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Home ओए हीरो

वीर अब्दुल हमीद: एक बहादुर सैनिक की अमर गाथा

देश का सितारा- अब्दुल हमीद

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
June 11, 2025
in ओए हीरो, ज़रूर पढ़ें, शख़्सियत
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abdul-hamid
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इन दिनों देश में हिंदू और मुस्लिम नागरिकों के बीच एक अनकही-सी दीवार खींची जा रही है. जिसका मक़सद केवल वोट पाना है, लेकिन गांधी का यह देश वैमनस्यता की इन कोशिशों को कामयाब नहीं होने देगा. यही अरमान दिल में लेकर ओए अफ़लातून अपनी नई पहल के साथ हाज़िर है, जिसका नाम है- देश का सितारा. जहां हम आपको अपने देश के उन मुस्लिम नागरिकों से मिलवाएंगे, जिन्होंने हिंदुस्तान का नाम रौशन किया और क्या ख़ूब रौशन किया. इसकी पांचवीं कड़ी में आप जानिए वीर सैनिक अब्दुल हमीद को.

भारतीय इतिहास में कुछ ऐसे नायक हुए हैं, जिन्होंने अपनी वीरता, साहस और देशभक्ति से देश का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया है. उनमें से एक हैं कंपनी क्वार्टरमास्टर हवलदार अब्दुल हमीद, जिन्हें वर्ष1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उनके अदम्य साहस और बलिदान के लिए भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान, परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. उनकी कहानी न केवल सैनिकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है, बल्कि प्रत्येक भारतीय के लिए देशप्रेम और कर्तव्यनिष्ठा का प्रतीक है.

बचपन में ही दे दिया था साहस का परिचय
बचपन में अब्दुल हमीद की रुचि पढ़ाई से ज्यादा शारीरिक गतिविधियों में थी. वे कुश्ती, लाठी चलाने, निशानेबाजी और तैराकी में माहिर थे. एक बार बाढ़ के पानी में डूब रही दो लड़कियों की जान बचाकर उन्होंने अपने साहस का परिचय दिया था. उनकी यह प्रवृत्ति और देश के प्रति प्रेम उन्हें सेना की ओर ले गया.

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अब्दुल हमीद का जन्म 1 जुलाई, 1933 को उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के धामूपुर गांव में एक साधारण परिवार में हुआ था. उनके पिता, मोहम्मद उस्मान, पेशे से दर्जी थे और कपड़ों की सिलाई करके परिवार का भरण-पोषण करते थे. उनकी माता का नाम सकीना बेगम था. अब्दुल हमीद का बचपन बेहद सादगी भरा था. परिवार की आर्थिक स्थिति सामान्य होने के कारण उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. फिर भी, उनके मन में देशसेवा का जज्बा बचपन से ही था.

सेना में प्रवेश और प्रशिक्षण
अब्दुल हमीद ने मात्र 20 वर्ष की आयु में, 27 दिसंबर, 1954 को वाराणसी में भारतीय सेना में भर्ती होकर अपने सपनों को साकार किया. उन्हें ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट की चौथी बटालियन में शामिल किया गया. उनकी प्रारंभिक तैनाती आगरा, अमृतसर, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, नेफा और रामगढ़ जैसे विभिन्न स्थानों पर रही. सेना में शामिल होने के बाद उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण के दौरान अपनी निशानेबाजी और रणकौशल में विशेष दक्षता हासिल की.
वर्ष 1950 के दशक में जम्मू-कश्मीर में तैनाती के दौरान अब्दुल हमीद ने घुसपैठियों और आतंकवादियों के खिलाफ कई ऑपरेशनों में हिस्सा लिया. एक बार उन्होंने कुख्यात डाकू इनायत अली को पकड़वाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके लिए उन्हें लांस नायक के पद पर प्रोन्नति दी गई. वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान उनकी बटालियन ने नमका चू की लड़ाई में हिस्सा लिया, लेकिन इस युद्ध में उन्हें अपनी वीरता का पूर्ण प्रदर्शन करने का अवसर नहीं मिला. फिर भी, उनकी देशभक्ति और शत्रु को परास्त करने की इच्छा अटल रही.

भारत-पाकिस्तान युद्ध में भूमिका
पाकिस्तान ने जब वर्ष 1965 में जब भारत पर हमला किया, तब अब्दुल हमीद को अपनी मातृभूमि की रक्षा का मौक़ा मिला. उस समय वे पंजाब के तरनतारन जिले के खेमकरण सेक्टर में तैनात थे. पाकिस्तान ने ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ के तहत जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ शुरू की और फिर खेमकरण सेक्टर के असल उत्तर गांव पर अपने अजेय माने जाने वाले अमेरिकी पैटन टैंकों के साथ हमला बोला. भारतीय सेना के पास उस समय न तो आधुनिक टैंक थे और न ही बड़े हथियार, लेकिन अब्दुल हमीद और उनके साथियों के पास मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने का जज़्बा था, जो किसी भी टैंक की तुलना में कहीं ज़्यादा प्रभावशाली होता है.

