुए तीसरे बेटे जैसा हरिपाल की क्या ज़रूरत है? लेकिन अम्मा जी के पति ने भी अमिताभ बच्चन हेमामालिनी की बाग़बान पिक्चर कई बार देखी थी. हर बार एक नई सीख ली कि बच्चे अपने तभी तक हैं जब तक शादी नहीं होती. उन्हें बेटी ना होने का मलाल हमेशा रहता था. उनके एक दोस्त ने उन्हें एक कहावत बताई थी जो उनके दिमाग़ में पूरी तरह से घुस गई थी. वो थी,‘ए सन इज़ ए सन टिल ही गेट्स हिज़ वाइफ़. डॉटर रिमेंस डॉटर थ्रू आउट हर लाइफ़’.
ये बात बार-बार जब अम्मा जी से कहते तो अम्मा जी तिलमिला जाती, क्योंकि दोनों बेटे जान से प्यारे थे तो ही और वे भी मां-बाप का बहुत ध्यान रखते थे. कभी कभी बाबूजी कहते,‘ए डॉटर इज़ लाइक टेन सन्स’.
ये बेटे और बेटी का अंतर तो ज़माने से चला आ रहा है और चलता रहेगा. वहीं बाबूजी की बहन छोटी बुआ जी, जो बाबूजी की बेटी की ही तरह थीं, जब भी आतीं कहतीं,“भाग्य हो तो बड़े भैय्या जैसे. हीरे जैसे दो बेटे हैं और मुझे देखो, एक बेटे की आस में चार बेटियां पैदा कर लीं. सब तरफ़ से ताने मिलते हैं सो अलग.”
बाबूजी के दोनों बेटे ख़ूब अच्छी तरह पढ़ लिख गए और मां-बाप के अकेलेपन का अहसास भी उन्हें था. दोनों ने ही इसी शहर में अपना कारोबार शुरू कर लिया था. क़िस्मत से दोनों बहुएं, जो दो बहनें भी थीं, बड़ी भली थीं. बाबूजी को इससे ज़्यादा मतलब नहीं था कि वो उनका कितना ख़याल रखती हैं. उन्हें बहुओं की ख़ुद के मां-बाप के लिए तड़प से ज़्यादा परेशानी होती थी. मां हमेशा अपने बच्चों की बाप के तानो से रक्षा करती है. दोनों बेटों ने इसी शहर से स्कूलिंग की थी, इससे उनके बचपन के दोस्तों की भी भरमार थी. जब भी बच्चे अपने दोस्तों के साथ बड़ी पार्टी करते बाबूजी के दुष्ट दिमाग़ में यही ख़याल आता कि सास-ससुर की सेवा करने गए हैं. बाबूजी ने बहुएं चुनते वक़्त भी अपनी कुटिल सोच का बड़ा इस्तेमाल किया था. एक तो दोनों लड़कियां एक ही घर और वो भी अति साधारण परिवार से ताकि समधी परिवार भी एहसानों तले दबा रहे. लोगों ने फिर हंसी भी उड़ाई कि ऐसे बेटे, इतना धन फिर ऐसे घर से रिश्ता, एक नहीं दोनों बेटों का बेड़ा गर्क कर दिया. बेचारे…बेटे, एक को भी ससुराल का सुख नहीं मिला. अम्मा जी भी शुरू में रिश्तेदारों के भड़काने से बहुत दुखी थी. लेकिन बहुओं के प्यार और ख़याल ने सब भुला दिया.
बाबूजी भूल गए थे कि कठपुतली का नाच इंसानों के साथ ज़्यादा दिन नहीं खेला जा सकता है. उसके लिए बेजान कठपुतलियां और चतुर और माहिर खिलाने वाले की ज़रूरत होती है. यहां परेशानी ये थी कि ना तो बाबूजी माहिर थे और ना ही उनकी कठपुतलियां बेजान थीं. बेजान होने का नाटक बहुत दिनों तक नहीं किया जा सकता था. घर के तानों से परेशान हो घर के हर सदस्य ने अपनी ख़ुशी बाहर ढूंढ़नी शुरू कर दी थी. अम्मा जी समझा-समझा के थक गई थीं. बार-बार कहते,“देखो हरिपाल को कोई जवाब नहीं देता. मैं जो बोलता हूं, सुनता है.’’ बेचारी अम्मा…कैसी कहती कि नौकर और बच्चों में फ़र्क़ होता हैं. अगर कहती तो बच्चे और हरिपाल दोनों हाथ से जाते. बच्चे सोचते हममें और नौकर में कोई फ़र्क़ नहीं है. और हरिपाल को लगता जी जान लगा दी है, पर भी नौकर ही समझते हैं. नातियों और इकलौती नातिन ने अपने दादा को ‘दी बर्निंग ट्रेन’ की उपाधि दे दी थी. बाबूजी ने जब दुनिया छोड़ी तो घर पर सबने मानो चैन की सांस ली, लेकिन हरिपाल और शीला बेचारे कई दिनों तक फूट-फूट कर रोते रहे.
