आप दुनियाभर की दौलत कमा लें, पर सांसों से बड़ी दूसरी कोई पूंजी नहीं हो सकती. केदारनाथ सिंह की इस कविता का यही सार है.
सारा शहर छान डालने के बाद
मैं इस नतीजे पर पहुंचा
कि इस इतने बड़े शहर में
मेरी सबसे बड़ी पूंजी है
मेरी चलती हुई सांस
मेरी छाती में बंद मेरी छोटी-सी पूंजी
जिसे रोज़ मैं थोड़ा-थोड़ा
ख़र्च कर देता हूं
क्यों न ऐसा हो
कि एक दिन उठूं
और वह जो भूरा-भूरा-सा एक जनबैंक है
इस शहर के आख़िरी छोर पर
वहां जमा कर आऊं
सोचता हूं
वहां से जो मिलेगा ब्याज
उस पर जी लूंगा ठाट से
कई-कई जीवन
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