वर्ष 1965 के 8 सितंबर की रात को पाकिस्तानी सेना ने भारी बमबारी के साथ हमला शुरू किया. अब्दुल हमीद ने अपनी 106 मिमी रिकॉयलेस गन से लैस जीप को गन्ने के खेतों की आड़ में रखकर दुश्मन के टैंकों पर निशाना साधा. उनकी रणनीति थी कि टैंकों को उनकी रेंज में आने दिया जाए और फिर उनके कमज़ोर हिस्सों पर प्रहार किया जाए. उन्होंने एक के बाद एक चार पैटन टैंकों को नष्ट कर दिया. उनके इस साहस ने भारतीय सैनिकों का हौसला बढ़ाया. और भारतीय सैनिक और अधिक जोश के साथ युद्ध में जुट गए.

अगले दिन यानी 9-10 सितंबर, 1965 को असल उत्तर की लड़ाई में अब्दुल हमीद ने कुल आठ पाकिस्तानी टैंकों को ध्वस्त कर दिया. उनकी यह उपलब्धि इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है, क्योंकि उन्होंने सीमित संसाधनों के बावजूद ‘अपराजेय’ माने जाने वाले टैंकों को नष्ट कर दिया. नौवां टैंक नष्ट करते समय दुश्मन के एक गोले ने उनकी जीप को निशाना बनाया, जिससे वे वीरगति को प्राप्त हुए. उनकी शहादत ने युद्ध का रुख़ बदल दिया और भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को भारी नुकसान पहुंचाया. इस युद्ध में पाकिस्तान के 97 टैंक नष्ट कर दिए गए और असल उत्तर को ‘पट्टन नगर’ (टैंकों का कब्रिस्तान) के नाम से जाना गया.

वीरता का सम्मान
अब्दुल हमीद की असाधारण वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान, परमवीर चक्र प्रदान किया गया. यह सम्मान युद्ध समाप्त होने से पहले ही, 16 सितंबर, 1965 को घोषित किया गया था. 26 जनवरी, 1966 को गणतंत्र दिवस के अवसर पर तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उनकी पत्नी, रसूलन बीबी को यह सम्मान प्रदान किया. इसके अतिरिक्त, उन्हें सैन्य सेवा मेडल, समर सेवा मेडल और रक्षा मेडल भी प्रदान किए गए. 28 जनवरी, 2000 को भारतीय डाक विभाग ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया, जिसमें वे अपनी रिकॉयलेस राइफल के साथ जीप पर नजर आते हैं.

परिवार और निजी जीवन
अब्दुल हमीद का विवाह रसूलन बीबी से हुआ था, जिन्होंने उनकी शहादत के बाद भी उनकी विरासत को संजोए रखा. उनके परिवार में उनके माता-पिता और भाई-बहन थे, जिनके साथ उनका गहरा लगाव था. युद्ध में जाने से पहले उन्होंने अपने भाई से कहा था, “पलटन में उनकी बहुत इज़्ज़त होती है, जिनके पास कोई चक्र होता है, देखना झुन्नन, हम जंग में लड़कर कोई न कोई चक्र ज़रूर लेकर लौटेंगे.” यह उनके आत्मविश्वास और देशभक्ति को दर्शाता है. उनकी पत्नी ने बताया कि युद्ध के दौरान वे छुट्टी पर घर आए थे, लेकिन देश की पुकार सुनकर तुरंत ड्यूटी पर लौट गए. उनकी पत्नी ने अपशकुन की आशंका जताई थी, लेकिन अब्दुल हमीद के लिए देशसेवा सर्वोपरि थी.

अब्दुल हमीद आज भी हैं प्रेरणा पुंज
वीर अब्दुल हमीद की कहानी आज भी भारतीय सेना और देशवासियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है. उनकी शहादत ने यह साबित किया कि साहस, रणकौशल और देशभक्ति के सामने कोई भी शत्रु अजेय नहीं है. उनके गांव धामूपुर में हर साल उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, जहां विभिन्न धर्मों के लोग उनकी मज़ार पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं. असल उत्तर में उनकी याद में एक मकबरा बनाया गया है, जहां हर साल मेला लगता है.

उनके साहस ने न केवल वर्ष1965 के युद्ध में भारत की जीत सुनिश्चित की, बल्कि यह भी दिखाया कि सीमित संसाधनों के बावजूद दृढ़ संकल्प और रणनीति से असंभव को संभव बनाया जा सकता है. उनकी कहानी स्कूलों में पढ़ाई जाती है. उनकी वीरता ने यह संदेश दिया कि युद्ध केवल हथियारों से नहीं, बल्कि हौसले और जज़्बे से जीता जाता है.

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