बाबूजी के जाने के बाद एक गड़बड़ जो हुई वो थी, उनकी आत्मा का अम्मा जी में समा जाना. बिल्कुल उनकी बोली बोलने लगी हैं. बेटे बहू बाहर निकलते ही पूछतीं,“कहां जा रहे हो? मम्मी-पापा की तरफ़? खाना वहां खाओगे या यहां बनवाऊं?”
बच्चे भी खीझ जाते कि हर बार बाबूजी के व्यंग्य बाणों से बचाने वाली अम्मा को क्या होता जा रहा है? बहुएं पुरानी हो चुकी थीं, इसलिए मुंह भी खुल चुके थे. छोटी वाली तो वैसे भी थोड़ी पटाखा थी, कहने लगी,“लगता है बाबूजी अकेले ऊपर नहीं रह पा रहे हैं. अम्मा जी को बुला कर ही मानेंगे. अब इनकी बारी आ गई है.’’ बस फिर क्या था अम्मा का लाड़ला उसका पति उस पर बरस पड़ा.
चारों बच्चे जो अब बच्चे नहीं रहे नए ज़माने के थे, इससे समय की दौड़ में उनके प्यारे हरि चाचा जाने कब ‘हरि’, शीला चाची ‘ए शीला’ और कहानी सुनाने वाली दादी अम्मा सर खाने वाली बुढ़िया बन गए. किसी को राम का वनवास, रावण पर विजय और वापस अयोध्या आना याद ही ना रहा. ख़ुद के बच्चों के लिए भी दीपावली के मायने बदल गए हैं, दोस्तों के साथ ताश और फिर एक पार्टी डान्स और ना जाने क्या-क्या.
अम्मा और शीला ने दो दिनों से लगकर खाजा, गुझिया, नमक पारे, शक्कर पारे, गुलाब जामुन इतना कुछ बनाया. अम्मा के बहुत आवाज़ लगाने पर किसी तरह पूजा के लिए आए ज़रूर पर सबको वहां से भागने की जल्दी थी. एक गुझिया के चार टुकड़े कर दोनों बहुओं और बेटों ने खाए. उसके बाद की जनरेशन ने तो अम्मा की लाख गुहार के बाद एक छोटे से शक्कर पारे को मानों हाथ से टच कर लिया. पूरा घर ऑर्टिफ़िशल लाइट से दुल्हन की तरह सजा था. बच्चे छत पर दोस्तों के साथ दिवाली पार्टी कर रहे थे. वहां का मेनू था पिज़्ज़ा, सैंडविच, पिटा ब्रेड, हम्मस और स्वीट में बच्चों का पसंदीदा तिरामिसु.
अम्मा की मिठाइयों और छत की सजावट ने हरि और शीला निढाल और बेहोश अपने घर में पड़े थे. बेटा-बहू दोस्तों की घर की तरफ़ चले गए. छत की पार्टी के लाउडस्पीकर के शोर में अम्मा की दिए लगाने की गुहार लगभग दब-सी गई. अम्मा चिल्ला-चिल्ला कर निढाल हो वहीं अपने दियों और मिठाइयों के बीच ना जाने कब सो गईं. बेजान मिठाइयां और दिए भी समय की दौड़ के आगे हार गए.

Illustration: Pinterest

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डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा

डॉ संगीता झा हिंदी साहित्य में एक नया नाम हैं. पेशे से एंडोक्राइन सर्जन की तीन पुस्तकें रिले रेस, मिट्टी की गुल्लक और लम्हे प्रकाशित हो चुकी हैं. रायपुर में जन्मी, पली-पढ़ी डॉ संगीता लगभग तीन दशक से हैदराबाद की जानीमानी कंसल्टेंट एंडोक्राइन सर्जन हैं. संपर्क: 98480 27414/ [email protected]

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