बीते हुए समय की सुखद यादों को पकड़कर रखने से वर्तमान का दुख और भी बढ़ जाता है. आप चाह कर भी अतीत के अच्छे दिनों को वापस नहीं ला सकते, तो व्यर्थ में उन्हें याद करके अपने दुखों को दोगुना करने का क्या फ़ायदा. रोमानी मिज़ाज के कवि कहे जानेवाले गिरिजाकुमार माथुर ‘छाया मत छूना’ में यथार्थ को स्वीकार करने की बात कर रहे हैं.
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना
जीवन में हैं सुरंग सुधियां सुहावनी
छवियों की चित्र-गंध फैली मनभावनी
तन-सुगंध शेष रही, बीत गई यामिनी
कुंतल के फूलों की याद बनी चांदनी
भूली-सी एक छुअन बनता हर जीवित क्षण
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना
यश है या न वैभव है, मान है न सरमाया
जितना ही दौड़ा तू उतना ही भरमाया
प्रभुता का शरण-बिंब केवल मृगतृष्णा है
हर चंद्रिका में छिपी एक रात कृष्णा है
जो है यथार्थ कठिन उसका तू कर पूजन
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना
दुविधा-हत साहस है, दिखता है पंथ नहीं
देह सुखी हो पर मन के दुख का अंत नहीं
दुख है न चांद खिला शरद-रात आने पर
क्या हुआ जो खिला फूल रस-बसंत जाने पर?
जो न मिला भूल उसे कर तू भविष्य वरण
छाया मत छूना
मन, होगा दुख दूना
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